षष्ठ अध्याय 2

श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य

षष्ठ अध्याय 2

   पार्वती जी श्रीगौरसुन्दर से उनके प्रेम की प्राप्ति की अभिलाषा करती हैं।सभी कहते हैं कि जहाँ कृष्ण हैं वहां माया न रहेगी । यह सत्य है तो मैं तो हर समय बाहिर्मुख ही रहूंगी । मैं अति निराश हो रही हूं किस प्रकार आपके नित्य विलास के दर्शन कर पाऊँगी।कोई उपाय न मिलता देख अधीर पार्वती ने श्रीगौरसुन्दर की चरण रज को उठा अपने सीमन्त (मांग) में भर लिया तभी से यह सीमंतद्वीप या सिमुलिया हो गया।

   देवी पार्वती की विनय सुन गौरांग प्रभु ने कहा  --  तुम मेरी ही शक्ति हो। मेरी शक्ति के दो रूप हैं। स्वरूपशक्ति के रूप में तुम ही मेरी प्रिया श्रीराधा हो तथा बाहरी शक्ति के रूप में अपने इस रूप का विस्तार करती हो।तुम्हारे बिना मेरी लीला नहीं हो सकती। तुम मेरी लीलाओं में योगमाया का काम करती हो।ब्रज में तुम नित्य ही पौर्णमासी तथा नवद्वीप में प्रौढ़माया के रूप में क्षेत्रपाल शिव के साथ अवस्थान करती हो।इतना कहकर गौरसुन्दर अंतर्ध्यान हो गए तथा पार्वती का मन प्रेम में आविष्ट हो गया।इतना कहकर नित्यानंन्द प्रभु श्रीजीव के साथ काजी के नगर में पहुंचे।

    श्रीप्रभु ने कहा जीव सुनो यह काज़ी का नगर ही मथुरा है।यहां गौरांग महाप्रभु ने कीर्तन करते हुए काजी का उद्धार किया था तथा उसे अपना प्रेम प्रदान किया था। श्रीकृष्ण लीला में जो कंस था वही गौरलीला में चाँदकजी था।इसलिए महाप्रभु ने उसे मामा कहकर पुकारा तथा बाद में उसने गौरसुन्दर की शरण ली।एक बार कीर्तन के आरम्भ में काज़ी ने हुसैन शाह के बल में आकर कीर्तन करने वाले मृदंग तोड़ दिए। गौड़ देश का राजा हुसैन शाह ही ब्रज लीला में जरासंध है। महाप्रभु ने स्वप्न में उसे नरसिंह रूप दिखाया तो वह भयभीत हो गया।महाप्रभु ने उसे भी प्रेम देकर वैष्णव बना दिया। जो भी व्यक्ति इस काजी की कथा को सुनता है उसे अभेद निर्वाण की प्राप्ति होती है। श्रीनवद्वीप धाम में अपराधी व्यक्ति भी प्रेम प्राप्त करता है इसलिए गौरलीला ही सर्वोत्तम है। गौरनाम , गौरधाम , गौरलीला तथा गौर रूप अपराधों का विचार नहीं करते। यदि साधक के हृदय में अपराध रहते हैं तो कृष्णनाम तथा कृष्णधाम बहुत देर से उसका उद्धार करते हैं। गौर आश्रय से अति शीघ्र प्रेम प्राप्त होता है क्योंकि यहां अपराध का कोई विचार नहीं है। हे जीव तुम इस काजी की समाधि का दर्शन करो जिससे जीवों के सभी दुख द्वंद दूर हो जाते हैं।

   इसके पश्चात श्रीनित्यानन्द प्रभु प्रेम में विभोर हो गए तथा तेज़ी से शँखवानिक नामक स्थान पर पहुंच जीव से शरडांगा का दर्शन करने को कहे। यह शरडांगा नाम अपने आप मे बहुत ही मनोहर है।यहां पर भगवान जगन्नाथ शबर जाति के लोगों के साथ वास करते हैं। प्राचीन काल मे जब रक्तबाहु नामक दैत्य ने घोर अत्याचार किया तब जगन्नाथ अपने सेवकों के साथ यहां चले आये।यह स्थान पुरी से अभिन्न है तथा भगवान जगन्नाथ यहां वास करते हैं। इसके बाद श्रीजीव ने तन्तुवाय नामक ग्राम को पार किया तथा खोलबेचा श्रीधर आंगन के दर्शन किये।यहां पर गौरहरि ने कीर्तन करके भक्तों पर कृपा की तथा विश्राम किया था।इसलिए इसका नाम विश्राम धाम भी है। जीव अब तुम भी यहां विश्राम करो।

  श्रीधर प्रभु ने जब श्रीनित्यानन्द प्रभु के आगमन का समाचार सुना तो उनको साष्टांग प्रणाम करके पूजा करने लगे।बहुत प्रसन्न हो कहने लगे कि दास पर आपकी अनन्य कृपा है जो आप यहां विश्राम कर रहे हो। तब नित्यानंन्द प्रभु ने कहा तुम बहुत सौभग्यशाली हो जो गौरहरि ने स्वयम तुमपर कृपा की है।इसके उपरांत उन्होंने वहां विश्राम किया।श्रीधर ने बहुत ही प्रेम पूर्वक सेवा सामग्री जुटाई तथा भक्त ब्राह्मणों द्वारा रसोई करवाई।श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीवास पंडित के प्रसाद ग्रहण करने उपरांत श्रीजीव ने प्रसाद ग्रहण किया। इसके पश्चात श्रीनित्यानन्द प्रभु को पलंग पर सुलाकर श्रीधर परिवार सहित उनकी चरण सेवा करने लगा।दोपहर के समय श्रीवास पंडित ने श्रीजीव को षष्टितीर्थ के दरश करवाये।श्रीवास पंडित कहने लगे देवताओं ने जब सुना श्रीगौरसुन्दर अवतरित होने वाले हैं तब विश्वकर्मा को नदिया नगर में भेजा। महाप्रभु जिस स्थान पर संकीर्तन करते हुए जाएंगे तो भक्तो को कोई असुविधा न हो इसलिए एक रात में बड़े बड़े सात कुंड तयार कर दिए। अंतिम कुंड काज़ी के गावँ में बनाया।उनमे से एक कुंड अभी भी श्रीधर के केले के बगीचे के निकट है। इस सरोवर में केलि करते हुए महाप्रभु कभी कभी श्रीधर के केले उठा लिया करते थे। आज भी श्रीधर उल्लासपूर्वक शचिमाता को मोचा तथा थोड़ ( केले के पेड़ के भाग) देकर आते है। निकट ही म्यामारी नामक स्थान का दर्शन करो। इसके सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा श्रवण करो। एक समय बलदेव प्रभु तीर्थ यात्रा करते हुए नवद्वीप पहुंचे।यहां आकर विश्राम करते हुए यहां के वासियों ने उनको मायासुर दैत्य के विषय मे बताया।मायासुर के उपद्रव सुनकर हलधर ने तुरंत ही उसे मैदान में पकड़ लिया। उसने हलधर श्रीबलराम के साथ युद्ध किया तथा मृत्यु को प्राप्त हुआ। तभी से इस स्थान का नाम म्यामारी है।भाग्यशाली जीवों के समक्ष यह स्थान ब्रज के तालवन के रूप में प्रकट होता है।रात्रि को सबने वहीं विश्राम किया तथा सुबह सब लोग हरि हरि की नाम ध्वनि करते हुए बाहर आये।

  श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजाह्वा देवी के सुशीतल चरणकमलों का आश्रय प्राप्त करने हेतु श्रील भक्तिविनोद ठाकुर द्वारा नदिया का गुणगान किया जा रहा है।

षष्ठ अध्याय समाप्त।

जय निताई जय गौर

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