सौंदर्य लालसा

सौन्दर्य-लालसा

मनकी सौन्दर्य-लालसा को दबाइये मत, उसे खूब बढ़ने दीजिये; परंतु उसे लगाने की चेष्टा कीजिये परम सुन्दरतम पदार्थ में। जो सौंन्दर्य का परम अपरिमित निधि है, जिस सौन्दर्य-समुद्र के एक नन्हें-से कण को पाकर प्रकृति अभिमान के मारे फूल रही है और नित्य नये-नये असंख्य रूप धर-धरकर प्रकट होती और विश्व को विमुग्ध करती रहती है- आकाश का अप्रतिम सौन्दर्य, शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु का सुख-स्पर्श-सौन्दर्य, अग्नि-जल-पृथ्वी का विचित्र सौन्दर्य, अनन्त विचित्र पुष्पों के विविध वर्ण और सौरभ का सौन्दर्य, विभिन्न पक्षियों के रंग-बिरंगे सुखकर स्वरूप और उनकी मधुर काकलीका सौन्दर्य, बालकों की हृदयहारिणी माधुरी, ललनाओं का ललित लावण्य तथा माता-पत्नि-मित्र आदि का मधुर स्नेह-सौन्दर्य- ये सभी एक साथ मिलकर भी जिस सौन्दर्य-सुधासागर के एक क्षुद्र सीकर की भी समता नहीं कर सकते, उस सौन्दर्यराशि को खोजिये। उसी के दर्शन की लालसा जगाइये, सारे अंगों में जगाइये। आपकी बुद्धि, आपका चित्त-मन, आपकी सारी इन्द्रियाँ, आपके शरीर के समस्त अंग-अवयव, आपका रोम-रोम उसके सुषमा-सौन्दर्य के लिये व्याकुल हो उठे। बस, यह कीजिये। फिर देखिये, आपकी सौन्दर्य-लालसा आपको किस चिन्मय दिव्य सौन्दर्य-साम्राज्य ले जाती है।

अहा! यदि आपको एक बार उसकी जरा-सी झाँकी भी हो गयी तो आप निहाल हो जाइयेगा। फिर सौन्दर्य-लालसा मिटानी नहीं होगी। वह अमर हो जायगी और इतनी बढ़ेगी- इतनी बढ़ेगी कि मुक्ति सुख को भी खोकर स्वंय जीती-जागती बनी रहेगी और आप फिर उस सौन्दर्य-समुद्र में नित्य डूबते-उतराते रहेंगे। वह ऐसा सौन्दर्य है कि जिस दिन-रात अनन्त काल तक अविरत देखते रहने पर भी तृप्ति नहीं होती, दर्शन की प्यास कभी मिटती ही नहीं, ‘अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी’ ही बनी रहती हैं। प्यास के बुझने की तो कल्पना ही नहीं, वरं ईंधनयुक्त घृत की आहुति से बढ़ती हुई अग्नि की भाँति उत्तरोत्तर बढ़ती हुई वह अनन्त की ओर अग्रसर होती रहती है। पर यह प्यास-- यह दर्शन की बढ़ी हुई लालसा दर्शन से भी अधिक सुखदायिनी होती है। यह वह सौन्दर्य है, जिसे देखकर मुनियों के मरे हुए मनों में भी जीवन का संचार हो जाता है।

श्रीवृषभानुनन्दिनी श्री श्रीराधिकाजी कहती हैं-
नवाम्बुदलसद्द्युतिर्नवतडिन्मनोज्ञाम्बरः
सुचित्रमुरलीस्फुरच्छरदमन्दचन्द्राननः।
मयूरदलभूषितः सुभगतारहारप्रभः
स मे मदनमोहनः सखि तनोति नेत्रस्पृहाम्।।
सखी! नव जलधर की अपेक्षा जिनकी सुन्दर कान्ति है, नवीन विद्युत-माला से भी अधिक चमकीला जिनका मनोज्ञ पीताम्बर है, जिनका वदनचन्द्र निर्मल शारदीय पूर्ण चन्द्रमा की अपेक्षा भी समुज्ज्वल तथा चित्र-विचित्र सुन्दर मुरली के द्वारा सुशोभित है, जो मयूरपिच्छ से सुभूषित हैं और जिनके गले में निर्मल कान्तियुक्त श्रेष्ठ मोतियों की माला चमक रही है, वे मदनमोहन मेरे नेत्रों की दर्शन-स्पृहा बढ़ा रहे हैं।’
नेत्रों की ही क्यों— प्रत्येक इन्द्रिय की दर्शन-स्पृहा बढ़ रही है। सभी अंग उनके मधुर मिलन की उत्कट आकाक्षा से आतुर हैं। बार-बार मिलने पर भी वियोग की-विरह की ही अनुभूति होती है। वे फिर कहती हैं-

नदज्जलदनिःस्वनः श्रवणकर्षिसत्सिजिंतः
सनर्मरससूचकाक्षरपदार्थभंगयुक्तिकः।
रमादिकवरागनाहृदयहारिवंशीकलः
स मे मदनमोहनः सखि तनोति कर्णस्पृहाम् ।।
‘सखि! जिनकी कण्ठध्वनि मेघ-गर्जन के सदृश सुगम्भीर है, जिनके आभूषणों की मधुर झनकार कानों को आकर्षित करती है, जिनके परिहास-वचनों में विविध भावभगिमाओं का उदय होता रहता है और जिनकी मुरलीध्वनि के द्वारा लक्ष्मी आदि देवियों का हृदय-हरण होता रहता है, वे मदनमोहन मेरे कानों की श्रवणस्पृहा को बढ़ा रहे हैं।’

कुरंगमदजिद्वपुःपरिमलोर्मिकृष्टांबनः
स्वकांगनलिनाष्टके शशियूताब्जगन्धप्रथः।
मदेन्दुवरचन्दनागुरूसुगन्धिचर्चार्चितः
स मे मदनमोहनः सखि तनोति नासास्पृहाम्।।

‘सखि! जिनके मृगमदविजयी श्री अंग की सौरभतरंगों से अंगनाएँ वशीभूत हो जाती हैं, जो अपने देहस्थित अष्टकमल (दो चरणकमल, दो करकमल, दो नेत्रकमल, एक नाभिकमल और एक मुखकमल) के द्वारा कर्पूरयुक्त कमल की सुगन्ध का विस्तार कर रहे हैं और जो कस्तूरी, कर्पूर, उत्कृष्ट चन्दन, अगुरू आदि सुगन्धि-द्रव्यों के द्वारा निर्मित अंगराग से अंग-विलेपन किये हुए हैं, वे मदनमोहन मेरी नासिका की सुगन्ध-स्पृहा को बढ़ा रहे हैं।’

हरिन्मणिकपाटिकाप्रततहारिवक्षःस्थलः
स्मरार्त्ततरूणीमनःकलुषहन्तृदोरर्गलः।
सुधांशुहरिचन्दनोत्पलसिताभ्रशीतांगकः
स मे मदनमोहनः सखि तनोति वक्षःस्पृहाम्।।
‘सखि! जिनका विशाल वक्षःस्थल इन्द्रनीलमणि के कपाट के सदृश मनोहर है, जिनके अर्गलासदृश बाहुयुगल प्रेम-पीड़ित तरूणीसमुदाय के मानस क्लेश को नाश करने में समर्थ हैं और जिनका अंग चन्द्रमा, हरि-चन्दन, कमल, कर्पूर और बादल के सदृश सुशीतल है, वे मदनमोहन मेरे वक्षःस्थल की स्पर्श-स्पृहा को बढ़ा रहे हैं।’

व्रजातुलकुलांगनेतररसालितृष्णाहर-
प्रदीव्यदधरामृतः सुकृतिलभ्यफेलालवः।
सुधाजिदहिवल्लिकासुदलवीटिकाचर्वितः
स मे मदनमोहनः सखि तनोति जिव्हास्पृहाम्।।

‘सखि! जिनकी सुमधुर अधरसुधा उपमारहित व्रजकुलांगनाओं के इतर रस समूह की स्पृहा का अपहरण कर रही है तथा महान् पुण्यराशि होने पर ही प्राप्त की जा सकती है और जिनके द्वारा चर्वित ताम्बूल की बीड़ी अमृत को भी पराजित करती है, वे मदनमोहन मेरी जिव्हा की रस-स्पृहा को बढ़ा रहे हैं। सत्यजीत तृषित ।

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