30

🌹💙 *सखियों के श्याम* 💙🌹

🌹 *को आराधे ईस* 🌹

 *(30)* 

'क्या?"

'क्या कहते हो उद्धव! यह संदेश श्यामसुंदर ने हमारे लिये भेजा है?'

'सखी! सम्भवतः ये कहीं अन्य स्थान पर जाते-जाते इधर व्रज में पथ भूलकर आ गये लगते हैं। अन्यथा यहाँ कौन योग-वोग की बात जानता समझता है भला?' – इन्दुलेखा जीजी ने कहा ।

'अरी बहिन! न हो कि पहले बहुत से साधु-बाबा जमना किनारे आ आकर बसते थे न ! उन्हींके लिये यह संदेश होगा। उद्धव बेचारे बौराय गये, शीघ्रता में संदेश ले दौड़ पड़े। किसको क्या कहना, यह न समझ पाये!' 'किन्तु अब इस संदेशका क्या होगा बहिन! बाबा लोग तो अब टिकते

नहीं; आते तो हैं, पर कोई एकाध दिन में ही मथुरा की ओर मुँह उठाये चल पड़ते हैं। यह संदेश किसे जाकर सुनायें उद्धव ?' चित्रा की बात सुन रमा बोली-'सम्भव हो कि महर्षि शाण्डिल्य के आश्रम में इधर कोई योगी आये हों! हमारे श्याम जू तो सभी विद्याओं में पारंगत है; जब उद्धव व्रज जा ही रहे हैं, तो उन योगीराज के लिये भी कोई संदेश पठाय दिया। ए प्रिया! इन्हें तनिक महर्षि के आश्रम का पथ दिखा दे, जाकर कह आयें।'

'किन्तु सखी! हमारे लिये श्यामसुंदर ने जो संदेशा पठाया है, सो तो सुन लो! कहीं ऐसा न हो कि जैसे इस दौड़ा-दौड़ी में उद्धव साधु बाबा को सुनाना वह हमें सुना गये, और हमें सुनाने वाला संदेश उन जटाधारियों को सुना आयें।' चन्द्रा जीजी की बात सुन सबकी सब हँस पड़ी-'उधो जू! फिर तो उनकी जो गत बनैगी सो बनैगी, पर जोगीसर बेचारे मुँह फाड़े तुम्हारे शून्याकाश को घूरते-घूरते कहीं चिमटा उठाये तुम्हीं को ध्यान धराने- आसन लगवाने में न पिल पड़ें। अतः । जो संदेश काऊ बाबा जोगी को, ऋषि-मुनि को दियौ होय सो हमें सुनाय दो और अपनी यह योग की गठरी मुठरी उठाय के उनको थमा आओ।'

'अरी भाग्यवानो! पहले या की सुन तो लो। आधे तो पहले से बौराये लगते हैं और तुम सब मिली के याही और बौराय दोगी।'– विशाखा जीजी की बात सुन सब चुप होकर उद्धव के समीप सिमट आयीं सुनने को आतुर होकर सब उनका मुख निहारने लगीं। उद्धव जैसे मानो कुछ समझ न पा रहे हों, कभी इधर-उधर और कभी हम लोगों की ओर देखें।

'कहा बात है ऊधो जू! तुम निसंक व्हे के श्यामसुंदर को संदेशों कहो; सकुचाने की काऊ बात नाय।'– ललिता जू बोली।

'मैं यह संदेश किसी ऋषि-मुनि के लिये नहीं, तुम्ही सबके लिये लाया हूँ। यह समस्त चराचर जगत निराकार चेतन तत्व से व्याप्त है। जो दृश्य, गति अथवा परिवर्तन और वैचित्र्य दिखायी देता है, सो सब सत्व, रज और तम; इन त्रिगुणों में क्षोभ के कारण। इन्हीं त्रिगुणों से उत्पन्न पंचभूतों से प्राणियों की देह उत्पन्न हुई है। जीव अपने स्वरूप को न समझ पाने के कारण ही मेरा-तेरा करके सुख-दुःख अनुभव करता है। कुछ समय मेरुदंड सीधा रखकर आसन लगाकर अभ्यास किया जाय तो मन एकाग्र होने पर हृदय गुहा में स्थित चैतन्य अथवा अपना स्वरूप प्रकाशित हो उठता है। ज्ञान हो जाने के पश्चात् केवल एक निराकार ईश्वर तत्व ही बचता है, भिन्नता का आभास समाप्त हो जाता है। यह जो हाथ-पैर, बोल चाल व्यवहार हमें जान पड़ते हैं या दिखायी पड़ते हैं सो मात्र अज्ञान के कारण ! इसलिये हे गोपीकाओं! परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र का आदेश है कि मन को एकाग्र करके अपने स्वरूप में स्थित हो जाओ, और....।'

"अरी बहिनों! यह उधो महाराज तो सचमुच ही बौराय गये हैं। यह अपने श्यामसुंदर को कहा कहे है, परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र ' बाबा रे बाबा! कहो तो ऐसी सूखो-रूखो और कठोर संदेश भला श्यामसुंदर को हो सके भला? यह परब्रह्म श्रीकृष्ण निश्चय ही कोऊ और है।'

'उधो जू! हम तुम्हारे हाथ जोड़ें—पाँव पड़ें। हमारी परीक्षा मत लो, हमारा धैर्य मत परखो! हम दुखियारिन पै दया करके कान्ह जू को प्राण-संजीवन संदेशो सुनाय के हम पर कृपा करो।' 'वही तो हे व्रजदेवियो! कब से तुम्हें सुना रहा हूँ कि ज्ञान प्राप्त कर लेना ही मानव-जन्म की चरम सफलता है; पर तुम सब सुनना ही नहीं चाहती; मेरी बात समझ ही नहीं पा रही हो। मुझे यही संदेश- उपदेश लेकर श्रीकृष्णा ने तुम्हारे समीप समझाने को भेजा है, जिससे तुम्हारा मोह दूर हो जाय और शाँति पाओ।'

उद्धव की बात सुनकर लगा जैसे चारों दिशायें सूनी हो गयीं। हमारी आँखों के आगे अंधेरा छा गया। किसी के मुख से कोई बात न निकली। जिस संदेश के सुनने के लिये हमारे प्राण कानों में आ बसे थे वह.... जैसे खेलते कूदते शशकों के झुंड को किसी ने दावाग्नि में झोंक दिया क्या कहें.... किसे कहें ? श्यामसुन्दर को ?.... उद्धव को ?

सब पाहन की मूर्ति सी निष्प्राण चित्रलिखी-सी हो रहीं। थोड़े समय पश्चात चन्द्रावली जीजी का स्वर सुनायी दिया- 'आह, भली करी श्याम जू तुमने नीको संदेश पठायो मरे को मारने में कहा पाप और कहा पुण्य ? किंतु उधो! तिहारे बौरेपन में हूँ कछु कसर नाय, जो ऐसे संदेश सुनायबे कूं एक साँस इहाँ दौरे आये। आये सो तो भले आये भैया! हमारे प्रिय के संदेशवाहक हो। संदेसो भले हमारे काम को होय के ना होय! उनके सखा हो, उनसे मिलके आ रहे हो; ये वस्त्र, ये आभूषण, यह तुम्हारा उनका सा वर्ण! सब देखकर हमें सुख मिला है। तुम हमारे सम्माननीय हो; कुछ दिन या गंवार गाँव में हम गरीब गुजरियों को पहुनायी का अवसर प्रदान करो। हम गंवार योग-साधन कहा जाने ! इस योग की गठरी को कसकर पुनि बाँध लेओ; कहीं अन्यत्र कोई ग्राहक मिले तो खोलकर दिखाइयो- आभार मानेगा- कछु मोल मिलेगो । यहाँ व्रज में तो याकी कानी कौड़ी की कीमत कोऊ नाय धरेगो।'

'जीजी!' इला बोली- 'इनसे एक बात तो पूछौ कि इनको निराकार कैसोक होय है? सो कहा पहरे ? कहा खाय? कैसे विहरे ? कहा वह हूँ हमारे श्यामसुंदर सो मनमोहन है? कहा बाकी बानी हू वैसी मीठी है ? कहा वाने हू इनको विपत्ति सो बचाइबे को कछु भागमभाग करी ? बिना हाथ-पाँव - आँख नाक के कैसोक दिखतो होयगो; जा पै ये इतना रीझे पड़े कि और कुछ सूझे ई नाय!' 

'अरी देवियों! यह सब करने को उन्हें हाथ-पैर रूप की कोई आवश्यकता नहीं है। वह निराकार रूप में ही परम समर्थ है। - उद्धव ने पुनः एक बार समझान का प्रयत्न किया। "सुनो; सुनो सखियों! यह कैसी बात है भला! तुमने कभी सुनी ? अरे हम क्या तुम्हारी भाँति विक्षिप्त थी कि निराकार पर मोहित होती ? वह भूवनमोहन मुख- उसकी माधुरी ने हमारी मति गति हर ली उद्धव! तुम न जाने किस सड़े बूसे निराकार को देख आये हो कि प्रशंसा में जीभ ही नहीं थकती। एकबार देखा होता तुमने हमारे व्रजवल्लभ को, सुनी होती एकबार उस बंसरी की वह त्रिभूवनमोहिनी तान देखी होती तुमने वह छटा! जो हमारे लिये उन्होंने सात दिन तक गिरिराज को उठाये खड़े रहे। क्या-क्या कहें! सबेरे शाम वह गायों का दुहना, सिर पर नोवना लपेटे उनका वह गोपाल रूप, बछड़ों गायों के गलों में बाँहे डालकर उन्हें दुलारना, बातें करना। उनकी वह हँसी! सच कहती हूँ उद्धव; उनकी वह मुस्कान - वह हँसी, उसने हमें कहीं की न रखा। हम कब अपना और पराया भूलकर उनका चिन्तन करने लगी; हमें स्वयं स्मरण नहीं है। अब तुम न जाने किस निर्गुण की बात करते हो । भला गुण के बिना कौन किसको अच्छा लगा है? तुम्हीं कहो! तुम्हारा वह कंस, उसमें तो कोई गुण नहीं थे! कितना अच्छा लगा तुम्हें कौन-कौन रीझ पड़े उस पर ? फिर तुम्हारे कृष्णचन्द्र ने निर्गुण निराकर होकर, बिना हाथ-पैरों के ही उसे मार डाला? जैसा बिना हाथ पैर का तुम्हारा ईश्वर! वैसी ही बिना हाथ-पैर की तुम्हारी बातें हमारी तो यही समझमें नहीं आता कि किस बात के लिये तुम उसकी इतनी प्रशंसा कर रहे हो! और हमें क्या समझाना चाहते हो?"

'क्या सचमुच ही श्यामसुन्दर ने तुम्हें यह सब हमें समझाने को भेजा ?'- चित्रा ने पूछा।
 'हाँ ।'– उद्धव ने सिर हिला दिया; बेचारे बोलते भी क्या !

'धन्य हो मोहन!' ललिता जू निश्वास छोड़कर बोली-'हमें भेजने को तुम्हें दण्ड, कमण्डल, सींगी, सैली और मुद्रा ही जुटी! जटा और भस्म के उपदेश करके हमारे गौरस दान का बदला भलीभाँति चुका दिया तुमने! हम तो वह सब भी कर लेतीं, पर हमारे मन तो हमारे समीप छोड़ जाते कि तुम्हारी इन बातों का पालन कर पातीं। कृपण विधाता का दिया एक ही तो मन था, वह भी तुम्हारे संग गया। अब कहो तुम्हारे इस निराकार ईश्वर की आराधना कौन और कैसे करे ? हमारी आँखों से, साँसों से, मन से क्षण भर भी तो तुम टलते नहीं, तब उस निराकार  की बात कैसे सोचें। तुम बुरा न मानना कि हमने तुम्हारी बात को महत्व नहीं दिया, किंतु उपाय क्या करें? इससे तो यही ठीक होता कि पहले इस निराकार को मन में ढूँस लेने के पश्चात ही हम तुम्हारे दर्शन पातीं। पर तब हम क्या जानती थी कि एक दिन ऐसा भी आयेगा कि तुम अपनी रूपमाधुरी के स्थानपर कोई निराकार भेजोगे, जिसे चारों दिशाओं में आँखे फाड़कर देखने पर भी हम देख नहीं पातीं! हमारे साथ बोलने, खेलने और खाने, विविध लीलायें करने के स्थान पर मेरुदंड सीधा करवा कर नासाग्र को देखने का व्यायाम करने को कहोगे। व्यायाम भी हम कर लें, पर तुमसे मन हटे तो ! जिधर दृष्टि जाती है, तुम्हीं दिखायी देते हो। तुम्हें हम कैसे भूलें; ब्रजभूमि पर अब भी तुम्हारे पदचिन्ह अंकित हैं। कोई स्थान ऐसा नहीं, जहाँ तुमने कोई लीला न की हो। हम कहाँ जायं? जिधर दृष्टि उठती हैं, तुम्हारी लीला स्मृतियों की रेलमपेल मच जाती है। हम तुम्हारी किंकरिया हैं, हम पर कृपा करो। यह ईस हमारे बस का नहीं, हम क्या करै !"

"अरी ललिते! क्यों दुःख करती है बहिन! चन्द्रा जीजी बोलीं 'जो पीड़ा को; प्रतिपल उफनती पीड़ा को ही हमारा भाग्य बनाकर भाग छूटा है, उसे कैसी दया माया? पहले से मन नहीं भरा था कि यह एक प्रहार और कर दिया। क्यों दुःखी होती हो! जब कार्य हमारे बिना आराम से चल रहा है, तो हमारा भी चल जायेगा। ऐसे कुटिल को याद करने का काम क्या है ? अरे स्वयं ही बैठ गये होते न समाधि लगाय के या फिर अपने मामा को ही लगवाय दी होती। अरे ऊधो जू! आप तो योग के पूरे पंडित जान पड़ते हैं, यह योग स्याम जू ने आपको सिखाया या वे मथुरा जाकर इस योगपर रीझ पड़े ! और क्या-क्या सीखे वे वहाँ जाकर, और कितने तीर तीखे कर रहे हैं यहाँ व्रज पर चलाने को वे ?"

"अरे हाँ, यह तो पूछना भूल ही गयी कि हम तो गाँव की भोली-भाली गंवार गूजारियाँ है ऊधो! बिना जाने सोचे-समझें रीझ पड़ी उन पर ! किंतु तुम्हारे मथुरा की नारियाँ नागरिकायें चतुर हैं- समझदार हैं; उनपर भी श्यामसुन्दर का मोहन मंत्र चला कि नहीं? वे क्यों आने लगी उनकी चिकनी चुपड़ी बातों में ?"

रंगदेवी की बात सुन श्यामा जू बोली- 'मेरी भोली सखियों! श्यामसुंदर, एक ही चतुर शिरोमणी हैं, किसी को लुभाने को उनकी एक चेष्टा ही बहुत है; फिर जो कोई उनका रूप देख ले, हँसी देख ले, बात सुन ले, उनकी चाल उनकी वह अनियारे दृगों की लाल डोरों से सज्जित दृष्टि देख ले; तो फिर त्रिभुवन में कौन है जो आपा न भूल जाय! बेचारी मथुरावासिनियाँ भी हमारी ही भाँति जाल में फँसी मीन-सी छटपटाती होंगी।'

'कौन जाने बहिन ! वे ठहरी चतुरा, हमारे नंदनंदन को ही उन्होंने अपने प्रेमपाश में समेट लिया होगा! लाख छूटने का उपाय करने पर भी छूट न पाते होंगे, तो निराश होकर हमसे पीछा छुड़ाने को यह जोग की गठरिया ऊधो जू के माथे धरकर पठाय दी कि अब आशा छोड़कर सब की सब भस्म, जटा, वलकल धारण कर अलख जगाओ उधो जू! तुम्हारी वा मथुरा में सब कारे-ही-कारे बसें का? एक तुम्हारो वो आयो श्रीकृष्णचन्द्र, कारन को सरताज ! हमने वापर सर्वस्व न्यौछावर कर दीनो; खा-पीकर, कोटिक उधम मचा - बलवान बनके, नंदनंदन तें वासुदेव देवकीनंदन बनकर हमारो सब समेट कर चलतो भयो। एक वो अक्रूर आयो; जाने कौन ने वाको नाँव अक्रूर धर्यो! मीठौ-मीठौ बोलकर हँस हँसकर हमारी आँखें हूँ निकार ले गयो ! और एक तुम पधारे; वाई कारे के परम सखा !! स्वयं हू कारे - उपदेश की खेप भरि कै, हमारी हितु बनि कै, अपनो बणज फैलाय कहे- प्रेम त्यागि के बैरागन है जाओ।'

वाह महाराज !' इलाने कोहनियों तक हाथ जोड़े - 'हम बाज आयीं! अपना व्यापार समेटो । धन्य धन्य आप सब मथुरावासी और धन्य आपकी वा काजर की कोठरी मथुरा ! जामें ते जो निकस्यो सोई कारो।'

*जय जय श्री राधेश्याम🙏🙏*

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