त्रयोदश अध्याय 2

श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य

त्रयोदश अध्याय 2

श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा सार्वभौम ही ब्रहस्पति हैं। श्रीगौरसुन्दर को प्रसन्न करने के लिए इन्होंने ही सर्वाधिक प्रयास किया। श्रीब्रह्स्पति जानते थे कि मेरे प्रभु भूतल पर नवद्वीप में विद्यालीला करेंगे। मैं स्वर्ग में ऐसे ही पड़ा रहूंगा यह सोच वह उदास हो गए। उन्होंने इंद्र की सभा का परित्याग कर अपने परिकरों के साथ आनन्दित होकर विद्यानगर के आस पास जन्म लिया। इसी विद्यानगर में सार्वभौम विद्यालय बनाकर विद्या का प्रचार करने लगे। कुछ समय बाद इनके मन मे विचार आया कि मैं यहां विद्या के जाल में पड़कर गौरहरि को न खो दूँ इसलिए उन्होंने एक लीला की। श्रीगौरांग के जन्म से पूर्व ही अपने शिष्यों को नदिया छोड़ दूसरे स्थान पर चले गए। मन ही मन सोचने लगे कि यदि मैं गौरहरि का दास हु तो वह स्वयम मुझपर कृपा करेंगे। वह अवश्य ही मुझे अपना सँग प्रदान करेंगे।ऐसा सोचकर सार्वभौम नीलांचल चले गए तथा वहीं रहकर उन्होंने मायावाद शास्त्र के प्रभाव का विस्तार किया।

   यहां श्रीगौरसुन्दर ने विद्याविलास के छल से सार्वभौम के शिष्यों को अनायास ही परास्त किया। कभी कभी विद्यानगर में  आकर श्रीगौरहरि न्याय के तर्कों द्वारा उन सबको हरा देते थे। अध्यापक तथा विद्यार्थी उनसे पराजित हो भाग जाते थे। श्रीगौरांग प्रभु की इस विद्यालीला को जो कोई सुनता है अविद्या उसे छोड़कर भाग जाती है।श्रीजीव महाप्रभु के विद्याविलास की कथा सुनकर प्रेमानन्द में भरकर उस वेद नगर में स्थित व्यासपीठ के दर्शन कर उन्मत्त हो गए। श्रीजीव ने श्रीनित्यानन्द प्रभु के चरण कमलों का आश्रय लेकर कहा प्रभु मेरे एक संशय का छेदन करें। सांख्य विद्या तथा तर्कविद्या तो अमंगल स्वरूप हैं फिर नित्य धाम में वह किस प्रकार वास करती हैं। ऐसा सुन श्रीनित्यानन्द प्रभु ने प्रिय जीव को अपने आलिंगन में लिया तथा कहने लगे हरिबोल हरिबोल। पुनः उन्होंने कहा जीव इस नित्यधाम मे अमंगल हो ही नहीं सकता। यहां पर तर्क तथा सांख्य अपने मे बलवान नहीं हैं अपितु भक्ति महारानी के अधीन हैं। भक्ति की ही दासता करते हैं। केवल कर्म दोष के कारण ही दुष्ट लोग इनका विपर्यय करते है। यहां पर भक्ति महादेवी है तथा तर्क , योग , सांख्य सब इनके दास हैं। यह सब भक्ति को ही प्रकाशित करते हैं। नवद्वीप में नवधाभक्ति का अधिष्ठान है । यहां पर कर्म और ज्ञान भक्ति की सेवा करते हैं।

   शास्त्र भगवान से विमुख व्यक्ति को दुर्बुद्धि प्रदान करते हैं तथा सज्जन व्यक्ति को कृष्ण रति रूप सुबुद्धि प्रदान करते हैं। श्रीगौरहरि कि दासी प्रौढ़माया यहां की अधिष्ठात्री देवी हैं। वे सभी युगों में यहां रहकर श्रीगौरसुन्दर की सेवा करती हैं। महामाया के रूप में यही कुकर्म करने वाले वैष्णव विद्वेषियों को माया अंधा करके अनेक प्रकार के कष्ट देती है। किंतु यदि कोई वैष्णव के प्रति अपराध करता है तो क्रमदोष के कारण अपने से दूर रखती है।ऐसे दुर्जन व्यक्ति नवद्वीप धाम में कभी विद्या भी उपार्जन करें तो श्रीकृष्ण के पादपद्मरूपी चरणों से प्रेम नहीं कर पाते। ऐसे व्यक्ति विद्या के स्थान पर अविद्या को पाते हैं तथा गौरहरि के वैभव को नहीं देख सकते। अतैव विद्या अभी अमंगल मय नहीं होती बल्कि विद्या की छाया अविद्या ही अमंगल होती है। हे जीव गौरंगसुन्दर की कृपा से यह सभी तथ्य तुम्हारे हृदय में प्रकाशित हो जाएंगे तथा शास्त्रों में तुम इनका वर्णन महाप्रभु जी की इच्छा अनुसार करोगे। अब हम लोग जहनुद्वीप मुनि के निवास पर चलें। इस प्रकार कथोपकथन करते हुए सभी जाननगर पहुंचे। तथा मुनि के तपोवन की शोभा को निहारने लगे। यह ब्रज का प्रसिद्ध भद्रवन है। इस स्थान पर जह्नु मुनि ने गौरहरि का दर्शन प्राप्त किया था। एक समय वह यहां पर संध्या करने के लिए बैठे थे कि उनका आचमन पत्र जान्हवी के प्रवाह में बह गया। इसे देख उन्होंने एक ही घूंट में उस नदी का सारा जल पान कर लिया। गंगा जी की धारा को आते न देख भगीरथ जी सोच में पड़ गए कि गंगा कहाँ रह गयी। जब उन्हें पता चला कि मुनि ने ही सारा जल पान कर लिया है तब वह बहुत दुखी हुए। धैर्य धारण करते हुए उन्होंने बहुत दिन तक मुनि की पूजा की। तब मुनि ने उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर अपनी देह के एक भाग को चीर दिया तथा गंगा को बाहर निकाला।तभी से जह्नु मुनि के नाम से ही सभी गंगा को जान्हवी कहकर पुकारने लगे।इस घटना के बाद भीष्म पितामह ने अपने मातामह श्रीजाह्वा मुनि के दर्शन किये।उन्होंने भीष्म से बहुत स्नेह किया तथा कई दिन तक उसे अपनी कुटिया में रखा। तब उन्हें परमधर्म की शिक्षा दी। उसी शिक्षा को उन्होंने धर्मराज युधिष्ठिर को सार रूप में दिया।

    श्रीनवद्वीप में आकर भीष्म ने भक्तिरूपी धन को प्राप्त किया तथा वैष्णव कहलाये जाने लगे। अतएव यह जह्नु द्वीप या जान्हवा द्वीप बहुत पवित्र है । यहां सौभाग्यशाली व्यक्ति ही वास करते हैं। उस दिन वहां नित्यानंन्द प्रभु एक भक्त के घर रुके तथा अगले दिन सुबह सभी भक्तों को सँग लेकर मोदद्रुम की ओर प्रस्थान किया।

  श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजाह्वा देवी के पदकमल ही जिनका आश्रय हैं , उन्हीं भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा श्रीनवद्वीप धाम का महात्म्य वर्णित हो रहा है।

त्रयोदश अध्याय समाप्त

जय निताई जय गौर

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