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वृन्दावन सखी - 9

युगल सखी-9

"लाड़ लड़ावति सखियन मनभाविनि
निहारत नित नव बिनोद बनावति
सुशील अति लड़ैंती नेत्र भरि सकुचावै
सुंदर श्यामसुंदर टेरि टेरि अकुलावै"

अश्रुपुल्क से सखी के नेत्रों से श्यामाश्याम जु की छवि औझल हो इससे पहले ही वह नेत्रों को झपका कर श्यामा श्यामसुंदर जु को फिर से निहारने लगती है।तभी श्यामा जु भी प्रेम रस भरे नेत्रों से प्रेम बूँद छलका देतीं हैं और उनके पलकों के झपकते ही श्यामसुंदर जु के हृदय से सटी श्यामा जु के काले मोटे मोटे नेत्रबाण श्यामसुंदर जु को चेता देते हैं।श्यामसुंदर जु श्यामा जु की बड़ी बड़ी आँखों पर लगी पतली सी काजल की रेख पर फिर अटक जाते हैं।अनवरत प्रिया जु के नेत्रों को निहारते उनके नेत्रों से अश्रु बह जाते हैं जिसे देख प्रिया जु अधीरतावश उन्हें अपने हृदय से सटा लेतीं हैं।
व्याकुलित हृदय श्यामसुंदर जु को रसपान के लिए आमंत्रण दे रहा हो जैसे वे कई कई युगों के प्यासे हों ऐसे अनवरत रसपान करते रहते हैं।

सखी ये भावउच्छलन देख भावों की तीव्रता से श्यामा जु के वक्ष् में समा जाती है।श्यामसुंदर जु लम्बे अंतराल के बाद श्यामा जु को श्रमित जान जबरन स्वयं को उनके हृदय से अलग करते हैं और नेत्रमूंदित श्यामा जु की व्याकुलता अधीरता को बढ़ते देख उन्हें शांत व विश्रामित करने का प्रयास करते हुए उनकी नेत्रकांति का अधरों से पान करने लगते हैं जिससे श्यामा जु की अधीरता कुछ कम होती है।श्यामसुंदर जु अपनी विशाल भुजाओं का सहारा देते हुए श्यामा जु का मुखकमल को अपने कंधे पर सजा सहलाने लगते हैं।

सखी तब मिलन के क्षणों को तुरंत भावभावित हो हवा देती हुई श्यामा जु की नासिका पर मान बन विराजती है और अधीर श्यामा जु श्यामसुंदर जु को ना रूकने को चेताती है।श्यामसुंदर जु श्यामा जु के तनिक अधीर होने पर उन्हें अपनी गोद में मस्तक रख विश्राम कराना चाहते हैं पर श्यामा जु का रस उच्छल्लन उन्हें एक बार फिर अधर रसपान कराने के लिए मना लेता है।यूँ ही समय के गहरे अंतरालों में श्यामा श्यामसुंदर जु डूबते उतरते रहते हैं।

श्यामसुंदर जु रसगाढ़ता को देख श्यामा जु के अंगों से अंग मिलाते हुए उन्हें अपने अनुरूप कर ही रहे होते हैं तो यहाँ श्यामा जु स्वयं में जैसे श्यामसुंदर जु को उतरते देख श्यामसुंदर ही होने लगतीं हैं और अत्यधिक अधीरता से श्यामसुंदर जु के रोम रोम से भंवर श्यामसुंदर जु की ही भांति रसपान करने लगतीं हैं।इसमें भी श्यामा जु का कोई स्वयंचित्त स्वसुख नहीं है अन्यथा श्यामसुंदर जु की ही अंतर्निहित सुख अनुभूति है जहाँ अत्यधिक भाव उच्छल्लन से श्यामा जु स्वयं श्यामसुंदर रूप होतीं होतीं श्यामसुंदर रूपी दर्पण में अपना मुख देखतीं हैं और रसपान करने में डूब जातीं हैं।

श्यामा श्यामसुंदर जु परस्पर एक दूसरे को सुखरूप ही देखना चाहते हैं और इस तत्सुख भाव को लिए श्यामा जु श्यामसुंदर व श्यामसुंदर जु श्यामा होने लगते हैं।इस अद्भुत सुंदर अनोखी प्रेम मूर्तिमान युगल आभा को देख सखी बलिहार जाती है और एक बार फिर इन गहन मिलन के क्षणों को अंगीकार कर लेती है।उसके हृदय में युगल की यह एक और छवि जीवन परयंत अंकित होने को चित्ररूप समा गई है।

जय जय श्यामाश्याम
जय जय वृंदावन धाम
क्रमशः

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