चतुर्थ अध्याय 1

नवद्वीपधाम माहात्म्य

चतुर्थ अध्याय 1

  श्रीनवद्वीप के चन्द्रस्वरूप श्रीशचीनन्दन की जय हो ! जय हो ! अवधूत नित्यानन्द प्रभु की जय हो ! जय हो !  श्रीअद्वैत आचार्य की जय हो ! जय हो ! श्रीगदाधर और श्रीवास पंडित की जय हो ! जय हो ! अन्य सभी तीर्थों के सारस्वरूप श्रीनवद्वीप धाम की जय हो ! जय हो ! जिस धाम में श्रीगौरसुन्दर अवतरित हुए हैं।श्रील महाशय कहते हैं कि शास्त्रों की आलोचना करके उस श्रीनवद्वीप धाम की परिक्रमा के विवरण का गान कर रहा हूँ।शास्त्रों की वाणी, वैष्णव वचन तथा महाप्रभु की आज्ञा यही मेरे प्राणधन हैं।अब आप नवद्वीप धाम की परिक्रमा श्रवण करें।

   जिस समय श्रीजीव गोस्वामी ने ग्रह त्याग किया उस समय नदिया नदिया पुकारते हुए उनका हृदय व्याकुल हो उठा। अपना निवास छोड़ वह श्रीनवद्वीप धाम की ओर अग्रसर हुए तो उनके दोनों नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होती रही।उच्च स्वर से क्रंदन कर रहे थे हा निताई ! हा प्राणधन गौरचन्द्र ! मुझे कब आपके दर्शन प्राप्त होंगे।हा ! हा ! अन्यान्य सभी धामों के सारस्वरूप श्रीनवद्वीप धाम मुझे कब आपके दर्शन होंगे।श्रीजीव गोस्वामी कैशोर वयस तथा सुंदर सुगठित शरीर और वैराग्य की पराकाष्ठा से युक्त अपूर्व सुंदर रूप वाले थे। कुछ दिन चलते चलते वह श्रीनवद्वीप धाम पहुंचे तो उनका हृदय प्रेम से गदगद हो रहा था।दूर से ही श्रीनवद्वीप के दर्शन करते हुए मूर्छित हो गए। कुछ देर पश्चात चित्त स्थिर होने पर उन्होंने पुलकित शरीर से श्रीधाम में प्रवेश किया।

      बारकोना के घाट पर पहुंच सभी से श्रीनित्यानन्द प्रभु का पता पूछने लगे।हा निताई ! हा निताई ! मुझे श्रीनित्यानन्द प्रभु के दर्शन करवाओ। उनकी इस दशा को देख कोई सज्जन उन्हें श्रीनित्यानन्द प्रभु जहां रहते थे वहां पास ले गए। उधर श्रीनित्यानन्द प्रभु अपने हृदय से यह जानकर की श्रीजीव मेरे पास आ रहा है अट्ट अट्ट हास्य कर रहे थे। उनके सेवक श्रीजीव को ढूंढने लगे। श्रीजीव के शरीर मे सात्विक विकार उदय हो रहे थे तभी सेवक जान गए कि यही श्रीजीव गोस्वामी है। किसी ने आगे बढ़कर उन्हें नित्यानन्द प्रभु का नाम सुनाया तो नाम सुनकर वह पुनः मूर्छित हो गए।थोड़ी देर बाद स्थिर अवस्था प्राप्त होने पर स्वयम को सौभाग्यशाली मानने लगे कि मुझे नित्यानन्द प्रभु ने स्मरण किया है। श्रीजीव ने पुलकित हृदय से उन सब वैष्णवों को दण्डवत प्रणाम करते हुए कहा यदि आप जैसे वैष्णव मुझ अधम पर कृपा करें तो मुझे श्रीनिताई के दर्शन हों। फिर उन सब वैष्णवों की चरणधूलि उठा उठा अपने समस्त अंगों पर मलने लगे। सभी मिलकर उनको श्रीनित्यानन्द प्रभु के पास ले गए जहां वह भाव अवस्था तथा अर्धबाह्री दशा में श्रीकृष्ण का गुणगान कर रहे थे।

   श्रीनित्यानन्द प्रभु का अपूर्व रूप देख उनमें दिव्य भाव उदित होने लगे। अहा ! आज ही ऐसे रूप के दर्शन प्राप्त हुए कहते कहते अचेतन होकर पुनः गिर पड़े। अत्यधिक कृपावश श्रीनित्यानन्द प्रभु ने उन्हें निजजन स्वीकार किया। श्रीजीव दोनो हाथ जोड़ खड़े हो गए और विनय करने लगे हे प्रभो ! आप विश्वरूप, विश्वधाम और साक्षात बलरामा हो।मैं आपके गुणों के विषय मे क्या जानता हूँ। आप मेरे नित्यप्रभु हो और मैं आपका नित्यदास। आपके श्रीचरनकमलों का आश्रय ही मेरी एकमात्र अभिलाषा है। जिस पर आप कृपा करते हैं वह अनायास ही श्रीगौरांग महाप्रभु के प्रेमरूपी अमृत सागर में गोते लगाने लगता है। आपकी कृपा के बिना सैंकड़ों जन्म भी भजन करने पर कोई गौरसुन्दर की प्राप्ति नहीं कर सकता। यदि श्रीगौरसुन्दर किसी को दण्ड दें तो आप उसकी रक्षा करते हो परन्तु जिसको आप दण्ड देना नियत करें उसकी रक्षा स्वयम गौरसुन्दर भी नहीं करते। अतएव हे प्रभो ! मैंने आपके चरणों की शरण ग्रहण की है। आप मुझपर कृपा करें कि श्रीगौर का दर्शन कर सकूं तथा उनकी प्रीति प्राप्त कर सकूं।

   जब रामकेलि में मेरे दोनो चाचाओं को श्रीमन महाप्रभु जी ने अपने आश्रय में लिया था तब मैंने अपनी शिशु अवस्था मे उनके जिस रूप का दर्शन किया था , वही रूप मेरे हृदय में सदैव स्फुरित होता रहता है। तब मैंने श्रीगौरसुन्दर को प्रणाम किया था तथा उनके श्रीअंगों का स्पर्श प्राप्त किया था। उस समय श्रीमहाप्रभुजी ने कहा था तुम अभी शास्त्रों का अध्ययन करो। इसके पश्चात श्रीनित्यानन्द प्रभु के पास नवद्वीप चले जाना उन्हीं के चरण कमलों से तुम्हें सब कुछ प्राप्त होगा। मुझ अकिंचन ने उनकी आज्ञा को शिरोधार्य करके विद्या ग्रहण कर ली है । चन्दरद्वीप में मैंने साहित्य तो पढ़ा है परंतु मेरी पसंद का कोई वेदांत आचार्य नहीं मिला। श्रीमन महाप्रभु ने मुझे आपसे वेदांत पढ़ने की आज्ञा दी और वेद सम्मत कृष्ण भक्ति को प्रकाशित करने को कहा। अब मैं आपकी शरण मे हूँ आप जो कहोगे मेरे लिए वही शिरोधार्य होगा।क्रमशः

जय निताई जय गौर

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