पँचदश अध्याय 3

श्रीनवद्वीपधाम महिमा

पँचदश अध्याय 3

  इन सब प्राचीन उपाख्यानों को सुनते सुनाते सभी रुदरद्वीप पहुंच गए। नित्यानन्द प्रभु ने कहा यह द्वीप भगीरथी नदी के प्रभाव से दो भागों में विभक्त हो गया है। श्रीमन महाप्रभु जी की इच्छा से अब इस स्थान पर लोगों का वास नहीं है। पश्चिम द्वीप श्रीगंगा के कटाव के कारण पूर्व की ओर जा रहा है। अभी यहां से श्रीशंकरपुर का दर्शन करो। यह स्थान गंगा तट पर कितनी दूर तक शोभायमान है। श्रीशंकराचार्य दिग्विजय के समय एक बार श्रीनवद्वीप पर विजय प्राप्त करने हेतु यहां उपस्थित हुए। यधपि मन से वह शंकर वैष्णव थे परंतु बाहर से उन्होंने माया के दास अद्वैतवादी सन्यासी का भेष बनाया हुआ था।यधपि वे स्वयम रुद्र के अंश थेऔर बहुत प्रतिभाशाली थे। तथापि उन्होंने दक्षता पूर्वक बौद्धमत का प्रचार किया। भगवान की आज्ञा से ही वह मायावाद का प्रचार कर रहे थे। जब वह नदिया में आये तब गौरचन्द्र ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया तथा कृपापूर्वक मधुर वचनों से कहा तुम मेरे दास हो । तुम मेरी आज्ञा का पालन करके बहुत परिश्रम से मायावाद का प्रचार कर रहे हो। किंतु यह नवद्वीप धाम मुझे बहुत प्रिय है तथा यहां मायावाद का प्रचार सम्भव नहीं है। वृद्धशिव यहां प्रौढामाया अपने साथ लेकर आगम शास्त्र की कल्पित व्याख्या का प्रचार करते हैं , क्योंकि वे उनकी वंचना करना चाहते है। यह मेरे प्रिय भक्तों का स्थान होने के कारण मायावाद के प्रचार के लिए युक्त नहीं है। अतएव तुम यहाँ से दूर चले जाओ तथा मेरे भक्तो को पीड़ा मत पहुंचाओ। स्वप्न में महाप्रभु जी का आदेश पाकर शंकराचार्य जी भक्ति के आवेश में भर गए तथा महाप्रभु जी की आज्ञा पालन हेतु प्रसन्नचित दूसरे स्थान पर चले गए।

    यह रुद्रद्वीप रुद्रों का स्थान है। यहां वह सभी मिलकर एकसाथ श्रीगौरसुन्दर का गुणानुवाद करते हैं। श्रीनील्लोहित वर्णवाला रुद्र इन सब रुद्रों के अधिपति हैं। वे यहां पर अत्यधिक प्रसन्न होकर नृत्य करते है।

  उनके इस नृत्य को देख आकाश से देवता भी आनन्दित होकर पुष्पवर्षा करते हैं।कभी एक समय श्रीविष्णुस्वामी भी दिग्विजय करते हुए अपने शिष्यों के साथ यहां पर उपस्थित हुए। इसी रुद्रद्वीप में उन्होंने रात बिताई।

    यही पर हरि हरि कहकर उनके सभी शिष्य नृत्य करने लगे। स्वयं विष्णुस्वामी श्रुतियों में वर्णित कुछ स्तुतियाँ पाठ करने लगे। भक्ति की आलोचना होते देख श्रीनील्लोहित रुद्र ने अत्यधिक प्रसन्नतापूर्वक उन्हें अपना दर्शन दिया। जैसे ही वह वैष्णवसभा में उपस्थित हुए विष्णुस्वामी उनका रूप देखकर आश्चर्यचकित हो गए तथा हाथ जोड़कर उनका स्तव करने लगे। उनसे प्रसन्न होकर बोले तुम सब वैष्णव लोग मुझे बहुत प्रिय हो। तुम्हारी भक्ति देखकर मेरा मन बहुत संतुष्ट हुआ। तुम मुझसे अपनी इच्छा अनुसार वर मांगो। ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जो मैं वैष्णवों को नहीं दे सकता। तभी विष्णुस्वामी ने हाथ जोड़ उनसे कहा प्रभु कृपा करके ऐसा वर दीजिये जिससे हम सभी किसी भक्ति सम्प्रदाय में सिद्धि प्राप्त कर सकें। तब श्री रुद्र ने उन्हें अपने सम्प्रदाय में सिद्ध होने की स्वीकृति दी। तबसे विष्णुस्वामी अपने सम्प्रदाय को रुद्रसम्प्रदाय के नाम से प्रचार या प्रसार करते हुए नृत्य तथा गान करने लगे। वह इसी स्थान पर गौरसुन्दर का प्रेम प्राप्त करने हेतु भजन करने लगे। स्वप्न में गौरहरि ने विष्णुस्वामी से कहा तुम पर मेरे भक्त रुद्र की कृपा हुई है। तुम धन्य हो क्योंकि तुमने नवद्वीप में भक्ति धन को प्राप्त किया है। अब तुम शुद्ध अद्वैतमत का प्रचार करो। कुछ समय बाद जब मैं नदिया में लीला प्रकट करूंगा तब तुम वल्लभभट्ट के नाम से जन्म लोगे। श्रीक्षेत्र में मेरे दर्शन के पश्चात तुम महावन जाकर अपने सम्प्रदाय को पुष्ट करोगे।

  श्रीनित्यानन्द प्रभु ने श्रीजीव से यह सब कहा तथा दक्षिण की ओर मुख कर पारडांगा नामक श्रीपुलिन की ओर सुखपूर्वक चलने लगे। भगीरथी के तट पर उन्होंने श्रीजीव को श्रीरासमण्डल तथा श्रीधीरसमीर के दर्शन करवाये।उन्होंने कहा हे जीव यहां वृन्दावन का दर्शन करो। वृन्दावन का नाम सुनते ही श्रीजीव विह्वल हो गए तथा प्रेमाश्रु बहाने लगे। श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा यहां गौरांगसुन्दर ने अपने भक्तों के साथ इस स्थान पर रासलीला के श्लोकों का कीर्तन किया था। वृन्दावन में जो वंशीवट है वह यहां जान्ह्वी पुलिन है। यहां पर श्रीकृष्ण गोपियों के साथ नित्य रासलीला करते हैं। कोई कोई सौभाग्यशाली जन ही इन लीलाओं का दर्शन करते हैं। पश्चिम में स्थित धीरसमीर भजन का स्थान है। ब्रज में जो धीरसमीर यमुना तट पर है वही यहां गंगा तट पर है। वृन्दावन के जितने भी लीला स्थान हैं वह सभी यहां विराजमान हैं। तुम कभी वृन्दावन तथा नवद्वीप में तथा श्रीकृष्ण और गौरसुन्दर में अंतर मत देखना। महाभाव में डूबकर नितयानन्द प्रभु श्रीजीव को दर्शन करवाने लेकर आगे बढ़े तथा कुछ दूर उत्तर में जाकर रुद्रद्वीप में उन्होंने रात्रि व्यतीत की। श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजाह्वा देवी के चरणकमल की जिनका आश्रय है । जिनकी एकमात्र सम्पति है उन्हीं भक्तिविनोद ठाकुर जी द्वारा श्रीनवद्वीप धाम का महात्म्य गाया जा रहा है।

पँचदश अध्याय समाप्त

जय निताई जय गौर

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