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वृन्दावन सखी - 7

युगल सखी-7

"ढूँढ फिरै त्रैलोक जो, बसत कहूँ ध्रुव नाहिं।
प्रेम रूप दोऊ एक रस, बसत निकुञ्जन माहिं।
तीन लोक चौदह भुवन, प्रेम कहूँ ध्रुव नाहिं।
जगमग रह्यो जराव सौ, श्री वृन्दावन माहिं।।"

विशुद्ध प्रेम का स्वरूप अत्यधिक सुंदर है।इसमें अपनत्व तो है पर अपना सुख नहीं।श्यामा श्यामसुंदर जु प्रेम क्रीड़ाओं में निमग्न परस्पर एक दूसरे को सुख देने में संलग्न हैं और सखी इन युगलवर को।सखी का भी युगल मिलन में अपना कोई स्वार्थ या सुख नहीं है।सखी को तो युगल को परस्पर सदा मिले हुए प्रेम रस एकरूप अपने प्रियाप्रियतम जु को निहारते रहने में ही सुख है।उसके ये प्राण प्रियाप्रियतम कभी एक दूसरे भिन्न ना हो यही सुख सखी को प्रीतिकर है।

उसके मन मंदिर में श्यामा श्यामसुंदर जु परस्पर मिलते कभी एक दूसरे को स्नेहवश आलिंगन करते हैं तो कभी प्रेम के उच्छलन से अधरामृत पान कराते हैं।

श्यामा जु अपने प्राणप्रियतम को स्वयं से इतना प्रेम करते पातीं हैं तो कभी बीच में ही ये आभास होते ही अति व्याकुल हो उठतीं हैं।ऐसे ही कभी प्रियतम श्यामसुंदर कोमलांगी प्राणप्रियतमा अपनी प्रिया को श्रमित देख अघातग्रस्त होते हैं।दोनों में ऐसे भाव उठते ही परस्पर रसपान कुछ थमने लगता है।वे दोनों एक दूसरे को आलिंगन किए हुए भी विहरित से हो उठते हैं और परस्पर निहारते कुछ कहना चाहते हैं व्याकुलतावश कि सखी को उनके विशुद्ध प्रेम के पलों में यह व्यवधान नहीं सुहाता और तब वह अंतर्मन गहन भाव लिए उनकी वाणी को अवरुद्ध कर उन्हें पुनः मिलाने का प्रयास करती है।

सखी वेगरूप श्यामा जु की केशराशि को लहराती है जिससे श्यामा जु के केशों की पुष्पाविंत महक प्रियतम की नासिका को सक्रिय कर फिर उन्हें करीब ले आती है।श्यामा जु के मुखमंडल पर जैसे ही अल्कावली लहराती हैं तभी प्रियतम श्यामसुंदर कर कमल बढ़ा कर श्यामा जु के कपोलों को छूते हुए उसे हटाने लगते हैं।ये देख सखी श्यामसुंदर जु की घुंगराली लटों को भी सहला देती है और उनके श्याम वर्ण मुखमंडल लहरातीं इन अल्कों को देख श्यामा जु भी प्रियतम की ओर अपना कर बढ़ाती है कि श्यामसुंदर जु श्यामा जु की अल्कों को उन्हीं के कर्णफूल में उलझा देते हैं।तब श्यामा जु श्यामसुंदर जुड़े के कपोल को छूतीं हैं और मंद मुस्कान से उन्हें एक एक कर सब आभूषण उतारने की स्वीकृति दे देतीं हैं।

सखी ने श्यामा जु को पहले ही बहुत कम ही अंलकार पहनाए हैं वो भी केवल वही जिन्हें देख श्यामसुंदर जु श्यामा जु की ओर आकर्षित हों।श्यामा जु ने गुलाबी रंग की पतली साड़ी पहन रही है और उसके साथ हल्की लाल ओढ़नी है।उनके कर कमलों में एक एक कंगन व दो ही अंगुठियाँ हैं।कर्णफूल मांगटिक्का भी बहुत हल्के से पहन रखे हैं और पतली कटि पर करधनी एक पतली रेख सी और चरणों में वैसी ही पायल।अंगुष्ठ व मध्य की पदअंगुलियों में बिछुए धारण किए हैं।ग्रीवा में एक लम्बी गलमाल जो उनके वक्ष् पर लटक रही है और नासिका में अधरों को छूती बेसर।इन अलंकारों पर कोई भारी मणि व हीरे नहीं हैं अपितु छोटे छोटे घुंघरू ही लगे हैं जो श्यामा जु के संवरित होने पर धीमी से मधुर ध्वनि करते हैं और श्यामसुंदर जु को श्यामा जु के भिन्न भिन्न अंगों की तरफ खींचते हैं।

श्यामसुंदर इन मधुर अलंकारों की मधुर ध्वनि को सुन श्यामा जु के हृदय में उठती तरंगों को भांप कर उनकी उन्हीं उन्हीं अंगों की तरफ अपनी मधुर चितवन से देखते हैं और रूपरस माधुरी का पान करते हैं।

एक एक कर श्यामसुंदर जु इन आभूषणों को भी देहस्पर्श करते स्वयं भी सपंदित होते हैं और श्यामा जु भी इनकी हल्की छुअन से सिहर उठतीं हैं।सखी युगल के हर एक एक अंग के स्पर्श से तब्दील होते मुख के हावी भावों को देख आनंदित होती है।श्यामा श्यामसुंदर जु रस को बढ़ाते जाते हैं और सखी भी इन्हें देख देख और अधिक रसविस्तार के लिए ललायित होती हर पल कुछ नया चाहती है।

युगल के रसवर्धन हेतु सखी का आनंद भी इतना ही होता है कि वह यह सब देख कहीं स्ग डूबने ना लगे और श्यामा श्यामसुंदर जु की रस बढ़ोतरी की सेवा उससे छूट जाए।युगल के प्रेम उच्छलन की एक एक प्रतिक्रिया को भीतर उतारती सखी उनके सुख में सुखी होती है और खुद को उन गतिविधियों से अभिन्न पाती सदा सेवारत रसवर्धन के लिए तत्पर भी।
जय जय सखीवृंद
जय जय श्यामाश्याम
जय जय वृंदावन धाम।।
क्रमशः

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