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प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना 5
प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना

इस प्रकार प्रगाढ़ प्रेम की पराकाष्ठा ही रागानुगा (प्रेमा) भक्ति है। इस प्रेम भक्ति में अनन्यता का सर्वोपरि स्थान है। अनन्यता के सम्बंध में देवर्षि नारद का कथन है कि अपने प्रिय भगवान को छोड़ कर दूसरे आश्रयों के त्याग का नाम ही अनन्यता है- 'अन्याश्रयाणां त्यागोऽनन्यता'।[1] अनन्य प्रेम का साधारण स्वरूप यह है- एक भगवान के अतिरिक्त अन्य किसी में किसी समय भी आसक्ति न हो। प्रेम की मग्ता में भगवान के सिवा अन्य किसी का ज्ञान ही न रहे, जहाँ- जहाँ मन जाय वहीं भगवान दृष्टिगोचर हों। यूँ होते-होते अभ्यास बढ़ जाने पर अपने आप की विस्मृति हो कर केवल भगवान ही रह जायँ, यही विशुध्द अनन्य प्रेम है। प्रेम करने के हेतु भी केवल परमेश्र्वर या उनका प्रेम ही होना चाहिये। प्रेम के लिये ही प्रेम किया जाय अन्य कोई हेतु न रहे। मान-बड़ाई और प्रतिष्ठा तथा इस लोक और परलोक के किसी भी पदार्थ की इच्छा की गंध भी साधक के मन में न रहे। ऐसा विशुध्द प्रेम होने पर जो आनंद होता है उसकी महिमा अकथनीय है। ऐसे प्रेम का वास्तविक महत्त्व कोई परमात्मा का अनन्य प्रेम ही जानता है।

उत्तम साधक संसारिक कार्य करते हुए भी अनन्य भाव से परमात्मा का चिंतन किया करते हैं। साधारण भगवत्प्रेमी साधक अपना मन परमात्मा में लगाने की कोशिश करते हैं, परंतु अभ्यास और आसक्ति वश भजन-ध्यान करते समय भी उनका मन विषयों में चला ही जाता है। जिनका भगवान में मुख्य प्रेम है वे हर समय भगवान को स्मरण रखते हुए भी समस्त कार्य करते हैं और जिनका भगवान में अनन्य प्रेम हो जाता है उनको तो समस्त चराचर विश्व एक वासुदेव ही प्रतीत होने लगता है। ऐसे महात्मा बड़े दुर्लभ हैं।[2]

अब प्रश्न यह उपस्थित होता हैं कि यह प्रेम प्राप्त कैसे हो? इस सम्बंध में गोस्वामीजी महाराज ने कहा-

बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग।
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग ॥[3]

पर वास्तविक्ता यह है कि हम लोगों को प्रेम तो काञ्चन-कामिनी, मान-प्रतिष्ठा में हो रहा है। हम सच्चे प्रेम के लिये तो ह्र्दय में कामना ही नहीं करते। जब तक प्रेम के लिये हृदय तरस नहीं जाता, व्याकुल नहीं हो जाता, तबतक प्रेम की प्राप्ति हो भी कैसे सकती है। अभी तो हम लोगों का कामी मन नारी-प्रेम में ही आनंद की उपलब्धि कर रहा है, अभी तो हम लोगों का लोभी चित्त काञ्चन की प्राप्ति में ही पागल है, अभी तो हम लोगों का चञ्चल चित्त मान-बड़ाई के पीछे मारा-मारा फिरता है। जबतक हम लोगों का यह काम और लोभ सब ओर से सिमटकर एक मात्र प्रभु के प्रति नहीं हो जाता, तबतक हम प्रभु-प्रेम को प्राप्त करने के अधिकारी ही नहीं हैं।

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