षष्ठ अध्याय 1

नवद्वीपधाम माहात्म्य

षष्ठ अध्याय 1

  श्रीनवद्वीप के चन्द्रस्वरूप श्रीशचीनन्दन की जय हो ! जय हो ! अवधूत नित्यानन्द प्रभु की जय हो ! जय हो !  श्रीअद्वैत आचार्य की जय हो ! जय हो ! श्रीगदाधर और श्रीवास पंडित की जय हो ! जय हो ! अन्य सभी तीर्थों के सारस्वरूप श्रीनवद्वीप धाम की जय हो ! जय हो ! जिस धाम में श्रीगौरसुन्दर अवतरित हुए हैं।

   अगले दिन प्रातः काल श्रीनित्यानन्द प्रभु श्रीवास पंडित तथा श्रीजीव को साथ लेकर बाहर आये। उनके साथ रामदास आदि भक्त भी चल रहे थे तथा गौरनाम का कीर्तन कर रहे थे।जिस समय वह अंतरद्वीप की सीमा पर पहुंचे उन्होंने श्रीजीव को श्रीगंगानगर के दर्शन करवाये।उन्होंने कहा रघु के वंशधर भगीरथ ने इस नगर की स्थापना की थी।जिस समय भगीरथी गंगा इस जगत में आई उस समय वह शंख बजाते हुए उनके आगे चल रहे थे। किंतु नवद्वीप में आकर गंगा जी स्थिर हो गयी।उन्होंने मुड़कर देखा गंगा जी तो आगे बढ़ने का नाम नहीं ले रही तब वह विह्वल हो गए।गंगा ने इस स्थान पर बैठकर तपस्या आरम्भ की। तब गंगा देवी ने साक्षात रूप से प्रकट होकर दर्शन दिया। भगीरथ ने कहा माता यदि आप आगे प्रस्थान न करोगी तो मेरे पितरों का उद्धार किस प्रकार होगा । तब गंगा जी ने कहा पुत्र शांत चित्त से सुनो। मैं माघ मास में श्रीनवद्वीप धाम आयी हूँ तुम्हारे पितरों के उद्धार हेतु फाल्गुन में आगे बढूंगी। महाप्रभु जी के चरण कमलों के आश्रय से मेरे सारे मनोरथ पूर्ण हो जाएंगे।फ़ालगुनपुर्णिमा को मेरे प्रभु का जन्म दिन है उस दिन मैं व्रत धारण करूँगी तथा अगले दिन उद्द्यापन करके तुम्हारे साथ चलूंगी।इस प्रकार भगीरथ ने फ़ालगुनपुर्णिमा तक वहां वास किया तथा श्रीगंगा को लेकर प्रस्थान किया।जो व्यक्ति फाल्गुन पूर्णिमा के दिन इस गंगानगर में वास करता है तथा गौरसुन्दर की पूजा करता है वह अपने पूर्वजों सहित इस संसार सागर से तर जाता है। सभी पूर्वजों के साथ गोलोक की प्राप्ति होती है चाहे कहाँ भी देह छोड़े।क्योंकि इस स्थान का माहात्म्य अपार है यहां श्रीचैतन्य देव् ने अनेक बार नृत्य किया है। श्रीगंगा दास तथा सञ्जय के घर के दर्शन करो जिससे आनन्द की प्राप्ति होती है।अब तुम पूर्व दिशा की ओर स्थित जलाशय की महिमा श्रवण करो।जिसे सब बल्लाल दीर्घिका कहते हैं। सतयुग से ही यह जलाशय अति प्रसिद्ध है।

   एक समय पृथु नाम के महाराज पृथ्वी के ऊंचे नीचे स्थानों को समतल करवा रहे थे। जब उनके कर्मचारी इस स्थान पर आए तब यहाँ से एक महाज्योतिर्म्य प्रकाश निकलते हुए देखा।महाराज को बताने पर वह भी वहीं पहुंचे । उस ज्योतिपुंज को देखकर शक्त्यावेश में अपने ध्यान में देखा कि यह तो श्रीनवद्वीप धाम है।इस स्थान को गुप्त रखने के उद्देश्य से उन्होंने यहां एक कुंड की स्थापना करवा दी। यह कुंड पृथुकुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हो गया।इस कुंड के जलपान से सभी निवासी अत्यंत प्रसन्न हुए।कुछ समय पश्चात श्रीलक्ष्मण सैन ने इस कुंड को और गहरा करवाया ।अपने पितृलोक के उद्धार के आश्रय से इस कुंड का नाम बल्लाल दीर्घिका रख दिया। उस सुंदर ऊंचे टीले को देखो वहीं लक्ष्मनसैन का भवन था जो नष्ट हो गया। राजा महाराजा पुण्य अर्जित करने के लिए इस महातीरथ में अतिसुन्दर स्थानों का निर्माण करवाते रहे। बाद में यवनों ने इस स्थान को दूषित कर दिया।

   यहां की भूमि अत्यंत पवित्र है परंतु यवनों के भय से लोग यहां वास नहीं करते। इस स्थान पर श्रीमूर्ति का अपमान हुआ था इसलिए लोगों ने यह स्थान छोड़ दिया। यह कहकर गर्जन करते हुए प्रभु सिमुलिया गावँ की ओर आ गए। यह गंगा के दक्षिण तट पर सीमंतद्वीप नाम से अवस्थित है।काल के प्रभाव से गंगा इसे पूरा डुबो देगी तथा शेष स्थान सिमुलिया ही बचेगा। यहां पर विषयी लोग पार्वती की पूजा करेंगे।एक उपाख्यान को श्रवण करो।

   किसी समय महादेव ने गौरांग नाम सुना तथा भाव विभोर हो नृत्य करने लगे।तभी उत्सुकतावश पार्वती ने भी पूछा कि आप किसके जप से इतने उन्मादित हो रहे हैं। तभी उनके मुख से गौरांग नाम सुन पार्वती का हृदय द्रवीभूत हो गया। तब वह कहने लगी जितने भी मन्त्र तंत्र आज तक सुने वह इस गौरांग नाम के समक्ष जीवन के लिए केवल जी का जंजाल हैं। तब पशुपति नाथ सदाशिव बोले देवी तुम श्रीराधिका जी का अंश हो। मैं तुम्हें इस श्रेष्ठ तत्व के विषय मे बताऊंगा। इस कलियुग में श्रीकृष्ण राधाभाव तथा राधा कांति धारण कर गौर नाम से जन्म लेंगे। स्वयम संकीर्तन में उन्मत हो पात्र कुपात्र का विचार किये बिना जन साधारण में कृष्णप्रेम वितरित   करेंगे। इस प्रेम रूपी बाढ़ में जो जीव नहीं डूबेगा उसके जीवन पर धिक्कार है वह व्यर्थ ही प्राण धारण किये है। श्रीमन प्रभु की प्रतिज्ञा को सुन मैं धैर्य नहीं रख सका तथा मैंने काशी छोड़ दिया । मायापुर की अंतिम सीमा जहां गंगा तट है वहीं कुटी बनाकर मैं भजन करूंगा। उनके वचन सुन पार्वती भी सीमंतद्वीप में आ गयी तथा गौर गौर बोलते प्रेम में डूबने लगी तथा स्थिर न हो सकीं। कुछ दिन बाद श्रीगौरसुन्दर ने पर्रिकर सहित उनको दर्शन दिए।उनके अनुपम सौंदर्य का दर्शन कर पार्वती विभोर हो गयी। उन्होंने पार्वती से वहां आने का कारण पूछा तब पार्वती श्रीगौरांग के चरणों मे गिर अपने दुख का वर्णन करने लगी। कि मैं अपने मन को स्थिर नहीं कर पा रही। आप सबके प्रति दयालु होकर भी मेरी विडम्बना क्यों कर रहे हो। हे पतितपावन आपने मुझे जीव को दण्ड देने के लिए नियुक्त कर दिया तथा अपने प्रेम से वंचित कर दिया । मैं इस कार्य मे व्यस्त रहने से आपके अनन्त प्रेम से वंचित रहती हूं।क्रमशः

जय निताई जय गौर

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