प्रभु को पकड़ना

*वाणी से प्रभु को पकड़ना*

प्रभु के नाम एवं मन्त्र का जाप, प्रभु के गुण और स्तोत्रों का पठन-पाठन, उनके नाम और गुणों का कीर्तन, प्रभु के नाम, रूप, गुण, प्रेम और प्रभाव का विस्तार पूर्वक उनके भक्तों में वर्णन करना, परस्पर भगवत-विषयक ही चर्चा करना, विनयपूर्वक सत्य और प्रिय वचन बोलना इत्यादि जो प्रभु के अनुकूल वाणी का व्यवहार करना है वह वाणी द्वारा प्रभु को पकड़ना है |

*कर्म से प्रभु को पकड़ना*

प्रभु की इच्छा एवं आज्ञानुसार निःस्वार्थभाव से केवल प्रभु के ही लिए कर्तव्यकर्मों का आचरण करना | जैसे पतिव्रता स्त्री पति के लिए ही पति के आज्ञानुसार ही काम करती है वैसे ही प्रभु की आज्ञा के अनुसार चलना |

बन्दर अपने प्रभु को प्रसन्न करने के लिए जैसा नाच वह नचावे वैसा ही नाचता है | बाजीगर को खुश करने के लिए ही बन्दर नाचता है, कूदता है, खेलता है और कुतूहल करता है | हम भी तो अपने ‘बाजीगर’ के हाथ के बन्दर ही हैं, फिर वह जिस प्रकार प्रसन्न हो, वही नाच हमें प्रिय होना चाहिए | फूल तो वही जो चतुर-चिन्तामणि के चरणोंपर चढ़े, जीवन तो वही जो प्रभु के चरणों में चढ़ जाय |

कपड़े की चादर को जिस प्रकार मालिक चाहे ओढ़े, चाहे बिछावे, चाहे फाड़ दे, चाहे जला दे, चादर हर प्रकार से उसके अधीन है | ठीक उसी प्रकार भक्त को भी होना चाहिए | चाहे प्रभु भक्त को तारे, चाहे मारे, वह जिस प्रकार चाहे रक्खे | काट डाले, चाहे जला डाले—जैसे चाहे वैसे रक्खे, भक्त को तो हर क्रिया में मालिक का प्यारा हाथ देखकर सदा हर्षपूर्ण ही रहना चाहिए |

हम तो प्रभु के हाथ की केवल कठपुतली हों | वह चाहे जैसा नाच नचावे | मालिक की इच्छा में ही प्रसन्न रहना हमारा परम धर्म है |

सर्वत्र ईश्वर का दर्शन करते हुए यज्ञ, दान, तप, ब्रह्मचर्य आदि उत्तम कर्मों का आचरण करना एवं सब भूतों के हित में रत होकर सबके साथ विनय और प्रेमपूर्वक व्यवहार करना कर्मों के द्वारा प्रभु को पकड़ना है |

याद रखिये, उसकी शरण में चले जानेपर अहित भी ‘हित’ बन जाता है—
गरल सुधा सम अरि हित होई |
शरण में जाकर यदि मर जाए तो वह मरण भी मुक्ति से बढ़कर है | प्रभु कहते हैं—
जे करे आमार आस, तार करि सर्वनास |
तबु जे छाँड़े न आस, तार हई दासेर दास ||
अर्थात् ‘जो मेरी आशा करता है मैं उसका सर्वनाश कर देता हूँ, इसपर भी जो मेरी आशा नहीं छोड़ता उसका मैं दासानुदास बन जाता हूँ |’

उपर्युक्त प्रकार से शरण होनेपर वह प्रभु की कृपा का सच्चा पात्र बन जाता है और प्रभु की कृपा से ही उसे विशुद्ध प्रेम की प्राप्ति हो जाती है तथा उसको परमात्मा का साक्षात् दर्शन होकर परमानन्द एवं परम शांति की प्राप्ति हो जाती है |

हे नाथ ! तुम्हीं सबके स्वामी तुम ही सबके रखवारे हो ।
तुम ही सब जग में व्याप रहे, विभु ! रूप अनेको धारे हो ।।

तुम ही नभ जल थल अग्नि तुम्ही, तुम सूरज चाँद सितारे हो ।
यह सभी चराचर है तुममे, तुम ही सबके ध्रुव-तारे हो ।।

हम महामूढ़  अज्ञानी जन, प्रभु ! भवसागर में पूर रहे ।
नहीं नेक तुम्हारी भक्ति करे, मन मलिन विषय में चूर रहे ।।

सत्संगति में नहि जायँ कभी, खल-संगति में भरपूर रहे ।
सहते दारुण दुःख दिवस रैन, हम सच्चे सुख से दूर रहे ।।

तुम दीनबन्धु जगपावन हो, हम दीन पतित अति भारी है ।
है नहीं जगत में ठौर कही, हम आये शरण तुम्हारी है ।।

हम पड़े तुम्हारे है दरपर, तुम पर तन मन धन वारी है ।
अब कष्ट हरो हरी, हे हमरे हम निंदित निपट दुखारी है ।।

इस टूटी फूटी नैय्या को, भवसागर से खेना होगा ।
फिर निज हाथो से नाथ ! उठाकर, पास बिठा लेना होगा ।।

हा अशरण-शरण-अनाथ-नाथ, अब तो आश्रय देना होगा ।
हमको निज चरणों का निश्चित, नित दास बना लेना होगा ।।

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