प्रेमसन्यासिनी

प्रेमसंन्यासिनी --
गोपियो की बुद्धि रूपी मटकी में कन्हैया ही समाया है । मटकी उतार कर देखे तो  तो कान्हा का दर्शन । अब कान्हा ही मस्तक पर है । कहाँ बेचूं अपने कान्हा को , कन्हैया को कौन बेचे बिना बेचे लौटू तो घर क्या कहू ? 
बस तृषित तू भी केवल शब्दजाल में न भटक , बुद्धि रूपी मटकी में कन्हैया को समा लें , हर जगह फिर संग लिए घूम ।  जहाँ बुद्धि को खोल देखा कि बस अपने जै जै ।
गोपियों के मन बुद्धि सब एक हो गए है । केवल लाल जु ही समा गए है ।
सीधी सी बात है , दिलो दिमाग में जो होगा वही हर जगह दिखेगा । मस्तक, हृदय, , मन बुद्धि में और पदार्थ क्यों ? कान्हा तुम ही समाये रहो । और कुछ सोचूँ ही क्यों ? तुम्हारा होने पर कुछ और ख्याल भी होवे तो तो कौन है दोषी । मेरी तो हसरत , आरजू , तलब , प्यास , भूख , जीवन-मृत्यु , सुख-दुःख तुम ही हो ना । और न हो अब तक भी तो  इसी पल तुम मेरे हो जाओ ।
योगियों तपस्वियों को प्रयत्न करना होता है । और आपकी व्रज की यें रमणियां तुम्हें भूलने के साधन भी करें तो तुम गहराते जाते हो मोहन । कितना अजीब है किसी को याद नहीं आते किसी के लाख कहने पर यादों से जाते नहीँ ।
कौन गोपी तुम्हारी होने को गेरुए वस्त्र पहन योग-साधन ,यजन आदि कर रही है । कृष्णप्रेम में रँगे मन पर क्या पहना , क्या ना पहना । यही तो गोपी के प्रेमसंन्यास के मर्म की कथाएँ है ।
गोपियों के मन की तन्मयता आप मेरे सांवरे मोहन और यें ही निरोध । रुक गया मन तुम तक आ कर । बालकृष्ण आपकी लीलाओ को देखते देखते गोपियां घरकाज भूल कर पागल हो जाती .... अब क्या कोई पागल होना नहीँ चाहता या तुम करना नही चाहते । सुना है चोर हो , मान लेने का जी करता है कुछ चुरा कर दिखा ही दो अब । वरन् नहीँ हो तुम चोर झूठी अफवाएं होगी , चोर होते तो यें किसका चित् है , जिसे मेरा कहना पड़ता है। चोर , अरे तुम तो अपनी वस्तु भी भूल गए । चुराओगे वही न जो तुम्हारा नहीं , तो अपना ले जाओ । और मेरा चुरा लो । तब कहना भायेगा तुम चोर हो । "मनसोsनवस्थाम" कन्हैया की लीलाओ को देखकर गोपियों का मन अस्थिर होकर लीलाओ में ही तन्मय हो जाता .... संसार व्यवहार छुट जाता ....  ऐसी तन्मयता ।  न करने के काज होने लगते । कोई सुध-बुध नहीं । इन लीलाओं में आप में मोहन पिया कब यें कठोर चित् तन्मय होगा । यें लीला रस की तन्मयता ही तो मुक्ति है न प्यारे जु । जंजालों की मुक्ति , इन दिखते संसारों की मुक्ति ।  बहुत देते हो न बिन मांगे । न मांगने की सौगन्ध रोज तोड़ रोज ही लेनी है । बिना माँगे सब देने वाले स्वामी , मांगु अपनी लीलाओं की तन्मयता से  भर दो । झोली -दामन जितना दिखे उतना भर ही दो । ऐसा करो न , डुबो ही दो । और मुझे तैरना आता भी नहीँ , डूबा कर चल जाओ । जहाँ जाना है । सुना बहुत देते हो , सब देते हो , न मांगने पर ख़ुद आते हो । पर विवश हूँ , तुम शायद शर्मीले हो मुस्कुरा कर छिप जाते हो । और दुःख यहाँ दर्द प्राण नहीं लेता , शायद झूठा क्रंदन हो मेरा । ....झूठा रोना मेरा , है ना । भागवत मृत्यु से पूर्व मुक्त करती है । अर्थात् आपकी लीला , आपकी बातें । पर गोपियों सी तन्मयता भी कहाँ , ऐसा प्रेम कैसे ? घर के काज में कन्हैया को गोपियां नहीँ भूलती । यहाँ तो दो पल की झूठी याद और मन्दिर में भी जंजाल -संसार का ख़याल ।
भक्ति तो कहती है व्यवहार और परमार्थ यानि साधन दो नहीँ एक हो जाएं । अनुराग , अनुग्रह में पुष्ट होना । प्रत्येक कार्य में प्रभु का सन्धान ही पुष्टिभक्ति है । जीवन , कार्य , व्यवहार को प्रभुमय मानना ही भक्ति है । और गोपियां इस भक्तिमार्ग की आद्य आचार्य है । इसी सिद्धान्त को महाप्रभु वल्लभाचार्य जी , और अन्य रसिकाचार्य ने आगे बढ़ाया है । सभी काम काज से निवृति होने पर भजन साधन तो मर्यादा भक्ति है । सुबोधिनी में महाप्रभु ने गोपियों को प्रेमसंन्यासिनी कहा है । गोपियों के पास क्या था ? निश्चल , निष्काम , निर्मल प्रेम , .... बस । और चाहिए भी क्या ? सम्पूर्ण प्रयास  तो निर्मलता , निश्चलता निष्कामता तक जाने को ही है ना ..... । गोपियों का तो प्रेम ही संन्यास है । प्रेम ही जीवन है , प्रेम ही साधन | वस्त्र के संन्यास की अपेक्षा , प्रेम-संन्यास सर्वोत्तम है । परन्तु प्यारे सलोने जै जै , आपके प्रेम में यें हृदय पिघले तब ही ऐसा संन्यास हो पाता है न , तब ही वह उजागर हो पाता है । सभी कर्मों का न्यास-त्याग , संन्यास है । प्राण प्रियतम् जै जै यानी भगवान के लिए जीना ही संन्यास है । गोपियां सव्रे सलोने प्यारे मनमोहन के लिए जीती थी सो  प्रेमसंन्याससिनी कही गई । 'तृषित' प्राणपियारी-प्राणपियारे सरकार की जय जय ।।।

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