अभिन्नता या भेद

अभिन्नता या भेद

गुण को ग्रहण करते करते वह दोष हो जाता है , 3 कारण ...
गुण का अभिमान होना ,
गुण के विपरीत होना ,
गुण का सीमित होना ।

दोष की उत्पति स्वतः नहीँ , गुण की विकृति से होती है ।
अपनी इच्छा से बुराई कौन चाहता है , दोष कौन चाहता है , चाहते तो गुण ही है पर गुण स्वभाविक ही है , उनके प्रति अस्वभाविक होने से दोष होते है ,
जैसे मान लीजिये मैं मृदु भाषी का गुण चाहूँ । पहले तो मैंने स्वयं को कटु मान लिया , अपनी कटुता से अपरिचित मृदुलता को अपनाने में मैं स्वभाविक मृदु भाषी नहीँ , अभिनय ही करूँगा , स्वाँग , जो कि आगे चलकर दोष होगा ।
मुझे करना यह है कि कटुता को अपना नहीँ मानना , मृदलता संग ही जब इस धरा पर जीव आया तो यह उसमें पूर्व में ही है बस ऊपरी कटुता हटानी है । वह हटी तो स्वभाविक मृदुलता होगी ।
गुण से आसक्ति हम करते है , अपनी निज वस्तु से आसक्ति नहीँ होती क्या हम अपने किसी अंग से आसक्त है ? नहीँ न । आसक्त पर (दूसरे) से होती है । गुण को पराया मान गुण से आसक्त होने पर जीवन और गुण में अभिन्नता प्रगट नहीँ होती है ।
विचार कीजिये हम में रसास्वादन का गुण स्वभाविक था , हम माँ के स्तन को नुकसान नहीँ पहुचाये और अपनी क्षुधा पूर्ति किये । उतने समय हम और माँ में गहन वात्सल्य सम्बन्ध ही बहा । वह क्षण तब अबोध शिशु होने से हमें याद नहीँ परन्तु माँ के लिये वह सुन्दरतम् स्मृति ही है । अतः हम में स्पर्श से सुख देने की कला तक पूर्व से ही है । अब हमारा स्पर्श स्वसुख हेतु होने से वह सन्मुख माँ या अन्य को उतना रसमय नहीँ करता ।
अतः सभी गुण स्वभाविक है ।

बात करनी थी अनन्यता की , वर्तमान में कई प्रेमी पथिक और साधक अनन्यता का प्रयास करते है । जो कि सहज गुण नहीँ जान पाने और गुण के अभिमान आदि से वह " भेद " रूपी विषैले दोष को जन्म देता है ।
अनन्यता क्या है यह तब ही पता चले जब वह साधक विपरीत स्थिति में भी अनन्य रह सकें ।
अन्य नहीँ यही अनन्यता है । मेरे लिए , या मेरा दुसरा नहीँ ।
एक पत्नी का एक ही पति है , अन्य असंख्य जीव होने पर भी वह अपना उसे ही जानती-मानती है ।
राम भक्त अगर श्री किशोरी जु राधा भक्त से दूर रहे , या किशोरी भक्त अन्य वैष्णव भक्त से भी दूर यह कह कर रहे अनन्यता बाधित होगी अर्थात् अनन्यता ने अंगीकार नहीँ किया , वह छुट जावेगी यह भय है , अपने आराध्य संग एक बार पाणिग्रहण हो जावें तब अन्य किसी पुरुष से बात भर करने पर विवाह नहीँ टूटता ।
अपितु अनन्य अपने आधार को भीतर रख जग में होती चर्चा में अपने ही आधार स्वरूप को ध्याते है । जैसे शंकराचार्य गोविन्द को भी माँ कहते थे । वह माँ के आश्रय में गोविन्द दर्शन का त्याग नहीँ अपितु सहजता से वहाँ माँ को ही पाते । यह प्रयास भी नहीँ किया जाता प्रेम में कि गोविन्द की जगह माँ स्वरूप दिखे ।
अन्य नहीँ केवल वहीँ यह धारणा जब मन मान ही लें तब किसी भी अन्य वस्तु का भान सम्भव ही कैसे हो ।
अरे मेरे सन्मुख उन देवता की चर्चा मत करो , अर्थात् यहाँ वह देव और आपके इष्ट दो अलग है , अन्य कोई है यह आपने मान लिया , जबकि अन्य कोई नहीँ दिखे यह अनन्यता है ।
जैसे विद्यालय समय में बच्चे को अन्य बालक की माँ में अपनी ही माँ की प्रतिती होती है । वह वहाँ अपने मित्र की माँ की भावना से नहीँ अपनी माँ को ही देखता है । अतः अन्य से सहज हो सकता है । यह सच्चा प्रेम है ।दुसरा सामने हो फिर भी अपना ही दिखे ।
भगवान से या आराध्य से अपनत्व नहीँ , अपनत्व के अभिनय के कारण अनन्यता को अति सावधानी से निभाने से , दोष की सृष्टि अधिक होती है , एक तो भेद होता है ।
और जब तक रति भर भी कैसा भी भेद भीतर ईश्वर से अभिन्नता नहीँ हो सकती ।
दूसरा द्वेष होता है , ऐसी स्थिति में अपने आराध्य से मिलने वाला रस कम और पर की सावधानी से रसमय संग की अवहेलना और निंदा आदि अधिक होती है ।
एक टीचर कई बच्चों में रह कर अपने को नहीँ भूलती , बल्कि कभी किसी बच्चे से लाड होने अपना ही लगता है ।
जीवन और ईश्वर से अभिन्नता हो तब हर रूप रंग में वहीँ दिखे ।
ईश्वर स्वतन्त्र है न , प्रेमी रूप में उन्हें पाता है । यह नहीँ कहता अरे यह साडी पहनने वाली मेरी आराध्या नहीँ , जीवत्व (पशुत्व) का नाश न हो तो जीव ईश्वर पर भी बन्धन डाल देता है । सर्व रूप नहीँ स्वीकार कर पाता ।
गुण का अभिमान , गुण की न्यूनता , गुण से अभिन्नता का अभाव , गुण की सीमा यह ही दोष को जन्म देते है ।
इस लेख का भाव यह है , आप अनन्य है तो दूसरे किसी के भाव को ठेस न पहुचाएं ।
तुलसीदास जी यहाँ ग़जब के उदाहरण है , वह अन्य देवताओ से अपनी सियाराम प्रियता चाहते है ,और अपने आराध्य का कुशल क्षेम । ऐसा नहीँ की राम भक्त हो वह किसी देवता को नमन न करें , वह करते है और अपने लिये राम प्रेम रस भक्ति और राम जी के कुशल की मानसी भावना से ,

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