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प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना 6
प्रियतम प्रभु की प्रेम-साधना

भगवान हमें जल्दी-से-जल्दी कैसे मिलें-यह भाव जाग्रत रहने पर ही भगवान मिलते हैं। यह लालसा उत्तरोत्तर बढ़ती चले-ऐसी उत्कट इच्छा ही प्रेमास्पद प्रभु के मिलने का कारण है। प्रभु का रहस्य और प्रभाव जानने से ही प्रेम होता है। थोड़ा-सा भी प्रभु का रहस्य जान लेने पर हम एक क्षण भी नहीं रह सकते। इस सम्बंध में विभिन्न प्रेमाचार्यों ने विभिन्न रूप से प्रेमाभक्ति का लक्षण किया है भगवान वेदव्यास भगवान के अर्चन-पूजन आदि में अनुराग अथवा प्रेम को ही वास्तविक प्रेमाभक्ति मानते हैं- 'पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्य:'।[1] इस कथन की पुष्टि 'विष्णुरहस्य' में भी हुई है। श्रीगर्गाचार्य ने भगवत्कथादि में अनुराग को ही भक्ति माना है- 'कथादिष्विति गर्ग:'[2] महर्षि शाण्डिल्य के अनुसार आत्मरति के अविरोधी विषय में अनुराग होना ही भक्ति है। श्रीशकंराचार्यजी ने भी इसी मत की पुष्टि की है- आत्मरूप से प्रत्येक प्राणी में भगवान ही विराजमान हैं। अत: सर्वात्मा में रति होना वस्तुत: भगवान की भक्ति ही है और ऐसी भक्ति करने वाले को मुक्ति प्राप्त होने में संदेह नहीं।[3] देवर्षि नारद के अनुसार अपने सभी कर्मों को भगवदर्पण करना और भगवान का किञ्चित विस्मरण होने पर व्याकुल हो जाना प्रेम अथवा प्रेम भक्ति है-

नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति।[4]
अपने समस्त कर्म (वैदिक और लौकिक) भगवान में अर्पण करके प्रियतम भगवान का अखण्ड स्मरण करना और पलभर के लिये भी यदि उनका विस्मरण हो जाय ( प्रियतम को भूल जाय ) तो परम व्याकुल हो जाना-यही सर्वलक्षण सम्पन्न भक्ति है। मछली का जल में, पपीहे का मेघ में, चकोर का चंद्रमा में जैसा प्रेम है वैसा ही हमारा प्रेम प्रभु में हो। एक पल भी उसके बिना चैन न मिले, शांति न मिले-ऐसा प्रेम प्रेमी संतों को कृपा से ही प्राप्त होता है, पर ऐसे प्रेमी संतों के दर्शन भी प्रभु की पूर्ण कृपा से होते हैं। प्रभु की कृपा सब पर पूर्ण है ही, किंतु पात्र बिना वह कृपा फलवती नहीं होती।

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