भगवत प्रेम

भगवत्प्रेम

भगवत्प्रेम के पथिकों का एकमात्र लक्ष्य होता है-भगवत्प्रेम। वे भगवत्प्रेम को छोड़कर मोक्ष भी नहीं चाहते- यदि प्रेम में बाधा आती दीखे तो भगवान के साक्षात् मिलन की भी अवहेलना कर देते हैं, यद्यपि उनका हृदय मिलन के लिये आतुर रहता है। जगत का कोई भी पार्थिव पदार्थ, कोई भी विचार, कोई भी मनुष्य, कोई भी स्थिति, कोई भी सम्बन्ध, कोई भी अनुभव उनके मार्ग में बाधक नहीं हो सकता। वे सबका अनायास- बिना ही किसी संकोच, कठिनता, कष्ट और प्रयास के त्याग कर सकते हैं। संसार के किसी भी पदार्थ में उनका आकर्षण नहीं रहता। कोई भी स्थिति उनकी चित्त भूमि पर आकर नहीं टिक सकती, उनको और नहीं खींच सकती। शरीर का मोह मिट जाता है। उनका सारा अनुराग, सारा ममत्व, सारी आसक्ति, सारी अनुभूति, सारी विचार धारा, सारी क्रियाएँ एक ही केन्द्र में आकर मिल जाती हैं; वह केन्द्र होता है केवल भगवत्प्रेम - वैसे ही जैसे विभिन्न पथों से आने वाली नाना नदियाँ एक समुद्र में आकर मिलती हैं।

शरीर के सम्बन्ध, शरीर का रक्षण-पोषण भाव, शरीर की आसक्ति,(अपने या पराये) शरीर में आकर्षण, (अपने या पराये) शरीर की चिन्ता-सब वैसे ही मिट जाते हैं जैसे सूर्य के उदय होने पर अन्धकार। ये तो बहुत पहले मिट जाते हैं। विषय- वैराग्य, काम-क्रोधदिका नाश, विषाद-चिन्ता का अभाव, अज्ञानान्धकार का विनाश भगवत्प्रेम-मार्ग के अवश्यम्भावी लक्षण हैं! भगवत्प्रेम का मार्ग सर्वथा पवित्र, मोहशून्य, सत्त्वमय, अव्यभिचारी, त्यागमय और विशुद्ध होता है। भगवत्प्रेम की साधना अत्यन्त बढ़े हुए सत्त्वगुण में ही होती है। उस में दीखने वाले काम क्रोध, विषाद, चिन्ता, मोह आदि तामसिक वृत्त्तियों के परिणाम नहीं होते, वे तो शुद्ध सत्त्व की ऊँची अनुभूतियाँ होती हैं, जिनका स्वरूप बतलाया नहीं जा सकता। भूल से लोग अपने तामस विकारों को उनकी श्रेणी में ले जाकर ‘प्रेम’ नाम को कलंक्ति करते हैं।
वे तो बहुत ही ऊँचे स्वर की साधना के फलस्वरूप होती हैं। उनमें-हमारे अन्दर पैदा होने वाली भोग-वासना की सूक्ष्म और स्थूल तमोगुणी वृत्तियों का कहीं लेश भी नहीं होता। बहुत ऊँची स्थिति में पहुँचे हुऐ महात्मा लोग ही उनका अनुभव कर सकते हैं, वे कथन में आने वाली चीजें नहीं हैं- कहना-सुनना तो दूर रहा, हमारी मोहाच्छन्न् बुद्धि उनकी कल्पना भी नहीं कर सकती। भगवत्कृपा से ही उनका अनुमान होता है तभी उनकी अस्पष्ट-सी झाँकी होती हैं। इस अस्पष्ट झाँकी में ही उनकी इतनी विलक्षणता प्रतीत होती है कि जिससे यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि ये चीजें दूसरी ही जाति की हैं।

नाम एक-से हैं-- वस्तुगत भेद तो इतना है कि उनसे हमारी लौकिक वत्त्तियों का कोई सम्बन्ध ही नहीं जोड़ा जा सकता, तुलना ही नहीं होती। भगवान की कृपा से- इस प्रेम मार्ग में कौन कितना आगे बढ़ा होता है, कौन किस स्तर पर पहुँचा होता है, यह बाहर की स्थिति देखकर कोई नहीं जान सकता; क्योंकि यह वस्तु बाहर आती ही नहीं। यह तो अनुभव रूप होता है। जो बाहर आती है, वह तो प्रायः नकली होती है। जिसे हम अप्रेमी मानते हैं, सम्भव है वह महान प्रेमी हो। जिसे हम दोषी समझतें हैं, सम्भव है वह प्रेममार्ग पर बहुत आगे बढ़ा हुआ महात्मा हो; और जिसे हम प्रेमी समझ बैठते हैं, सम्भव है वह पार्थिव मोह में ही फँसा हों। भगवत्प्रेमियों को कोटिशः नमस्कार है। उनकी गति वे ही जानें। सीधी और सरल बातें जो करने की हैं, वे तो ये सात है-

भोगों मे वैराग्य की भावना।
कुविचार, कुकर्म, कुसगं का त्याग।
विषय-चिन्तन का स्थान भगवच्चिन्तन को देने की चेष्टा।
भगवान का नाम-जप।
भगवद्गुण-गान-श्रवण।
सत्यसंग-स्वाधयाय का प्रयत्न।
भगवात्कृपा में विश्वास बढ़ाना।
जयजय श्यामाश्याम ।।।

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