षोडश अध्याय 2

श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य

षोडश अध्याय 2

  उन्होंने साष्टांग प्रणाम करके दीनतापूर्वक कहा कि हे नाथ इस अधम का उद्धार कीजिये। उन्होंने इनको युगल श्रीराधाकृष्ण का मंत्र प्रदान किया तथा भाव मार्ग से श्रीराधाकृष्ण की आराधना करने की शिक्षा प्रदान की। मन्त्र प्राप्त करके श्रीनिमबादित्य आचार्य ने इसी सिद्धपीठ में बैठकर सनत्कुमार संहिता के मतानुसार युगल किशोर की आराधना आरम्भ की। श्रीराधाकृष्ण ने कृपा करके उन्हें अपना दर्शन दिया । उनके रूप की छटा से चारों दिशाओं में प्रकाश छा गया

   मन्द मन्द मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा हे निम्बादित्य तुम धन्य हो। तुमने इस नवद्वीप में बैठकर हमारी आराधना की है। यह धाम हमें बहुत प्रिय है। यहां हम दोनों मिलकर सचिनन्दन के रूप में वास करते है। इतना कहते कहते उन्होंने अपने गौर रूप को प्रकाशित किया। उस रूप को देख निम्बादित्य परम् विह्वल हो गए। श्रीनिम्बादित्य ने कहा मैंने न तो कभी ऐसे अपूर्व रूप का दर्शन किया है तथा न ही अपने कानों से इस विषय मे श्रवण किया है। तुम अभी इस रूप का किसी को बताना मत , इसे गुप्त रखना। अभी तुम युगल विलास रूपी कृष्ण भक्ति का प्रचार करो। युगल विलास में मुझे अत्यंत उल्लास की प्राप्ति होती है। जिस समय मेरा गौर रूप प्रकाशित होगा उस समय मैं विद्याविलास रूपी अनेक लीलाएं करूंगा। उस समय तुम कश्मीर प्रदेश में जन्म ग्रहण करोगे तथा केशव कश्मीरी के नाम से दिग्विजयी पंडित बनोगे। तुम महा विद्वान के रूप में ख्याति प्राप्त कर पूरे भारतवर्ष के भृमण करोगे। श्रीनवद्वीपधाम के सब अध्यापक तुम्हारा नाम सुनते ही पलायन कर जाएंगे। उस समय मे विद्याविलास रस में मत्त रहूंगा , इसलिए तुम्हें पराजित करके सभी बालकों के साथ बहुत आनन्दित होऊँगा। देवी सरस्वती की कृपा से तुम मेरे तत्व ज्ञान को जान सकोगे। बाद में तुम अपना अभिमान त्याग मेरा आश्रय ग्रहण करोगे।अभी तुम मेरे इस रूप को गुप्त रख निम्बार्क मत का प्रचार करो तथा मुझे संतुष्ट करो। जब मैं प्रकट होकर संकीर्तन आरम्भ करूंगा उस समय मैं भी तुम्हारे द्वेताद्वेत मत का प्रचार करूंगा।

  हे महाजन ! मैं मध्व सम्प्रदाय से केवलाद्वैत का खंडन और श्रीकृष्ण विग्रह को नित्य मानकर उनकी सेवा नामक दो सार वस्तुएं ग्रहण करूंगा। श्रीरामानुज सम्प्रदाय से अन्नयभक्ति तथा भक्तो की सेवा नामक दो सार वस्तुएं ग्रहण करूंगा। श्रीविष्णुस्वामी से त्वदीय सर्वस्व भाव ग्रहण करूंगा तथा रागमार्ग ग्रहण करूंगा। तुम्हारे सम्प्रदाय से एकांत राधिकाश्रय तथा गोपिभाव नामक दो महासार वस्तुएं ग्रहण करूंगा।इतना कहकर गौरचन्द्र अंतर्ध्यान हो गए तथा निम्बकाचार्य क्रंदन करने लगे। श्रीनिम्बकाचार्य ने सर्वप्रथम अपने गुरु को प्रणाम किया तथा कृष्ण भक्ति के प्रचार के लिए अन्यत्र चले गए।

    श्रीनित्यानन्द प्रभु ने श्रीजीव को दूर से ही उस स्थान के दर्शन करवाये जहां पर श्रीबलदेव प्रभु ने कोल का वध करने के उपरांत सभी यादवों सहित गंगास्नान किया था। आजकल यह स्थान रुक्मपुर के नाम से प्रसिद्ध है।यह स्थान श्रीनवद्वीप की एक सीमा पर है। कार्तिक मास में इस स्थान पर वास करने की विशेष महिमा है। बिल्वपक्ष से श्रीनित्यानन्द प्रभु सभी भक्तों के साथ भारद्वाज टीला उपस्थित हुए। एक बार श्रीगंगासागर तीर्थ में स्नान कर लेने के बाद श्रीभरद्वाज मुनि इस स्थान पर आए थे। श्रीभरद्वाज मुनि ने गौरचन्द्र की आराधना करते हुए यहां पर अनेक दिन वास किया। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर श्रीविशम्भर ने कृपापूर्वक उन्हें अपने रूप का दर्शन करवाया तथा कहा तुम्हारी जो इच्छा है वह अवश्य पूरी होगी।मेरी प्रकट लीला के समय तुम अवश्य मेरे दर्शन प्राप्त करोगे। इतना कहकर गौरसुन्दर अंतर्ध्यान हो गए तथा भरद्वाज मुनि अत्यधिक प्रेम के स्फुरण से मूर्छित हो गए। अनेक दिन इस टीले पर वास करने उपरांत मुनि दूसरे तीर्थो के दर्शन करने चले गए। अब लोग इस स्थान को भारुई गंगा कहते हैं। शास्त्रों के अनुसार यह एक महान तीर्थ है। ऐसा कहते हुए ईशान ठाकुर के पीछे चलते चलते सभी मायापुर पहुंच गए।प्रेम से विह्वल होकर श्रीनित्यानन्द प्रभु नृत्य कर रहे थे तो सब वैष्णव कीर्तन करने लगे।श्रीजगन्नाथ मिश्र का घर अन्यान्य सभी पीठों का सारस्वरूप है क्योंकि यहां श्रीनाम प्रभु के साथ श्रीगौरांग प्रभु आविर्भूत हुए हैं। शचिमता ने अपने हाथों से सभी वैष्णवों को प्रसाद खिलाया। वहां जो आनन्द प्रकट हुआ उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सब लोग महासंकीर्तन कर रहे थे।

  श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजाह्वा देवी के सुशीतल छाया को प्राप्त करने की आशा से श्रील भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा नदिया की लीलाओं का गान किया जा रहा है।

षोडश अध्याय समाप्त

जय निताई जय गौर

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