पंचम अध्याय 1

  • नवद्वीपधाम माहात्म्य


पंचम अध्याय
  श्रीनवद्वीप के चन्द्रस्वरूप श्रीशचीनन्दन की जय हो ! जय हो ! अवधूत नित्यानन्द प्रभु की जय हो ! जय हो !  श्रीअद्वैत आचार्य की जय हो ! जय हो ! श्रीगदाधर और श्रीवास पंडित की जय हो ! जय हो ! अन्य सभी तीर्थों के सारस्वरूप श्रीनवद्वीप धाम की जय हो ! जय हो ! जिस धाम में श्रीगौरसुन्दर अवतरित हुए हैं।श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा कि यह सोलह कोस परिधि वाला नवद्वीप वृन्दावन ही है।
     अब आगे सुनो। इसके सोलह कोस में नो द्वीप हैं। आठ दल वाला कमल जिस प्रकार पानी मे तैरता है , उसी प्रकार नवद्वीप रूप कमल भी पुष्प जिसमे आठ द्वीप आठ पंखुड़ियां हैं बीच मे अंतरद्वीप है तथा इसी अंतरद्वीप के मध्य एक बिंदी के समान मायापुर है। गोलाकार मायापीठ में श्रीगौरसुन्दर अनेक प्रकार से विहार करते हैं।मायापुर योगपीठ का व्यास एक हज़ार धनुष अर्थात दो हज़ार मीटर तथा परिधि तीनहज़ार धनुष अर्थात छः हज़ार मीटर है। इस योगपीठ में श्रीकृष्णचैतन्य , श्रीनित्यानन्द, श्रीअद्वैताचार्य, श्रीगदाधर तथा श्रीवास यह पंच तत्व विराजमान हैं। इसलिए इस योगपीठ का सबसे अधिक माहात्म्य है। महाप्रभु जी की इच्छा से जल्दी ही यह स्थान भगीरथी द्वारा अपने आपको गुप्त कर लेगा।जब कभी पुनः महाप्रभु जी की इच्छा प्रबल होगी तो यह पुनः प्रकाशित होगा। नित्यधाम काल के द्वारा कभी लुप्त नहीं होता , बल्कि कभी लुप्त तो कभी प्रकाशित प्रभु इच्छा अनुसार होता है। गंगा के पूर्व तट पर स्थित मायापुर में मेरे प्रभु नित्य निवास करते हैं। यद्यपि लौकिक दृष्टि से मेरे प्रभु सन्यास धारण कर इस क्षेत्र को त्याग गए हैं परंतु वह नित्य रूप से यहीं विराजित हैं। इस ग्राम को छोड़ अन्यत्र कहीं भी नहीं जाते।भक्तजन श्रीप्रभु की अष्टकालीन लीला का दर्शन करते हैं। हे जीव ! समय आने पर तुम भी श्रीगौरांग सुंदर के नृत्य का दर्शन करोगे।
    मायापुर के चारों ओर अंतरद्वीप विराजमान है जहां श्रीगौर सुंदर ने महाप्रभु के दर्शन प्राप्त किये थे। तुम यदि उन सभी स्थानों के दर्शन करना चाहते हो तो परिक्रमा करो जिससे तुम्हारी सभी अभिलाषाएं पूरी हो जाएंगी। श्रीनित्यानन्द प्रभु के वचन सुन श्रीजीव अपने अश्रुपूर्ण नेत्रों से उनके चरण कमलों में दण्डवत प्रणाम करने लगे। हे प्रभु ! मुझ अकिंचन को आप साथ लेकर स्वयम ही परिक्रमा करवाएं। श्रीजीव की बात सुनकर श्रीनित्यानन्द प्रभु ने तथास्तु कहकर अपने मन की बात बताई। श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा - हे जीव ! आज तुम मायापुर के दर्शन करो। कल मैं तुम्हें दूसरे बहुत से स्थानों की परिक्रमा करवाऊंगा। इतना कहकर श्रीनित्यानन्द प्रभु खड़े हुए तथा जीव गोस्वामी भी प्रफुल्लित होकर साथ चलने लगे। श्रीनित्यानन्द प्रभु भाव विभोर होने के कारण धीरे चल रहे थे। उनका दिव्य कलेवर श्रीगौरसुन्दर के प्रेम से विह्वल हो रहा था। मोहनी मूर्ति भाव से झूम रही थी तथा सभी अंग झलमल कर रहे थे। जो चरणकमल शिव ब्रह्म आदि को भी प्राप्त नहीं होते वह जीव का मार्गदर्शन कर रहे थे।
    जीव उनकी चरण धूलि उठा अपने अंगों में मल बड़े कौतूहल पूर्वक चल रहे थे। श्रीजगन्नाथ मिश्र के घर प्रवेश कर श्रीनित्यानन्द प्रभु ने श्रीसचिमाता के चरणकमलों में निवेदन किया हे माता ! गौरंगसुन्दर का यह दास जीव अति बुद्धिमान है। जैसे ही नित्यानंन्द प्रभु ने यह कहा जीव पछाड़ खाकर गिर पड़े जैसे तूफान आने पर बहुत बड़ा वृक्ष जड़ सहित गिरता है। कृपा करके सचिमाता ने उन्हें आशीष दी तथा वहीं उन्होंने भोजन पाया। श्रीबिष्णुप्रिया ने माता की आज्ञा से विभिन्न भांति के अन्न व्यंजन तथा पकवान बनाये। श्रीवंशीवदानंद ने कुछ ही देर में महाप्रभु जी को भोग निवेदन किया। ईशान ठाकुर ने आसन लगाकर नित्यानंन्द प्रभु को प्रसाद परोसा । पुत्रवत स्नेह देते हुए माता ने उन्हें प्रीतिपूर्वक प्रसाद पवाया। मैंने यह प्रसाद गौरचन्द्र को निवेदन किया है तुम इसे ग्रहण करोगे तो मेरा मन बहुत प्रसन्न होगा।माता की बात सुन प्रभु ने आनन्दपूर्वक प्रसाद पाया तथा जीव ने उनका उचिछष्ट प्रसाद पाया। जीव गोस्वामी कहे मैं मायापुर में महाप्रभु जी के घर प्रसाद पाकर धन्य हो गया। प्रसाद उपरांत श्रीनित्यानन्द प्रभु ने माता के श्रीचरनकमलों में प्रणाम कर विदाई मांगी। जाते समय प्रभु ने वंशिवदानन्द को सँग लिया तथा जीव ने उनको प्रणाम किया। श्रीनित्यानन्द प्रभु कहे हे जीव इसी वंशिवदानन्द को सब श्रीकृष्ण की वंशी के रूप में जानते हैं। इनकी कृपा से ही जीव श्रीकृष्ण के प्रति आकर्षित होते हैं तथा सतृष्ण होकर महारास में प्रवेश पाते हैं। इस घर मे चैतन्यदेव ने अपनी लीलाएं की हैं । यह जगन्नाथ जी का मंदिर है जहां वह नित्य विष्णुपूजा किया करते थे। इस घर मे अतिथियों की सेवा करते थे। उनके द्वारा पूजित इस तुलसी मंडप का दर्शन करो। जब तक चैतन्यदेव घर पर थे अपने पिता द्वारा बताए गए मार्ग पर आचरण करते थे। अब वंशिवदानन्द प्रभु के आनुगतय में ईशान ठाकुर उन सब कृत्यों को पूर्ण करते हैं।इस स्थान पर एक नीम का व्रक्ष था महाप्रभु के स्पर्श से वह अप्रकट हो गया है। उन स्थानों का वर्णन करते हुए जैसे नित्यानंन्द प्रभु क्रंदन कर रहे थे वैसे ही श्रीजीव था वंशिवदानन्द भी क्रंदन करने लगे। क्रमशः
जय निताई जय गौर

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