रस और रसना

*रस और रसना*

तावत् जितेंद्रियो न स्यात् विजितान्येन्द्रियः ...
सब इंद्रियों पर विजयी हो कर भी रसना नहीँ जीती जा सकती । और रसना जीतने से ही सारी इंद्रिय जीत ली जाती है ।
अपितु इसे भी शास्त्र ने सिद्ध किया की आहार त्याग से रसेंद्रिय को अधिक बलवान होती है ।
रसना को रस चाहिए , भले विषयी जीव पदार्थ रस को ही रस समझता हो परन्तु वास्तव में तो रसना वास्तविक रस चाहती है । प्राप्त आहार में भी जो रस है वह भी सार तत्व है और उस सार में रसब्रह्म (श्रीप्रभु) की विद्यता भी है । वास्तव में रसना , प्राकृत रस से भी  वास्तविक रस को पीकर कुछ विश्राम लेती है परन्तु चाहिए उसे "रस" । अब रस का अर्थ है निर्मलतम मधुरतम सम्पूर्ण सार तत्व , शास्त्र ने सिद्ध किया "रसो वै सः " - वह रस है । अब जो श्री कृष्ण रूपी रस है , भगवत् रूपी रस है उसमें भी सार तत्व उनका नाम है जिसे रसना पीकर वास्तव में अपना रसना नाम सिद्ध कर सकती है ।
अर्थात् जीभ की वास्तविक तृप्ति अप्राकृत रस भगवत नाम में है । रसना प्राकृत अगर स्वयं को माने और भगवत् नाम तो नित्य अप्राकृत रस है अतः प्राकृत रसना का अप्राकृत रस के संग संयोग होने से उसे तृप्ति और व्याकुलता दोनों देता है । अगर रसना भी मानव प्राकृत देह के स्वरूप का त्याग कर अप्राकृत हो अप्राकृत रस को पीये तो सम्भवतः उसे उतना आनन्द नहीँ होगा । अतः प्राकृत मानव देह से रसना व्याकुल होकर भगवतनाम रस पी सकती है जो दिव्य तनु धारी देवताओं को सम्भव नहीँ ।
प्राकृत रसना तृप्त अप्राकृत रस अर्थात् भगवत् नाम से ही हो सकती है परन्तु प्राकृत स्वरूप विस्मृति न होने से वह नाम को पीकर तृप्त नही हो सकती ।
आहार रोकने पर रसेन्द्रीय अधिक बलवान होगी , यह उसकी शक्ति साधक और सिद्ध फिर भगवत् रस में लगा कर करते रहे है ।
सन्तों ने कृपा से सब सहजता की है , भगवत् प्रसाद द्वारा साधक को आहार त्याग की आवश्यकता नही , वह प्रसाद में भगवत् रस पान कर सकता है और आहार त्याग से रसना को और सामर्थ्य बनाने से बच सकता है , रसना का अति सामर्थ्य तो वास्तविक रसिक के लिये सुंदर है । विषयी जीव तो और विषयी होते है जैसे उपवास में हमारी स्थिति होती है कुछ विराम पर रसना अधिक सामर्थ्यवान हो और आहार रस पीने लगती है ।
वास्तविक रस भगवत् नाम है , जिसे पीकर ही रसना सन्तुष्ट हो सकती है । यह बात कलयुग का भोग जगत धीरे धीरे मानेगा क्योंकि अति भोग से इंद्रिय और मन की अतृप्ति बढ़ती है जिससे वह सर्व भोग को निसार जान सार रस से अपार आनन्द पाकर आंतरिक तृप्ति का अनुभव करेगा । अतः कलयुग भगवतनाम में डूबने की समर्थता रखता है अतिभोग विकार को सत्य भोग रस में बदलने की क्षमता से  । "तृषित" जयजय श्यामाश्याम ।

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