वृन्दावन सखी 8

वृन्दावन सखी - 8

युगल सखी-8

"देखि मनावत मुरली बजावत इक पग मोहन ठाढे। 
करत मनावन जतन रिझावन त्यौं तुव अनखनि बाढे।१।
अद्भुत सेज रचि हौं इन संग सब सुख तुव रुचि माढे।
आकुल तन ये व्याकुल मन तुव एकै इक बिन साढे।२।
मान लाज शोभा रस रंग लीजै सुरति न आढे।
कृष्ण चन्द्र राधा चरणदासि सुनि भरि भुज भेंटे गाढे।३।"

श्यामसुंदर जु प्यारी जु की देह से आभूषण अलग कर रहे हैं पर ये जैसे उनके लिए एक घड़ी नहीं कई युगों का काम हो।सखी प्रियाप्रियतम मिलन की घड़ियों को कभी थमने ना वाली एक युग जितनी लम्बी रात्रि कर देना चाहती है।उसे युगल के इन्हीं रसरूप क्षणों में जीना हो जैसे आनवरत और सम्पूर्ण जीवन।

श्यामसुंदर जु श्यामा जु के अंगों से एक एक कर आभूषण उतार रहे हैं और प्रिया जु की अद्भुत सौंदर्य से सराबोर अंगकांति का रसपान अपने पिपासु नेत्रों से करते हुए खोए से हैं।उनके हस्तकमलों की सिहरन उनकी पूरी देह को कम्पायमान हो रही है।उनकी चितवन के बाण श्यामा जु के प्रत्येक अंग को बींधते हुए अति अधीर करते जा रहे हैं और वे जैसे मीन जल में समा जाने के लिए तड़प रही हो ऐसे अत्यंत व्याकुल होतीं जा रहीं हैं।सखी ना जाने कब तक इन रस भरपूर क्षणों का चिंतन करती श्यामा श्यामसुंदर जु को डूबते हुए निहार रही है।

अंतिम अलंकार जो श्यामसुंदर जु श्यामा जु के पगकमल से विलग करने जा रहे हैं वो उनकी पायल।श्यामा जु के सुनहरे गोरे चरणारविंद का दर्शन पाते ही श्यामसुंदर जु अपना रसपान करना भूल उनकी सेवातुर होने लगते हैं जैसे कोई पतंगा लो के बुझने से पहले ही उसमें जल मरने को व्याकुल हो।श्यामसुंदर जु यहाँ फिर से श्यामा जु के कोमल अंगों का रसपान करने के लिए स्वयं को अस्मर्थ पाते हुए नेत्रों में अश्रु भर लाते हैं।जिसे देख श्यामा जु श्यामसुंदर जु की तरफ झुकते हुए स्वयं ही अर्धनिमलित प्यासे नेत्रों से निहारती हैं लेकिन श्यामसुंदर जु प्रिया जु के चरणों में लुंठित उन्हें नहीं देख पाते कि तभी सखी फिर उन्हें उठाने के प्रयास से श्यामा जु की नम कजरारी आँखों से बह जाती है और प्रियतम श्यामसुंदर जु के कर कमल को आ छूती है।श्यामा जु की आँख से गिरा ये जल कण श्यामसुंदर जु को अधीर करता है और वे तुरंत श्यामा जु को अंक में भर लेते हैं जिसे देख सखी की आँखों से अश्रुप्रवाह हो उठता है और हृदय उन्मादित।वो श्यामा श्यामसुंदर जु के इन गहन आलिंगन के पलों को भावरूप पुष्प अर्पित करती हृदय में सदा बसाए रखना चाहती है और रोती हुए उन्हें निहारती हुई नेत्र मूँद लेती है।कुछ पलों के लिए जैसे समय को सखी ने इस प्रेमालिंगन में बाँध लिया हो।

प्रेम ऐसा ही एक सृजनात्मक रूप लिए सदा सखी के भावों में सजा रहता है।प्रेम की महक ही इतनी मीठी है तो इसकी विशुद्ध छुअन का गहन एहसास जो इस समय सखी के युगल को हो रहा है उसका भले ही सखी नम धुंधले नेत्रों से दर्शन कर रही हो पर अंतर्निहित कहीं ना कहीं वह अत्यधिक विभोर हुई जाती है जैसे युगल उससे अभिन्न होते हुए उसके भावों के अनुकूल ही प्रेम व्यवहार कर रहे हों और वह स्वयं भी उनके गहनालिंगन का रंचमात्र भी ना चाहते हुए भी एहसास करती है।युगलकृपा से उसे इस दिव्य अनछुए प्रेम का कण कण वायुरूप छू रहा हो और वह युगल के प्रेम को ही अपनी प्रेम सेवा जान पूजती रहती है।

जय जय प्रेममयी सखी
जय जय श्यामाश्याम
जय जय वृंदावन धाम
क्रमशः

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