भाग 2 प्रथम अध्याय

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

                2
     *श्रीगोद्रुम चंद्राय नमः*

           *पहला अध्याय* 

   *श्रीनाम महात्म्य सूचना*

श्रीगदाधर पंडित तथा श्रीगौरांग महाप्रभु जी की जय हो। श्रीमति जान्ह्वी देवी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द प्रभु जी, सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी, तथा पंडित श्रीवास आदि जितने भी भक्त हैं सबकी जय हो।
  
    समुद्र के तट पर नीलांचल धाम के मंदिर में पुरुषोत्तम श्रीहरि, दारू ब्रह्म के रूप में अर्थात दिव्य लकड़ी से बनी श्रीमूर्ति के रूप में जीवों के उद्धार के लिए अवतरित हुए हैं। भगवान श्रीहरि इस रूप में अवतरित होकर समस्त दुनिया को धन सम्पदा व यश तथा मोक्ष आदि प्रदान करते हैं। भगवान के इसी धाम में अर्थात श्रीजगन्नाथ पुरी धाम में श्रीचैतन्य महाप्रभु जी , जो कि स्वयम भगवान श्रीकृष्ण हैं , जीवों को भव सिंधु से पार लगाने के लिए एक सन्यासी के रूप में अवतरित हुए हैं। भगवान श्रीचैतन्य देव जीे कलियुग के युग धर्म ---- श्रीहरिनाम संकीर्तन के उपदेश को समझाने हेतु श्रीकाशी मिश्र के घर रहते हैं। यही नहीं वह अपने भक्तों के साथ बड़े उदार कल्प वृक्ष बनकर सभी को श्रीकृष्ण प्रेम प्रदान करते हैं।

   भक्तों के मुख से हरिकथा सुननी चाहिए ,इस महान शिक्षा को देने के लिए आप स्वयम विभिन्न प्रकार के तत्वों की कथा बड़े ध्यान तथा आनन्द के साथ सुनते हैं। आपने श्रीराय रामानंद जी के मुख से रस तत्व की कथा, भट्टाचार्य जी के मुख से मुक्तित्त्व की कथा, श्रीरूप गोस्वामी के मुख से रस विचार तथा श्रीहरीदास ठाकुर जी के मुख से श्रीहरिनाम की महिमा सुनी थी।

   एक दिन भगवान श्रीकृष्णचन्द्र चैतन्य महाप्रभु जी समुद्र में स्नान करके सीधे   सिध्द बकुल की ओर चले गए। जहां उनकी भेंट श्रीहरीदास ठाकुर जी से हुई।बड़े आनन्द के साथ दोनो मिले।बात करते करते बड़े सुंदर ढंग से श्रीमन महाप्रभु जी ने श्रीहरिदास ठाकुर जी से पूछा --- हरिदास यह बताओ , किस प्रकार जीव सुगमतापूर्वक भव सागर को पार कर सकता है।

  महाप्रभु जी का प्रश्न सुनकर हरिदास ठाकुर जी के नेत्रों सेअश्रु धाराएँ बहने लगी तथा उनका सारा शरीर पुलकायमान हो गया। बड़ी श्रद्धा के साथ उन्होंने महाप्रभु जी के चरणों मे प्रणाम किया तथा उनके चरण पकड़ अपनी स्वाभाविक दीनता के साथ महाप्रभु जी से कहने लगे--प्रभु ! आपकी लीला सुगम्भीर है , मैं तो अति अकिंचन हूँ , मेरे पास भला विद्या धन कहाँ ! आपके श्रीचरण ही मेरा सहारा तथा सर्वस्व हैं । ऐसे अयोग्य व्यक्ति को आपने यह प्रश्न कर दिया है । अब आप ही बताएँ कि इसका फल क्या होगा। हे प्रभु ! आप तो स्वयम विभु अर्थात सर्व व्यापक श्रीकृष्ण हो तथा जीवों का उद्धार करने के लिए नवद्वीप धाम में आपने जन्म लिया है। हे गौरचन्द्र आपके इन लालिमा युक्त दिव्य चरणों मे कृपा करके मुझे स्थान दीजिये , तभी मेरा चित्त प्रफुल्लित होगा।हे गौरहरि जी आपके अनन्त नाम हैं आपके गुण भी अनन्त हैं और आपका रूप तो सुखों का सागर है । यही नहीं आपकी लीलाएं भी अनन्त हैं।आप मुझ पर कृपा करें तभी मेरे जैसा पामर जीव इन लीलाओं का आस्वादन कर सकता है।

  हे गौरहरि ! आप चिन्मय सूर्य हो , मैं तो उस सूर्य की किरण का एक कणमात्र हूँ। हे गौरहरि ! आप मेरे नित्य प्रभु हो और मैं आपका नित्यदास हूँ। आपके चरणों का अमृत ही मेरा आनन्दमय वैभव है । बस, आपके नामामृत का रसास्वादन करने की मेरी बड़ी इच्छा है तथा आशा है कि कभी तो आप अपने नामामृत का मुझे पान करवाओगे।आपने जो प्रश्न किया उस विषय मे भला मैं क्या जानता हूँ , जो कहूँ। मैं तो बस आपकी आज्ञा का पालन करूंगा और आज्ञा पालन करते हुए आप मेरे मुख से जैसे बुलवाओगे , वैसा ही बड़ी खुशी खुशी बोलता चला जाऊंगा। बस इतनी ही कृपा करना कि मेरे द्वारा दिये उत्तर में गुण अथवा दोष न देखना।

         *कृष्णतत्व*

इच्छामय भगवान श्रीकृष्ण ही एकमात्र सर्वेश्वर हैं। वे श्रीकृष्ण नित्य हैं , सर्वशक्तिमान हैं , सर्वव्यापक हैं तथा सर्वश्रेष्ठ तत्व हैं। श्रीकृष्ण स्वतंत्र तथा स्वेच्छामय पुरुष हैं । वे स्वाभाविक रूप से ही अचिन्त्य शक्तियुक्त हैं।

  *श्रीकृष्ण तथा श्रीकृष्ण शक्ति*

  श्रीकृष्ण की शक्ति श्रीकृष्ण से कभी अलग नहीं है। वेदमन्त्रों में कहा गया है कि जो शक्ति है वे ही श्रीकृष्ण हैं अंतर केवल इतना है कि श्रीकृष्ण विभु हैं तथा शक्ति उनका वैभव स्वरूप है। अनन्त वैभव के द्वारा अर्थात अनन्त शक्तियों से युकत होकर भी श्रीकृष्ण एक स्वरूप कहे जाते हैं। कहने का तातपर्य यह है कि श्रीकृष्ण अनन्त शक्ति स्वरूप हैं , इसलिए उन्हें सर्वशक्तिमान कहा जाता है । शक्ति से श्रीकृष्ण नहीं बल्कि श्रीकृष्ण से अनन्त शक्तियां प्रकाशित होती हैं।

  *तीन प्रकार के वैभव*

शक्ति का जो प्रकाश है , उसी का वैभव कहा जाता है। विभु का वैभव ही केवल अनुभव में आता है। श्रीहरीदास ठाकुर कहते हैं हे गौरसुन्दर! आपका वैभव शास्त्र में चिद वैभव, अचिद वैभव तथा जीव वैभव -- इन तीन रूप में वर्णित है।

         *चिद वैभव*

अनन्त वैकुंठ आदि जितने भी श्रीकृष्ण के असंख्य धाम हैं । गोविंद, श्रीकृष्ण, हरि आदि जितने भी इनके नाम हैं, द्विभुज  वंशीधर, मुरलीधर, धनुर्धर, चतुर्भुज नारायण इत्यादि जितने भी भगवान के स्वरूप हैं, भक्त वात्सल्य इत्यादि जितने भी श्रीकृष्ण के मनोहर गुण हैं , ब्रज में रासलीला , नवद्वीप में नाम संकीर्तन , इस प्रकार जितनी भी श्रीकृष्ण की लीलाएं हैं --ये सभी भगवान श्रीकृष्ण के अप्राकृतिक चिद वैभव हैं। प्राकृत जगत में आने पर भी यह प्राकृत नहीं हैं, यह सभी अप्राकृत हैं या यूं कहें कि ये उनके चिन्मय वैभव हैं। श्रीकृष्ण के ये सभी चिन्मय धाम, नाम , रूप , गुण व लीला इत्यादि सभी विष्णु तत्व का सार स्वरूप है। वेद इन सभी को विष्णुपद कहकर बार बार इनकी महिमा का वर्णन करते रहते हैं।

  *श्रीकृष्ण की चिद विभूति ही शुद्ध सत्व है*

   श्रीकृष्ण के चिद स्वरूप - जो श्रीकृष्ण के नाम , रूप, गुण, धाम , लीला व पर्रिकर आदि हैं, उनमे दुनियावी माया का विकार नहीं रहता है क्योंकि वह जड़ से परे हैं। ये विष्णु तत्व , शुद्ध तत्व का सार होता है। इस शुद्ध तत्व में रजोगुण तथा तमोगुण की कोई गन्ध नहीं रहती।ये सभी जानते हैं कि मिश्र सत्व में रजोगुण और तमोगुण मिले होते हैं।

   श्रीगोविन्द, श्रीवैकुंठनाथ,श्रीनारायण, श्रीकर्णोद्शायी महाविष्णु, गर्भोदशायी विष्णु, शीरोदशायी विष्णु और जितने भी स्वांश नाम से परिचित भगवान के अवतार हैं , वे सभी शुद्ध सत्व स्वरूप हैं तथा विष्णु तत्व का सार स्वरूप हैं। यह सभी विष्णु तत्व , गोलोक में, वैकुंठ में , कारण समुद्र में अथवा इस जड़ जगत में प्रवेश होने पर भी माया के अधीश्वर रहते हैं। विष्णु नाम ही विभु हैं, यह सभी देवताओं के ईश्वर हैं।

          *मिश्र सत्व*

मायाधीश प्रभु , शुद्ध सत्वमय हैं तथा वे माया के भी ईश्वर हैं जबकि ब्रह्मा, शिव इत्यादि त्रिगुणात्मक देवता हैं, ये सभी मिश्र तत्व हैं।

      *चिद वैभव विस्तृति*

श्रीहरीदास ठाकुर जी भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु जी को कहते हैं कि जितने भी विष्णु तत्व और विष्णु धाम व लीलाएं हैं। वे सभी आपके चिद वैभव हैं।

  *अचिद वैभव अथवा माया तत्व*

विरजा नदी , जो कि भौतिक जगत और आध्यात्मिक जगत की सीमा है, के इस पार चौदह लोकों में जो कुछ भी है सभी अचिद वैभव है। इसे माया का वैभव भी कहते हैं अथवा इन्हें देवी धाम भी कहा जाता है। जिनमे जो कुछ भी बना है वह आकाश , मिट्टी, जल, वायु तथा अग्नि नामक पंच महाभूतों एवं मन , बुद्धि व अहंकार से बना है। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं -हे जगन्नाथ गौरहरि ! भूलोक, भुवलोक, स्वर्गलोक, महर्लोक, जनलोक , तपलोक और सत्यलोक नामक ऊपर के लोक तथा अतल वितल आदि नीचे के सातों लोक आपकी माया के वैभव हैं।

       *जीव वैभव*

सत्य यह है कि आपका चिद वैभव तो अपने आप मे पूर्ण तत्व है, चेतन तत्व है, जबकि माया वैभव तो इस वैभव की छाया है। आकार की दृष्टि से देखा जाए तो यह जीव अति अणु स्वरूप है परंतु चिन्मय होने के कारण जीव के गठन में ही स्वतंत्रता है तथा संख्या में यह जीव अनन्त हैं एवं सुख की प्राप्ति करना ही इन जीवों का लक्ष्य होता है।

          *मुक्त जीव*

उस नित्य सुख को प्राप्त करने के लिए जिन्होंने आनन्दस्वरूप श्रीकृष्ण को वरण किया , वे तो श्रीकृष्ण के पार्षद बन गए तथा मुक्त जीव के रूप में रहने लगे।क्रमशः

जय निताई जय गौर

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