चतुर्थ अध्याय 2
श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य
चतुर्थ अध्याय 2
श्रीजीव श्रीनित्यानन्द प्रभु के चरणाश्रय ग्रहण करने के बाद विनय करते हैं कि वह पूरी जाकर श्रीगौरसुन्दर के चरणकमलों का दर्शन करें तथा सार्वभौम भट्टाचार्य के सदन में जाकर वेदांत की शिक्षा प्राप्त करें।श्रीजीव के मधुर वचनों को सुन अवधूत शिरोमणि ने उन्हें अपनी गोद मे ले लिया और अधीरता देख रोने लगे। उन्होंने कहा हे जीव! मेरे इन निगूढ़ वचनों को सुन। रूप तथा सनातन सभी तत्वों को जानते हैं।श्रीमहाप्रभुजी जी ने मुझे आज्ञा दी थी कि तुम्हारे आने पर मैं तुम्हें ऐसा बताऊँ की न तो तुम पुरी जाओ तथा न ही यहां रहो।तुम रूप सनातन सभी महाप्रभु जी के एकांत दास हो। तुम्हें मेरी यही आज्ञा है कि वाराणसी जाकर मधुसूदन वाचस्पति से वेदांत पढ़ो।वहीं से सीधे वृन्दावन जाओ। वहां रूप सनातन तुम पर कृपा करेंगे। श्रीरूप के आनुगतय में श्रीराधाकृष्ण युगल का भजन करो तथा वेदांत आदि शास्त्रों की आलोचना करो। ब्रह्मसूत्र के रचयिता कृष्णद्वेपायन श्रीवेदव्यास द्वारा रचित श्रीमद भागवत अमल महापुराण , सभी शास्त्रों का सार तथा वेदांतसूत्र का अकृतर्म भाष्य है -- ऐसा प्रचार करो। तुम जानते ही हो कि सार्वभौम भट्टाचार्य के प्रति कृपा करके श्रीगौरसुन्दर ने श्रीमद्भागवत के अनुसार श्रीब्रह्मसूत्र की व्याख्या की है। वही विद्या सार्वभौम ने बहुत यत्न से श्रीमधुसूदन वाचस्पति को दी है।अब वह वाराणसी में रहते हैं तुम वहीं जाकर उनसे मिलो।
यधपि बाहरी रूप से वह वेदान्तिक हैं और शंकर सम्प्रदाय के सन्यासियों को पढ़ाते हैं तथापि समय आने पर वे कृपा करके श्रीगौरसुन्दर की इच्छा अनुसार सूत्र की व्याख्या भी समझाते हैं। अभी वेदांत सूत्र का भाष्य अलग से लिखने की आवश्यकता नहीं है । जिस समय भाष्य की आवश्यकता होगी वह श्रीगोविन्दभाष्य के रूप में प्रकट होगा।सार्वभौम से सम्बन्ध होने के कारण गोपीनाथ ने भी महाप्रभु जी के मुख से भाष्य श्रवण किया था। समय आने पर वह ही प्रभु इच्छा से बलदेव विद्याभूषण के नाम से जन्म लेंगे तथा भाष्य प्रकट करेंगे। जिससे जीवों का उद्धार होगा। यह सब गूढ़ कथाएं तुमको रूप सनातन दोनो भाई मिलकर बताएंगे।श्रीनित्यानन्द प्रभु के वचन सुन श्रीजीव भूमि पर लौटने लगे तथा मूर्छित हो गए।श्रीनित्यानन्द प्रभु ने अपने दोनों चरणकमल श्रीजीव के सिर पर रख दिये और उनमें शक्ति संचार की।श्रीजीव उठने पर वैष्णवों की सभा मे जय गौरांग जय नित्यानन्द कहते हुए नृत्य करने लगे।
श्रीवास आदि जितने भी महाजन वहां पर उपस्थित थे सब नित्यानन्द प्रभु की जीव के प्रति करुणा देख उनका उच्च स्वर से नाम गायन करने लगे तथा वह स्थान मंगलमय हो गया। नृत्य के बाद श्रीनित्यानन्द प्रभु श्रीजीव को लेकर बैठ गए। उनके रहने की व्यवस्था श्रीवास आंगन में की गई। श्रीजीव संध्या के समय पुनः श्रीनित्यानन्द प्रभु के दर्शन करने आये तथा उनके चरणों मे प्रणाम किया। तब नितयानन्द प्रभु श्रीगौरसुन्दर का गुणगान कर रहे थे। बहुत आदरपूर्वक श्रीप्रभु ने उन्हें अपने निकट बैठाया तब श्रीजीव ने श्रीनित्यानन्द प्रभु से धाम की महिमा सुनने की जिज्ञासा प्रकट की। श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा मैं तुमको यह गूढ़ रहस्य बताऊंगा तुम इसे अपने हृदय में रखना।अभी इस तत्व को प्रकाशित मत करना। समय आने पर सब स्वयम प्रकाशित हो जाएगा।
यह नवद्वीप सब तीर्थों का सारस्वरूप है।श्रीविरजा , ब्रह्मधाम आदि पार करके वैकुंठ आता है। उसके ऊपर श्वेतद्वीप गोलोक है। उसके ऊपर गोकुल, वृन्दावन तथा कृष्णलोक है। वह कृष्णलोक माधुर्य और औदार्य भेद से दो भागों में विभक्त रहता है तथा रस को पुष्ट करता है। यद्यपि माधुर्य में औदार्य तथा औदार्य में माधुर्य पूर्ण रूप से अवस्थित रहता है तथापि जिस प्रकोष्ठ में माधुर्य प्रधान होता है सौभाग्यशाली व्यक्ति उसे वृन्दावन कहते हैं और जिस प्रकोष्ठ में औदार्य उसे नवद्वीप कहते हैं । जिनमे मूल रूप से कोई भेद नहीं है केवलमात्र रस के भेद से इनका वैशिष्ट्य है। यह धाम नित्य चिन्मय तथा अनन्त है। जड़बुद्धि इस धाम का पार नहीं पा सकते।आह्लादिनी शक्ति के बल से जीव जड़द्धर्म को छोड़ नित्यसिद्ध ज्ञान के बल से वास्तविक धर्म को प्राप्त करता है। सम्पूर्ण नवद्वीप ही चिन्मय तत्व का प्रकाश है इसी धाम में श्रीगौरांग प्रभु विलास करते हैं।
चरम चक्षुओं से लोग इसे अन्य जड़ स्थानों की भांति देखते समझते हैं क्योंकि माया उनके नेत्रों को ढककर रखती है तथा प्रभु विलास को नहीं देखने देती। श्रीनवद्वीप धाम में जड़ देश काल आदि नहीं है। यहां किसी प्रकार का माया जंजाल नहीं है। सौभाग्य से साधुसंग के फलस्वरूप किसी मे प्रेम का उदय होता है, तभी वह इस धाम के चिन्मय स्वरूप का दर्शन कर पाता है। तभी उसे इस धाम में अवस्थित सभी अप्राकृत वस्तुएं अपने नेत्रों से दिखाई देती हैं। मैंने तुम्हारे समक्ष इस धाम का माहात्म्य प्रकट किया है अब तुम एकांत में जाकर इस तत्व पर विचार करो।
श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्री जान्हवी देवी के चरण कमलों की सुशीतल छाया का आश्रय प्राप्त करने के भाव से श्रील भक्तिविनोद द्वारा इस गूढ़ तत्व को प्रकाशित किया गया है।
चतुर्थ अध्याय समाप्त
जय निताई जय गौर
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