मनुष्यता

मनुष्यता का सदुपयोग

मनुष्य रूपी जीव जब तक मानवता को प्राप्त नही कर सकता जब तक वह स्व हित से उठ सेवा भाव से पर हेतु हृदय से तत्पर हो ।
मनुष्य नव नव सृजन करता और प्रकृति और ईश्वर उसे रोकते नहीँ क्योंकि उन्हें उसमें सर्व सेवा का दर्शन होता ,
विज्ञान मयी चेतना मनुष्य को मिली विवेक के सदुपयोग हेतु ।
परन्तु युगों की पशुता कुछ क्षण में विस्मृत नहीँ होती ।
मानव समर्थ है अनेकों जीव की सेवा हेतु परन्तु वह स्वार्थ वशीभूत हो सेवा तो दूर जीव और उसके अधिकारों का भक्षण ही करने को आतुर ।
हमारे घरों में जितना खाद्य पदार्थ व्यर्थ होता उतने में असंख्य जीव तृप्त हो सकते है । और पर को तृप्त करने का सामर्थ्य विशेष गुण मानव में है ।
व्यक्ति स्वयं कितना ही महंगा भोजन करें उसे आंतरिक सुख नहीँ मिलता अपितु याचक को सुखी रोटी देते ही एक आंतरिक सन्तोष से हृदय प्रफुल्लित होने लगता , तब भी मानव समझता नहीँ , मनुष्य जीवन का रहस्य ।
सेवा , यह मानव मात्र को प्राप्त है । वह सेवामय हो सकता है , प्रत्येक अणु का सदुपयोग कर सकता है । पदार्थ के गुण का सदुपयोग कर सकता है ।
मनुष्य के स्वार्थ को जानकर ही संसार में अहम के विकास का सूत्र दिया गया होगा । व्यक्ति की अपने पन की भावना का विकास होगा तो वह उस हेतु सजग होगा , परिवार , जाति , गाँव , आदि की मेरेपन की भावना से सहज व्यक्ति सेवा करने लगता । ईश्वर समझ गए , मानव में मेरेपन का विकार गहरा गया है अब जगत के लिये यह मेरापन ही उस मनुष्य की उपयोगिता का हेतु हो । वास्तव में व्यक्ति अब सेवा - धर्म आदि सब मेरेपन के लिये करता है ।  मेरा धर्म , मेरे सेवक , मेरी यूनियन , मेरी पार्टी , मेरे लोग , मेरी गौशाला , आदि ।
एक व्यक्ति से कभी हमने गौ सेवा की बात की वह कहते है मेरी अपनी गौशाला है । अर्थात् बाहर गौ पीड़ित हो तो वह तत्पर नहीँ , उनकी गौशाला दुरुस्त है तो वह तृप्त है । यह भावना गहरा गई है इतनी कि अध्यात्म इस विकार तो पिघाल कर पूर्णतः हटा नहीँ पाता तो मेरे पन को सुंदर तरह से सदुपयोग में लगाना चाहता है । सम्प्रदायवाद इसी विकार को सदुपयोग हेतु एक परिवर्तन रूप में सामने आएं है ।
वास्तविकता यह है कि मानव अणु मात्र को जीव मात्र तक पहुचाने में समर्थ है , अतः उसके अपने स्व हित हेतु जीवन में भी असंख्य जीव तृप्त होते रहते है । मानव को प्रत्येक अणु का सदुपयोग करना चाहिये ।
यह जान कर नहीँ की वस्तु मेरी थी अपितु यह मान कर कि समस्त जगत ईश्वर का है , मैं और मेरे पदार्थ भी उनके ही हेतु है । पदार्थ का सदुपयोग करने पर ईश्वर आपको और सदुपयोग का सामर्थ्य देते है ।
मनुष्य की मानवता का उदय सेवा में है और प्रत्येक मनुष्य भले वह अति निर्धन हो जीव सेवा हेतु समर्थ है । ईश्वर की सृष्टि में पदार्थ का दुरपयोग होता ही नहीँ , वह जानते वस्तु का सदुपयोग । किस रस से किसकी तृप्ति होगी और कैसे वह उस वस्तु तक आएगा सब तय है । मनुष्य का स्वार्थ उसे पशुता से मुक्त नहीँ करता । और परमार्थ में भी आज के हम मनुष्य स्व को ही विकसित करते परन्तु इसमें भी ईश्वर मनुष्य का सदुपयोग कर लेते है ।
स्व के सुख और हित को भूलते ही वास्तविक मानव प्रकट होता होता है जिसके जीवन से वेद तक तृप्त होता है । क्योंकि वास्तविक स्वार्थ शून्य मानव ही वेद का जीवन्त स्वरूप है ।
मोबाइल फोन की छोटी समस्याओं हेतु कम्पनी के सीओ स्वयं आकर उसे दुरस्त नहीँ करते , मनुष्य आज ऐसा ही करता है , पर अधिकार तक का भक्षण कर दुरपयोग से हुई पीड़ा और जगत के बिगड़े प्रारूप को पदार्थ के सदुपयोग की अपेक्षा ईश्वर से शिकायत करता है ।
ईश्वर का विधान कितना दिव्य है दुरपयोग पर भी वह पदार्थ और उसके रस को नहीँ बदलते । जैसे आज वस्तु संग्रह से वस्तु का स्वभाविक परिक्रमण रुक जाता है फिर भी ईश्वर वह वस्तु देते है । जैसे कोल्ड स्टोर भरने के बाद सब्जी बाजार में उतरती है , धनिकों के इस स्वार्थ से ईश्वर को पीड़ा तो होती होगी परन्तु करुणामय भगवान तब भी उस वस्तु का उत्पादन नहीँ रोकते ।
किसी भी वस्तु या जीव के स्वरूप में निहित रस स्वयं वह रसब्रह्म ही है । वनस्पति हो या जीव उर्वरक तत्व श्री हरि स्वयं है ।
कहने का कुल भाव है मेरेपन के विकार के त्याग के संग जीवन और समस्त वस्तुओं का सदुपयोग आवश्यक है । जो भगवान के सिस्टम के लिए उपयोगी है भगवान उसके लिये स्वयं व्याकुलित ।
कई सन्तों में हमने पाया वह वस्तु का त्याग कर ख्याति पाने की अपेक्षा उसके सदुपयोग हेतु अधिक तत्पर होते है ।
यह सरल विकल्प है , मानवता प्राप्ति का । प्रथम मानवता तो प्राप्त हो , फिर मानव को क्या प्राप्त हो सकता यह वह अहम् रूपी पशुता के संग कितना ही कहने समझ नहीँ सकता ।
मनुष्य की स्वार्थ से परे अवस्था को धर्म मानव मानता है , शेष अहम के पोषक हम नराकृति तो है परन्तु हमने भगवान की अमूल्य वस्तु नरदेह का दुरपयोग किया है अतः हमसे अधम और मतिहीन पशु भी कोई नहीँ ।
*नराकृति में पशुता का अंत मेरेपन के त्याग में और मानव का उदय सर्व सेवा भाव प्रकट होता है क्योंकि वास्तविक विवेक के जागृत होकर मनुष्य भगवत् वस्तु रह जाता है और सर्वभूत परमात्मा की सेवा में निहित होता है उसका सूक्ष्म मेरापन स्वभाविक रूप को प्राप्त कर भगवतदास्य को स्वीकार कर लेता है और लौकिक रूप लोक में भी उसकी सदुपयोगता को स्वतः सिंचित करता है*
"तृषित"

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