वृन्दावन वास

वृंदावन वास

रसिक सन्त भावमय होकर द्वारिका रस से ब्रज रस , उसमें भी मथुरा रस से वृन्दावन रस और उससे गहन रस कुञ्ज , कुँज रस से गहन निकुँज रस और निकुँज रस से भी गहन निभृत निकुँज रस में प्रियाप्रियतम रूप का पूर्ण रसमय दर्शन ही पूर्ण माधुर्यरस स्वीकार करते है ।

भेद नहीँ है , वहीँ श्री कृष्ण है । परन्तु जैसे हम कही अन्य के घर , अन्य स्थान जैसे व्यापारिक स्थल , ऑफिस आदि , विद्यालय , कॉलेज आदि सब से गहन रस घर और घर में शयन कक्ष के एकांत में पाते है ।
दम्पति जीवन में जो बात शयन कक्ष में सम्भव है वह घर से बाहर संग होने पर भी नहीँ । अतः ऐसा रस भेद भगवान संग ही नहीँ हमारे संग भी है । स्थान की प्रियता , अनुकूलता माधुर्य को गहन करती है ।

स्वाति नक्षत्र की एक ही बूँद भिन्न स्थानों में भिन्न परिणाम देती है । शुक्तिका में पड़कर मोती , बाँस में वंशलोचन रूप में , गोकर्ण में गोलोचन रूप में , गजकर्ण में गजमुक्ता रूप से वह हो जाती है ।

सूर्य भी काष्ठ , दीवार के भीतर और कूड़े में वैसा प्रभविक प्रकाश नहीँ दे पाते जैसा दर्पण और निर्मल जल आदि पर ।

राजस -तामस की प्रधानता से ब्रह्म तत्व की अभिव्यक्ति वहाँ वैसी ही होती है , भगवान कहाँ नहीँ , तामसिक स्थल में भी तो है ही ,पर वहाँ तामस की प्रधानता से ब्रह्म तत्व का बोध नहीँ , जैसे शराब आदि की दुकान या ऐसे अन्य स्थल जहाँ तामस के प्रभाव से श्रद्धा नहीँ हो पाती ।

सत् गुण भी ऐश्वर्य मय तो है , निर्गुण नहीँ और माधुर्य रस निर्गुण है , सत् रस से भी उठी हुई अवस्था । कारण हीन , निश्चल-निर्मल प्रीति । 

विशुद्ध माधुर्य भाव का प्राकट्य श्री वृन्दावन धाम में ही माना जाता है । अन्य में धीरे धीरे निर्गुण प्रीत , सगुण प्रीत हो जाती है । कामना प्रधान होने लगती है ।

वृन्दावन वास के सन्दर्भ में एक परम् सन्त कहते है , वृंदावन वास दुर्लभ अति दुर्लभ है , क्योंकि यह निर्गुण अवस्था का निष्काम और प्रेमास्पद के सुख मनोरथ की भावना से लीला स्थली है । जीव वृन्दावन को सहज नहीँ छु सकता । सत् रज तम् की खाइयाँ है चारों और , वहाँ गिर जाते है , वृन्दावन अछूता रहता है ।
अतः कुँज , निकुँज रस वार्ता तक ही है , क्योंकि वृन्दावन ही पहुँचने हेतु निर्मल निष्काम् प्रीत चाहिये , निर्गुणातीत प्रेम अवस्था चाहिये , जो कहीँ पाठशालाओं में नहीँ मिलती ।

वृंदावन में जाते बहुत है , साधन है अब , पर रसराज चूड़ामणि के रसमय नित्य राज्य वृन्दावन में नहीँ पहुँचते । इसका कारण यहीँ सत् , रज , तम् वृत्ति । गुणातीत अवस्था सरल होकर भी बन्धन आभास से  सरल नहीँ होती । गुण से मुक्ति हो तब निर्गुण अवस्था हो जो प्रेम मय होगी ।
बृजवास का महत्व है , पर इसका अर्थ यह नहीँ कि आप अमेरिका या बैंगलोर , देहली आदि शहर से होतो अपने संग अपने शहर को बृज लें आओ । अगर अपने भौतिक अत्याधुनिक शहर की सुविधा जुटा कर बृज वास कर लेना ही बृज वास होता तब तो मीरा बाईं साँ , सब राग -संसार को त्याग विरक्त हो क्यों आती ? अगर आज के धनी बहु मंजिला भवन बना सकते है , तो वह तो उस कुल से थी जो आज के आये धनी के पुरे शहर को महल बना दें ।
रूप गोस्वामी पाद आदि अनेक सन्तों ने राजसिक वैभव को त्याग न्यून अति न्यून मधुकरी पा कर बृज वास किया । वह इतने सम्पन्न थे पुरे बृज मण्डल को नित्य राजसिक भोग पवा सकते थे । ऐसे कई उदाहरण है , अतः अगर अपना शहर छुटते न बने तो वहीँ रह कर भजन करिए । वृन्दावन को मल्टीफेसेलिटी शहर बना कर वस्तु और भौतिकता का तो भोग सम्भव होगा । परन्तु निर्गुण प्रेम की अवस्था तो बृज रज में लोटने , जो मिले सो पाकर वास करने , और साधन सम्पन्न नहीँ , अप्रयत्न और भौतिक असाधन से ही अन्तः के साधन का उदय होगा ।
जिन राजसिक लोगो से बृज वास सम्भव नहीँ था , उन्होंने मन्दिर आदि निर्माण में सहयोग किया । वहाँ जाकर भी अपनी थाली सजाने वाले दिव्य प्रेम रस के अवसर को पाकर भी भोग आसक्ति से नेत्र मूंदे हुए है ।
संसार के लिये वृन्दावन वास चाहिये , तो संसार को संग रखिये । अपने प्रियप्रियतम की सेवा हेतु चाहिये तब संसार में कही भी होने पर दिव्य वृन्दावन रस प्रकट हो सकता है ।
अतः विचार करियेगा गहनता से कि वृन्दावन वास क्यों चाहिये ?
उत्तर प्रियप्रियतम की सेवा है , तब अपने लिए महल नहीँ कुटिया ही बनाइएगा ।
सत्यजीत तृषित ।

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