सप्तम अध्याय 1

नवद्वीपधाम माहात्म्य

सप्तम अध्याय 1

  श्रीनवद्वीप के चन्द्रस्वरूप श्रीशचीनन्दन की जय हो ! जय हो ! अवधूत नित्यानन्द प्रभु की जय हो ! जय हो !  श्रीअद्वैत आचार्य की जय हो ! जय हो ! श्रीगदाधर और श्रीवास पंडित की जय हो ! जय हो ! अन्य सभी तीर्थों के सारस्वरूप श्रीनवद्वीप धाम की जय हो ! जय हो ! जिस धाम में श्रीगौरसुन्दर अवतरित हुए हैं।

   श्रीनित्यानन्द प्रभु श्रीजीव को विश्राम स्थल से सुवर्णविहार की ओर ले गए। उन्होंने कहा जीव यह स्थान अप्राकृत है।सतयुग में यहां श्रीसुवर्णसेन नाम का राजा रहता था।बहुत समय उसने यहां राज्य किया तथा वृद्ध होने पर भी शासन से निवृत न हुआ।वह बहुत विषयासक्त था तथा अपनी धन संपदा बढ़ाने की चिंता करता रहता था। एक दिन देवऋषि नारद वहां आये तब उसने उनका बहुत आदर सत्कार किया तथा पूजा अर्चना की।श्रीनारद के हृदय में उसके प्रति करुणा जाग गयी तथा उसे निर्जन स्थान पर ले जाकर वास्तविक तत्व का उपदेश दिया। तुम व्यर्थ धनोपार्जन में आसक्त हुए जा रहे हो जबकि तुम्हारा अमूल्य जीवन व्यर्थ जा रहा है। यह स्त्री पुत्र धन सब माया के खेल हैं। जिनसे अपनी आसक्ति हटा लो क्योंकि कोई भी वस्तु अधिक समय तक रहने वाली नहीं है। मानव जीवन अनित्य है तथा यह भजन हेतु मिला है। क्या तुम कोई ऐसा स्थान जानते हो जहां कोई दुख , शोक तथा भय न हो। मानव की श्रेष्ठ पूंजी हरिभजन है ।हे राजन यह सब वैराग्य द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।ज्ञान के द्वारा प्राप्त वैराग्य अधिक से अधिक मुक्ति प्रदान कर सकता है किन्तु कैवल्य मुक्ति में कोई आनन्द नहीं अपितु यह जीव का सर्वनाश है। यह घृणित है। इसमे एक ओर सभी विषय विकार भस्म तो हो जाते हैं परंतु दूसरी कोई श्रेष्ठ वस्तु की  प्राप्ति नहीं होती है। अतः यह सर्वथा त्याज्य है तथा सभी साधनों का फल श्रीमरिशन भजन तथा उनका प्रेम प्राप्त करना है। भाग्यशाली जीव ही विषयों के प्रति अनासक्त होकर श्रीकृष्ण के चरणकमलो की रति प्राप्त करते हैं।

   जीव नित्य कृष्णदास है। भक्ति के बिना उसका सर्वनाश होता है। मुक्ति भुक्ति तो भक्तों के चरणों की दासी है। यह केवल तूच्छ फल हैं वास्तविक धन तो कृष्णप्रेम की प्राप्ति है। श्रीकृष्ण चिदानन्द सूर्य हैं। माया उनके चरणकमलों की छाया है तथा जीव अणुमात्र है। तत्स्थशक्ति से उतपन्न होकर यदि जीव माया को स्पर्श करता है तो माया उसे अपने पाश में बांध लेती है।जो श्रीकृष्ण से विमुख होता है वह जन्म मरण के चक्कर मे पड़ जाता है। तथा नष्ट होता रहता है। कभी कभी तर्क वितर्क भी करता है परंतु अंत मे उद्धार होना कठिन है। आत्मतत्व के ज्ञान बिना उद्धार नहीं क्योंकि उसके बिना जीव भक्ति प्राप्त नहीं करना चाहता। अनन्त योनियों में भृमण करते करते जब सौभाग्य से किसी भक्त का सँग प्राप्त करता है तब साधुसंग में भजन करते करते उसके हृदय के अनर्थ दूर होते हैं तब वह सुविमल निष्ठा को प्राप्त करता है।भजन करते करते निष्ठा रुचि , रुचि आसक्ति में परिवर्तित होती है । तदन्तर यह भाव से प्रेम के रूप में परिणत होता है।इसी क्रम से शुध्भक्ति की प्राप्ति होती है।

    श्रवण, कीर्तन , स्मरण,सेवा, अर्चन,प्रणाम , दास्य ,सख्य तथा आत्मनिवेदनम यह नवधा भक्ति भक्तों के आनुगतय में करता है तब उसे कृष्ण प्रेम की प्राप्ति होती है। आप बहुत सौभाग्यशाली राजा हो क्योंकि आपको नवद्वीप का वास प्राप्त हुआ है। अब आप साधु संग करके विषयों को त्याग दो तथा श्रीकृष्ण के गुणों के गान से उनकी निरन्तर भक्ति को प्राप्त करो।आने वाले समय मे यहां श्रीकृष्ण गौरसुन्दर के रूप में अवतार लेंगे तथा गौर रूप में ब्रजलीला प्रकाशित करेंगे।जो भी गौरनाम का उच्चारण करेगा उसे कृष्ण प्रेम की प्राप्ति होगी तथा वह ब्रज में वास करेगा।

   गौरनाम के आश्रय के बिना जो कोई श्रीकृष्ण का भजन करता है उसे प्रेम प्राप्ति बहुत दुर्लभ है। गौर नाम से श्रीकृष्ण रति अति सुलभ है।क्योंकि गौरनाम के उच्चारण से उसके सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। ऐसा कहते कहते श्रीनारद स्वयम प्रेमोन्मत होकर गौरहरि गौरहरि गायन कर नृत्य करने लगे। हे गौरहरि ऐसा धन्य कलियुग कब आएगा। नारद जी यह उपदेश देकर वहां से चले गए तथा भक्त सँग से राजा के हृदय में कृष्ण प्रेम उदित हो गया।उसकी सभी विषय वासनाएं दूर हो गयी तथा वह गौरांग गौरांग कहकर नाचने लगा। क्रमशः

जय निताई जय गौर

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