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प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना 2
प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना
इसी कारण साक्षात अपने में अर्थात 'स्व' में प्राणि का सर्वाधिक प्रेम होता है। इसलिये भगवान प्राण के प्राण, जीव के जीवन, आनंद के आनंद प्रत्यक्ष स्वात्मा हैं, अतएव प्रेम या रस स्वरूप ही हैं। पर यह अपनापन संसार में प्राय: दिखायी देने वाले निकटस्थ प्राणि पदार्थ में होना स्वभाविक है, जो जन्म-मरण के बंधन का भी कारण होता है। इसलिये गोस्वामी तुलसीदासजी रामचरितमानस में यह लिखा है-

जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुह्र्द परिवार्॥
सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाधँ बरि डोरी॥[1]

माता-पिता, भाई-बंधु, स्त्री-पुत्र, अपना शरीर, धन, मकान, मित्र और परिवार ये ही सब ममता के आस्पद हैं। अत: भगवान कहते हैं- इन सब की ममता का कच्चा धागा बटोरकर उसकी एक मज़बूत रस्सी बट लो और मेरे चरण कमल में बाधँ दो। यहाँ कच्चा धागा इसलिये कहा गया कि इन प्राणि पदार्थों में जो ममता है, अपनापन है वह स्वार्थपूर्ण है। इसलिये यह कच्चा धागा है, जो कभी भी स्वार्थ की टकराहट से टूट सकता है, परंतु प्रभु में जो प्रेम होता है वह कभी टूटता नहीं। स्त्री-पुत्र, भाइ-बंधु, मित्र आदि में कभी प्रेम और कभी वैर भी हो जाता है। कभी प्रेम की कमी और कभी अधिकता हो जाती है, परंतु भगवान में वह सदा-सर्वदा एकरस निरतिशय रहता है। क्योंकि जैसे सूर्य प्रकाश का उद्गगम-स्थान या प्रकाश स्वरूप ही है, वैसे ही भगवान भी प्रेम के उद्गगम-स्थान या प्रेम स्वरूप ही हैं। इसलिये इन्हें प्रेम (रस)-सागर भी कहा जाता है। यह रस सागर बड़ा अनुपम, अतुल और विलक्षण है । इस में प्रेम, प्रेमी और प्रेमास्पद वस्तुत: एक भगवान ही होते हैं, पर सदा ही तीनों बनकर रसास्वाद कराते रहते हैं ।

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