चतुर्दश अध्याय

श्रीनवद्वीपधाम महात्म्य

चतुर्दश अध्याय

   पँचतत्वात्मक श्रीगौरहरि की जय हो! जय हो! सर्वश्रेष्ठ धाम श्रीनवद्वीप की जय हो ! जय हो! मामगाछी ग्राम में पहुंचकर श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा -- यह मोदद्रुम है तथा यहां अयोध्या विराजमान है।पिछले कल्प में भगवान श्रीराम चन्द्र के बनवास के समय लक्ष्मण तथा जानकी इस स्थान पर आए थे। उन्होंने एक बड़े वटवृक्ष के नीचे कुटीर बनाकर बहुत दिन तक वास किया था। श्रीनवद्वीप की शोभा देखकर श्रीरघुनन्दन मुस्कुराने लगे।आहा ! श्यामवर्ण वाला वह रूप कैसा मनमोहक था। उसके नेत्र कमल के समान थे तथा उनके हाथ मे एक सुंदर धनुष सुशोभित था। सिर पर जटाजूट शोभा पा रहा था। उनका सौंदर्य सभी प्राणियों के मन को हर रहा था। श्रीराम चन्द्र को मुस्कुराते देख जानकी ने कारण पूछा। तब उन्होंने कहा जानकी सुनो मैं तुम्हें एक बहुत गोपनीय उपाख्यान सुना रहा हूँ। जब धन्य धन्य कलियुग के समय प्रकट होगा तब मैं पीत वर्ण धारण करके शचीदेवी तथा जगन्नाथ मिश्र के घर नदिया में गौरांग रूप में जन्म लूंगा। जो सौभाग्यशाली व्यक्ति मेरी लीलाओं के दर्शन करेंगे , मैं उन्हें सर्वश्रेष्ठ फल प्रेम प्रदान करूंगा।हे प्रिये मैं उस समय विधाध्ययन अध्यापन की लीला करूंगा तथा श्रीनाम के महात्म्य को प्रकाशित करूंगा। मैं सन्यास धारण कर नीलांचल जाऊंगा तथा मेरी माँ तथा मेरी पत्नी क्रंदन करेंगी। श्रीराम के मुख से यह सुनकर जानकी ने कहा - हे कमललोचन आप उनका त्याग क्यों करेंगे। किस सुख की प्राप्ति के लिए आप उनको दुख देंगे।तब राम जी ने कहा तुम सब कुछ तो जानती हो फिर भी अनजान बन रही हो। हे सीते ! सुनो । मेरे प्रति की जाने वाली प्रेमाभक्ति का दो तरह से आस्वादन किया जा सकता है। मेरे संयोग से प्राप्त सुख को सम्भोग कहते हैं तथा मेरे वियोग से उतपन्न सुख को विप्रलम्ब कहते हैं। यधपि मेरे नित्यसंगी भक्त मेरे संयोग की इच्छा रखते हैं , तथापि मेरी कृपा से उन्हें विप्रलम्ब का आस्वादन होता है जिससे उनके संयोग सुख की अभिवृद्धि होती है। भक्त जानते हैं कि श्रीकृष्ण के वियोग से दुख उतपन्न होता है , वास्तव में यह परम आनन्द होता है। क्योंकि यह संयोग सुख को बढ़ाता है। मेरा वियोग भी सुख प्रदान करने वाला है। इस सुख की प्राप्ति हेतु तुम भी मेरा वियोग सहन करती हो यह वेदों में भी वर्णित है। कौशल्या देवी ही मेरी माता सचिमता के रूप में प्रकट होंगीं। तुम विष्णुप्रिया देवी के रूप में मेरी सेवा करोगी तथा मेरे वियोग में मेरी गौरमूर्ति प्रकाशित करोगी।इसी अवतार में मैं तुम्हारे वियोग में स्वर्ण की सीता बनाकर अयोध्या नगरी में तुम्हारी उपासना करूंगा। उसके बदले तुम गौड़मण्डल में श्रीगौरांग का विग्रह बनाकर मेरी आराधना करोगी। यह उपाख्यान बहुत गोपनीय है है तथा अभी लोगो के सामने प्रकाशित नहीं होगा। यह नवद्वीप धाम मुझे अत्यंत प्रिय है। अयोध्या आदि स्थान भी इसके बराबर नहीं हो सकते।यह रामवट वृक्ष कलियुग में साधारण लोगो की दृष्टि से ओझल होकर गुप्त रूप में रहेगा।

   इस प्रकार श्रीराम कुछ दिन सीता तथा लक्ष्मण के संग वहीं रुके। उसके बाद अपनी लीला को बढ़ाने हेतु उन्होंने दण्डकारण्य प्रस्थान किया। तभी नित्यानंन्द प्रभु बोले जीव इस स्थान का दर्शन करो जहां श्रीराम जी की कुटी बनी थी। श्रीराम के मित्र गुहक ने प्रभु इच्छा से यहां एक विप्र के रूप में जन्म लिया। गौर लीला में उनका नाम सदानंद भट्टाचार्य था तथा वह श्रीराम के अतिरिक्त त्रिभुवन में कुछ भी नहीं मानते थे। जिस दिन मेरे प्रभु ने नदिया में जन्म लिया , उस दिन सदानन्द भट्टाचार्य जी जगन्नाथ मिश्र के घर उपस्थित थे। श्रीमन महाप्रभु के आविर्भाव के समय सभी देवता श्रीजगन्नाथ मिश्र के घर आकर गौरहरि का दर्शन कर रहे थे। उस परम साधक ब्राह्मण ने देवताओं को पहचान लिया तथा जान गए कि मेरे प्रभु ने ही इस रूप में अवतार लिया है। अत्यधिक प्रसन्न होकर वह घर लौट आये। उन्हें ध्यान में अपने इष्ट श्रीराम के स्थान पर गौरांग के दर्शन हुए। उन्होंने देखा कि गौरांग प्रभु सिंघासन पर विराजमान हैं तथा ब्रह्मादिक सभी देवता उनको चामर ढुला रहे हैं।

गौरांग रूप में अपने इष्ट के दर्शन कर सदानन्द बहुत प्रसन्न हुए।उसने पुनः दुर्वादल श्याम वर्ण वाले श्रीराम जी को देखा। उनकी दाईं ओर लक्ष्मण बाईं ओर सीता तथा सामने भक्त हनुमान विराजमान थे। यह देख ब्राह्मण को पुनः प्रभु के तत्व का ज्ञान हो गया। परमानन्द में वह अपने प्रभु का नित्य गौर रूप में दर्शन करने लगा।वह ब्राह्मण मन ही मन कहने लगा मैं धन्य हूँ क्योंकि मेरे समक्ष श्रीरामचन्द्र ही गौरहरि रूप में विराजमान हैं।

     कुछ समय बाद जब श्रीधाम नवद्वीप में संकीर्तन आरम्भ हुआ तब सदानंद ने भी गौर गौर नाम का उच्चारण करते हुए नृत्य किया। हे जीव शुद्ध चित्त वाले भक्त इस स्थान पर वृन्दावन के भांडीर वन का दर्शन करते हैं।इस सब उपाख्यानों को सुनकर सभी भक्त प्रेम विभोर हो गए तथा नित्यानन्द प्रभु को घेरकर कीर्तन करने लगे। श्रीजीव के अंगों में सात्विक विकार उदय हो गए तथा वह हा गौरांग ! हा गौरांग ! कहकर जोर से चिल्लाने लगे। उस दिन नित्यानंन्द प्रभु अति आनन्दित होकर उस ग्राम में नारायणी देवी के घर रुके। परम् पवित्र सती नारायणी देवी व्यास वृन्दावन दास ठाकुर जी की माँ थी उन्होंने सभी वैष्णवों की बहुत सेवा की। अगले दिन प्रातः काल कुछ दूर चलने पर उन्होंने श्रीवैकुंठपुर में प्रवेश किया।

   श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजाह्वा देवी की आज्ञा का पालन करने हेतु दीन अकिंचन भक्तिविनोद द्वारा श्रीधाम नवद्वीप की महिमा का गायन किया जा रहा है।

चतुर्दश अध्याय समाप्त

जय निताई जय गौर

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