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प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना 8

प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना
भगवान की स्मृति नित्यानंद सुखद स्वरूप भगवान को अंदर हृदय-स्थल में विराजमान करा देती है। वस्तुत: जहाँ-जहाँ भगवान की स्मृति है वहाँ-वहाँ भगवत-रस का समुद्र लहराता है। इसलिये जहाँ भोगों के लिये होने वाली व्याकुलता निरंतर दु:खदायनी होती है वहाँ भगवान के लिये होने वाली आकुलता भगवत्स्मृति के कारण सुखस्वरूपा हो जाती है। इसलिये यदि कोई प्रेमी साधक से पूछे कि तुम संयोग और वियोग दोनों में से कौन-सा लेना चाहते हो, एक ही मिलेगा, संयोग या वियोग। यह बड़ा विलक्षण प्रश्न है। जो प्राण प्रियतम है, प्राणाधार है, जिनका क्षणभर का वियोग भी अत्यन्त असह्य है। यदि हम से पूछा जाय तो दोनों में से कौन-सा चाहते हो तो स्वाभाविक हम यही कहेंगे कि हम मिलन चाहते हैं, वियोग कदापि नहीं। परंतु प्रेमियों की कुछ विलक्षण-अनोखी रीति है। वे कहते हैं कि इसमें एक मिले तो वियोग चाहते हैं, संयोग नहीं। बड़ी विलक्षण बात है यह। वे ऐसा क्यों चाहते हैं, इसलिये कि वियोग में संयोग का अभाव नहीं। यद्यपि वियोग में बाहरी मिलन नहीं है तथापि आभ्यंतर में-अंदर में मधुर मिलन हो रहा है। प्रियतम की मधुर स्मृति निरंतर बनी रहती है। मिलन का अभाव तो है ही नहीं और असली मिलन होता भी है अंतर्वृत्ति का ही।

हमारे सामने कोई वस्तु रहे भी और हमारी आँखे भी खुली हैं, पर मन की अंतर्वृत्ति उस आँख के साथ नहीं है। सामने वाली वस्तु आँखों के सामने रहने पर भी दिखेगी नहीं। इस प्रकार बाह्यवियोग में आभ्यंतरिक मिलन निरंतर रहता है और संयोग का मिलन बाहर का मिलन है। इसमें समय, स्थान, लोकमर्यादा आदि के बंधन हैं। यह बिलकुल स्वभाविक बात है, इसे सब समझ सकते हैं। किसी से मिलने के लिये समय, स्थान निश्चित करना पड़ता है तथा मर्यादा आदि का भी ध्यान रखना पड़ता है, परंतु वियोग के मिलन में जो अंतर्मिलन होता है उस में कोई समय की अपेक्षा नहीं, लगातार दिनभर होता रहे। स्थान की अपेक्षा नहीं-जंगल में, घर में,बाहर-भीतर कहीं भी हो सकता है, फिर व्यवहार की भी कोई अपेक्षा नहीं। इस प्रकार जैसा आनंद अंतरात्मा में आभ्यंतर मिलन में है वैसा बाह्य मिलन में नहीं। संसार की किसी प्रिय वस्तु का वियोग हो जाता है तो वह बार-बार याद आती है, मिलती नहीं इससे उसकी स्मृति भी दु:खदायनी होती है। परंतु प्रियतम भगवान का वियोग इससे विलक्षण है। यह परम सुखमय होता है। इसलिये किसी कवि ने कहा है-

मिलन अंत है मधुर प्रेम का और विरह जीवन है।
विरह प्रेम की जाग्रत गति है और सुषुप्ति मिलन है ॥

ये पंक्तियाँ भगवत्प्रेम में पूर्ण रूप से लागू होती हैं। प्रियतम प्रभु का वियोग या विरह ही प्रेमी की जाग्रद अवस्था है।

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