यहां वहां सब तुम ही तो हो

यहाँ वहाँ तुम ही तो हो । (सर्वत्र व्यापक ब्रह्म)

सर्व रूपेण एक ही ब्रह्म व्याप्त है । कण कण राम है । परन्तु जान कर भी हम मान नहीँ पाते । जो यह मान लेता है वह कौन होगा ?
सर्वत्र वही है , जी वही तो है सदा । द्वितीय कुछ नहीँ । कभी नहीँ । वहीँ सदा । अंदर - बाहर ।
सब जानते है , सर्वत्र वही है । अणु - परमाणु । दृश्य - अदृश्य । सर्वत्र । फिर भी जानकर भी मानते कितने है । कौन मानता है आज दुसरो न कोय । दूसरा कुछ नहीँ ।
पर्दा , हाँ है पर्दा । जानते है सब वही तो है परन्तु मानते नहीँ , यह ना मानना ही पर्दा है । वह है तो उसे जी कौन रहा सर्वत्र । कण-कण में राम जिसने पा लिया हो , क्या वह सामान्य सम्बन्ध रख सकता है , उसका तो एक सम्बन्ध शेष है , उनसे । नित्य सम्बन्ध ।
दूध में घी है परन्तु दूध संग घृत जैसी भावना नहीँ , दूध में जो तत्व घी नहीँ उसके मिलन से जो घी है उसके प्रति भी भावना भिन्न होती ।
सर्वत्र ईश्वर है , परन्तु पर्दे उत्पति में प्रथम बाधा है , "मैं" हूँ ।  वह है तो मैं शेष नही हूँ । अतः वैष्णव मत में और सुंदर भावना से कहा जाता तुम पूर्णतम स्वरूप हो । पूर्ण है ठाकुर , कुछ शेष नहीँ परन्तु इस पूर्णता में भी शेष अद्वैत स्वरूप को शेष भगवान रूप संग माना जाता । फिर कहा जाता अब पूर्ण हो । अर्थात् श्याम पूर्ण है परन्तु इस पूर्ण श्याम में जो शेष भगवत् तत्व अदृश्य है वह दाऊ जी है । श्याम रस पूर्ण है परन्तु पूर्ण रस में जो रस पिपासा है वह श्यामा है । श्याम सौंदर्य सार निधि है परन्तु सौंदर्य की इस पराकाष्ठा की जो रूप दर्शन पिपासा है वह श्यामा है ।
इस तरह अद्वैत द्वेत होता पुनः अद्वैत होने को । रसिकजन राम को नही "सीताराम" युगल को पूर्ण तत्व कहते है । कृष्ण को पूर्ण लेखक कहते , ज्ञानी कहते । परन्तु रसिक "राधाकृष्ण"  युगल तत्व को पूर्णतम कहते है ।
और यही युगल तत्व परस्पर रस रूप लावन्य दर्शन विकसित हो जगत हो जाता , प्रकृति - पुरुष । पुरुष का कोई परिचय नही बिना प्रकृति । ब्रह्म के जिज्ञासु , माया का बोध आवश्यक । माया रूपी वस्त्र के उतरते ही ब्रह्म ही शेष ।
परन्तु जिज्ञासा यह हो कि सर्वत्र वहीँ तो वह अनुभूत क्यों नहीँ । फिर शीघ्रता से कोई कह देगा प्रेम ते प्रगट होइ मैं जाना ।
परन्तु प्रेम से प्रकट वह कैसे ? वह व्यापक रसब्रह्म प्रेम से प्रकट कैसे ?
क्योंकि शेष तत्व प्रेम में बह जाएगा और फिर दर्शन होगा रसब्रह्म का । अर्थात् परमात्मा से शेष कुछ भी बोध होना ही पर्दा है , अपितु कोई पट नहीँ , मेरा होना जब तक है तब तक पट । ईश्वर के वास्तविक प्रेमी को स्वयं की भी स्वतन्त्र भावना नहीँ । वह हुआ तो द्वेत खड़ा होगा । द्वेत में अविद्या का विकास होगा वरन् द्वेत भी रस प्रदायक ही । सेव्य की सेवा होने को द्वेत माना जावें तो , सेवक की आवश्यकता नही , आवश्यकता सेवा की है और सेवक को ही सेवा हो कर सेव्य को आनन्दित करते हुए उनमें विलीन होना है । सेवक जब तक सेवा से पृथक् है तब तक वह स्वयं की अतिरिक्त सत्ता चाहेगा । सेवा की प्रधानता में सेव्य ही शेष होंगे और सेवक सम्पूर्ण रूप से बर्फ की तरह द्रवीभूत हो जाएगा । अभिन्न होने की भावना ही प्रेमी की लालसा का पोषक । लालसा ही यहाँ प्रकाश । अतः ईश्वर की मिलन लालसा भी ईश्वर का ही मधुर रूप है ।  सर्वत्र वही परन्तु , शेष की आवश्यकता से वह "पट" में । पट न हो तो वही है , अतः द्वितीय वस्तु की कल्पना से व्यापक ब्रह्म वह वस्तु रूप हो जाते । जगत की कल्पना से जगत हो जाते । और भावना हो उन्हीं को पाने की तो सब कुछ वही प्रकट हो जाते । उस वस्तु - पदार्थ का असत रूप दर्शन तब नही होता है । हमें असत् रूपी वस्तु-पदार्थ-जगत-शरीर की आवश्यकता अतः वह उसी रूप दर्शित । यह सब दृष्टि का कमाल है और दृष्टि इच्छा शक्ति का । हमारी इच्छा में जगत छिपा । हम कहते भर की वह ही तो है सब कुछ । परन्तु पाया नही कभी । क्योंकि वह ही है यह अनुभूति फिर कथित नही होती , सेवा होती है क्योंकि जिनसे कहा जाएगा वह भी तो वही है । इस विषय पर प्रतियोगिता होती , आश्चर्य । वास्तविक द्रष्टा कभी अपने ही दर्शन की अवहेलना कर सिद्ध होने को प्रमाण न देते हुए उस व्यापक रस ब्रह्म की अनुकम्पा में रहेगा ।
रसिकों के लिये उनके नेत्रों में प्राकृत - अप्राकृत वही है समाये । नैनन बसो नन्दलाल । रसिकों ने ब्रज रज , लता-वृक्ष की अर्चना कर सिद्ध किया व्यापक रस-ब्रह्म की सेवा को ! वरन् ज्ञान मार्ग कहता है वह है परन्तु प्यासा प्रेमी जीता है हाँ वहीँ है । यही उद्धव और गोपी ने दर्शन का भेद है । अगर आप जानते है वह ही सर्वत्र है तो कभी एक दिवस जी लीजिये , हर वस्तु-द्रव्य में उन्हीं को जान । उद्धव के नेत्रों में गोपी के पदरज का काजल ही वह प्रीत जगा सकता है । हम गोपी तो नहीँ हो सकते परन्तु उद्धव हो जाते और उनकी भावना रूप ब्रज की लता पता को छुता रज अणु ही हो जाते तो देख पाते । वहीं तो है सदा , मेरे प्यारे ... .... .... , "तृषित" । जयजय श्यामाश्याम ।

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