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प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना 4
प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना

जब तक साधक विषय-भोगों के मोह से मुक्त नहीं होता, तब तक उस में भक्ति भाव उतपन्न नहीं होता। भक्ति का प्रभाव अमित है। यह सब दु:खों को मिटाने वाली, सब प्रकार के कल्याण को देने वाली, मोक्ष की कामना को दूर भगाने वाली, घनीभूत, आनंदरूपा, दुर्लभ एवं परमात्म प्रभु श्रीकृष्ण को आकृष्ट करने वाली‌ है-

क्लेशघ्री शुभदा मोक्षलघुताकृत सुदुर्लभा।
सांद्रानंदविशेषात्मा श्रीकृष्णाकर्षणी च सा ॥[1]

भक्ति मोक्षरूपा भी मानी गयी है। भक्ति का उद्रेक महापुरुषों के उपदेश, उपनिषद , पुराण आदि के श्रवण द्वारा होता है, परंतु प्रेम ईश्वरीय देन अथवा नैसर्गिक रूप में ही स्वयं स्फूर्त होता है। देवर्षि नारद के उपदेश की ने प्रह्लाद, ध्रुव आदि के मन में स्वभावत: ही प्रेम प्रस्फुटिक हुआ। भक्ति दो प्रकार की कही गयी है-(1) वैधी भक्ति, ( 2 ) अनुराग भक्ति। वैधी भक्ति में प्रवृति की प्रेरणा शास्त्र से मिलना है, जिसे विधी कहते हैं। शास्त्रज्ञ, दृढ़ विश्र्वास युक्त, तर्कशील, बुद्धि सम्पन्न तथा निष्ठावान् साधक ही वैधी भक्ति का अधिकारी है। वह शास्त्र विधी के अनुसार अपने आराध्य की सेवा-पूजा और उपासना करता है। दूसरी रागानुगा भक्ति आत्यन्तिक रागके कारण ही उत्पन्न होती है। रागात्मिका भक्ति और कुछ नहीं स्वभाविक आसक्ति का नाम है। अपने आराध्य-इष्ट में जो स्वभाविक असक्ति होती है उसे रागानुरागा कहते हैं। रागात्मक भाव प्रगाढ़ हो जाने पर प्रेम कहलाने लगता है-

अजातपक्षा इव मातरं खगा:
स्तन्यं यथा वत्सातरा: क्षुघार्ता:।
प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा
मनोऽरविंदाक्ष दिदृक्षते त्वाम ॥[2]

जैसे पक्षियों के पंखहीन बच्चे अपनी माँ की बाट जोहते रहते हैं, जैसे भूखे बछड़े अपनी माँ (गाय) का दूध पीने के लिये आतुर रहते हैं और जैसे वियोगिनी पत्नी अपने प्रवासी प्रियतम से मिलने के लिये उत्कण्ठित रहती है- वैसे ही कमलनयन ! मेरा मन आपके दर्शन के लिये छटपटा रहा है।

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