दशम अध्याय 2

श्रीनवद्वीपधाम महात्म्य

दशम अध्याय 2

  करोड़ों करोड़ों वर्षों तक भी श्रीकृष्ण का भजन करने पर दुर्जन व्यक्ति को श्रीहरिनाम में रुचि नहीं होती किंतु गौराँग महाप्रभु का भजन करने से शीघ्र ही उसका दुष्ट स्वभाव नष्ट हो जाता है और थोड़े ही दिन में उसे ब्रजधाम में श्रीराधाकृष्ण का प्रेम प्राप्त होता है।

     वह व्यक्ति स्वरूपगत सिध्देह तथा ब्रजांगनाओं का साथ प्राप्त करता है। उसे कुंज में युगलसेवा का अधिकार प्राप्त होता है।हे विप्र तुम यहीं रहकर भजन करो । यहीं पर गौरांग महाप्रभु तुम्हें पार्षदों सहित दर्शन देंगे। इतना कहकर तीर्थराज पुष्कर चला गया तथा उसने आकाशवाणी से सुना कि जल्दी ही कलिकाल आने वाला है। तुम उस समय गौरसुन्दर के प्रेमरस में डुबकियां लगाओगे। ऐसा सुनकर दिवदास निश्चिन्त हो गया तथा कुंड के तट पर बैठ भजन करने लगा। इसके पश्चात श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजीव ने कुरुक्षेत्र स्वरूप उच्चहट्ट में प्रवेश किया। श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा यहां पर सभी देवता कुरुक्षेत्र के साथ उपस्थित हुए। ब्रह्मावर्त तथा कुरुक्षेत्र के अंतर्गत जितने भी तीर्थ थे वह सभी यहां आकर बस गए। यहां सभी तीर्थ मिलकर धाम सेवा करते हैं।

   एक सौ वर्षों तक कुरुक्षेत्र में वास करने से जो फल प्राप्त होता है वह वहां पर केवल एक रात वास करने से ही प्राप्त हो जाता है। सभी देवतालोग वहां पर वास करने लगे तथा गौरकथा श्रवण करने लगे। तब से इस स्थान का नाम हट्टडांगा अर्थात ऐसा स्थान जहाँ प्रत्येक क्षण गौरकथा तथा गौरनाम क्रय विक्रय होता रहता है पड़ गया। इस स्थान का दर्शन करने वाले को अथाह प्रेम की प्राप्ति होती है।यह भी नवद्वीप की एक सीमा है चलो हम भगीरथी को पार करें।भगीरथी पार करके दोपहर के समय वह दोनों कोलद्वीप पहुंचे।

         कुलिया पहाड़ के मार्ग पर चलते चलते श्रीनित्यानन्द प्रभु कहने लगे जीव जिस क्रम से गंगा पार करके हमने परिक्रमा की है , यही वास्तव में परिक्रमा का प्रमाणिक क्रम है तथा ऐसा करने से ही परिक्रमा का वास्तविक फल प्राप्त होता है।एक दिन संध्या के समय श्रीमन महाप्रभु मायापुर से अपने हजारों परिकरों के साथ काजी का उद्धार करने के लिए चौदह मृदंगों के साथ विराट नगर संकीर्तन करते हुए चल पड़े। वह रात्रि ब्रह्नरात्री की भांति बहुत बड़ी हो गयी। सभी पूरे नवद्वीप में भर्मण करने लगे।उस दिन के बाद प्रत्येक एकादशी को महाप्रभु जी रात्रि में नगर संकीर्तन करते थे।श्रीमन महाप्रभु अपनी इच्छा अनुसार कभी पांच कोस परिमाण वाले अंतरद्वीप  की परिक्रमा करते तो कभी आठ कोस का भर्मण करते। कभी अपने घर से बारकोटा घाट , फिर बल्लालदीर्घिका फिर श्रीधर के घर । श्रीधर के घर से अंतरद्वीप जाते हुए पांच कोस की परिक्रमा करते।

    आठ कोस की परिक्रमा के समय सिमुलिया से काजी के घर जाते। वहां से गोद्रुम फिर मध्यद्वीप तथा भगीरथी को पार करते हुए दूसरे तट पर पारडांगा तथा छिनाडांगा नामक स्थान पर जाते। पुनः
अपने घर लौट आते।सोलह कोस भृमण करने पर परिक्रमा पूर्ण होती है।पूरी परिक्रमा करने पर महाप्रभु संतुष्ट होते हैं। हे जीव मैं तुमको वही सोलह कोस वाली परिक्रमा करवा रहा हूँ। इसके समान कोई और परिक्रमा हो ही नहीं सकती। सोलह कोस में स्थित वृन्दावन के द्वादश वनों के दर्शन तुम्हें इसी परिक्रमा में हो जाएंगे। यह परिक्रमा नो रात्रि में पूर्ण होती है इसलिए इसे शास्त्रों में नवरात्र भी कहा गया है। पांच कोस की परिक्रमा एक दिन में तथा आठ कोस की परिक्रमा तीन रात्रि में होती है।एक रात्रि मायापुर, दूसरी गोद्रुम तथा तीसरी गंगा के पुलिन पर व्यतीत करते हुए परिक्रमा करनी चाहिए। परिक्रमा के तत्व को सुनकर श्रीजीव बहुत देर तक प्रेमाविष्ट हो गए।

  श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजाह्वा देवी के सुशीतल पदकमलो का आश्रय लेकर श्रील भक्ति विनोद ठाकुर श्रीनवद्वीप धाम की परिक्रमा का गुणगान कर रहे हैं।

दशम अध्याय समाप्त

जय निताई जय गौर

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला