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प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना 7
प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना
प्रेम-दीवानी मीराबाई के अग्रलिखित पद में उनकी प्रेम विह्वलता का पूर्ण परिचय प्राप्त होता है-

हे री मैं तो दरद दिवाणी मेरो दरद न जाणै कोय ।।
घायल की गति घायल जाणै जो कोइ घायल होय।
जौहरि की गति जौहरी जाणै की जिन जौहर होय ॥
सूली ऊपर सेज हमारी सोवण किस बिध होय।
गगन मँडलकर सेज पियाकी किस बिध मिलणा होय ॥
दरदकी मारी बन-बन डोलूँ बैद मिल्या नहिं कोय।
मीराकी प्रभु पीर मिटेगी जद बैद साँवलियाँ होय ॥

दयाबाई की दीनता और विरहवेदना बड़ी ही मर्मस्पर्शी है। कितने करूणकण्ठ से वे प्रभु से प्रार्थना करती हैं-

जनम जनम के बीछुरे, हरि ! अब रह्यो न जाये।
क्यों मन कूँ दुख देत हो, बिरह तपाय तपाय ॥
बौरी ह्वै चितवत फिरूँ, हरि आवे केहि ओर।
छिन ऊठूँ छिन गिरि परूँ, राम दुखी मन मोर ॥

वस्तुत: मिलन और वियोग प्रेम के दो समान स्तर हैं। इन दोनों में ही प्रेमीजनों की अनुभूति में समान रति है। आनंद स्वरूप भगवान में जो राग होता है, वह भगवान से मिलने की इच्छा उत्पन्न करता है और उनका वियोग अत्यंत दु:खदायी होता है, परंतु भगवान के लिये होने वाली व्याकुलता अत्यंत दु:खदायनी होने पर भी परम सुखस्वरूपा होती है। भगवान के विरह में अपरिसीम पीड़ा होती है, उसके सम्बंध में कहते हैं कि वह कालकूट विष से भी अति भयावान होती है, पर उस विषम वियोग-विष के साथ एक बड़ी विलक्षण अनुपम वस्तु लगी रहती है-भगवान की मधुरातिमधुर अमृत स्वरूपा चिन्मयी स्मृति।

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