एकादश अध्याय 2

श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य

एकादश अध्याय 2

भीमसैन अत्यधिक क्रंदन करते हुए कहने लगे हे दयामय! पांडवों के लिए लज्जित होने वाली बात होगी । उस समय वहां एक अद्भुत घटना हुई जिसे समुद्रसेन के बिना कोई और न देख स्का। समुद्रसेन ने देखा कि किशोर अवस्था वाले श्रीकृष्ण की अंगकान्ति घने बादलों के समान है। उनके गले मे वनमाला मुक्ता की भांति देदीप्यमान हो रही है। उनके सभी अंगों में दिव्य अलंकार सुशोभित हैं। उन्होंने पीताम्बर धारण कर रखा है तथा उनकी देह का गठन अपूर्व सुंदर है। उनके रूप के दर्शन से राजा प्रेमावेश में आकर मूर्छित हो गिर पड़ा। चेतना लौटने पर मन ही मन प्रार्थना करने लगा कि हे श्रीकृष्ण ! आप अति पावन श्रीजगन्नाथ हैं आप मुझ पतित को दर्शन दे रहे हैं। जगत के लोग आपकी पावन लीलाओं का गान करते हैं तो मेरे मन में भी आपके दर्शन की लालसा जाग्रत हुई है। इस नवद्वीप को छोड़ मेरी कहीं भी जाने की इच्छा नहीं होती तथा आपके दर्शन हेतु व्याकुल होने के कारण मैंने यह व्रत लिया था कि यहीं आपका दर्शन करूंगा। आपने मुझे दर्शन देकर मेरे व्रत की रक्षा की है।मेरी गूढ़ इच्छा है कि आप मुझे गौरांग महाप्रभु के रूप में यहां दर्शन दें।

    देखते ही देखते राजा ने अपने सन्मुखराधाकृष्ण की लीलाओं के अतुलनीय माधुर्य का दर्शन किया।उसने देखा कि श्रीकृष्ण गौचारण करते समय दोपहर में श्रीकुमुदवन में सखियों के साथ लीला कर रहे थे। थोड़ी देर बाद वह लीला अंतर्ध्यान हो गयी तथा उसी स्थान पर राजा को महाप्रभु जी ने पार्षदों के संग दर्शन दिए। महाप्रभु अपने पार्षदों के साथ संकीर्तन में रत्त थे तथा नृत्य कर रहे थे।उनकी उज्ज्वल स्वर्णिम अंगकान्ति मन को आकर्षित करने वाली , नेत्रों को मत्त बनाने वाली तथा हृदय में उथल पुथल मचा देने वाली थी। श्रीगौरांग प्रभु के दर्शन कर राजा अपने आपको धन्य मानने लगे तथा उनके चरणकमलों में अनेक प्रकार के स्तव स्तुति करने लगे।थोड़ी देर बाद वह लीला भी अदृश्य हो गयी तथा राजा रुदन करने लगा।

   श्रीभीमसेन को तो राजा रोता हुआ दिखाई दिया तो उन्होंने सोचा यह युद्ध से भयभीत हो गया है। ऐसा विचार कर भीमसेन और बल दिखाने लगा। राजा ने संतुष्ट होकर उससे कर स्वीकार करने की प्रार्थना की। भीमसेन कर लेकर दूसरे स्थान पर चले गए तथाजगत में भीमसेन दिग्विजयी हैं यह कहकर उनका गुणगान करने लगे। श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा हे जीव ऐसी दिव्य लीला जिस स्थान पर हुई है वही समुद्रगढ़ है। यह नवद्वीप की दक्षिण सीमा पर स्थित है। ब्रह्मा भी इस स्थान के माहात्म्य को नहीं जानते है।समुद्र यहां आकर श्रीजाह्वा देवी का आश्रय लेकर महाप्रभु जी की भक्ति करता है। एक दिन जान्हवी ने समुद्र से कहा हे सिंधु बहुत थोड़े ही दिन में महाप्रभु तुम्हारे तट पर पुरी में वास करेंगे।समुद्र ने कहा हे देवी मेरी बात सुनो। श्रीगौरसुन्दर नवद्वीप को छोड़ कहीं नहीं जाते। यधपि वे कुछ समय मेरे तट पर रहेंगे परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से सदा नवद्वीप में ही रहते हैं। यह उनका नित्यधाम है। वेद उनकी प्रकट तथा अप्रकट लीलाओं का गायन करते हैं। मैं यहां आपके आश्रय में रहकर नवद्वीप में श्रीगौरहरि की सेवा करूंगा। इतना कहकर वह हर समय गौर लीलाओं का दर्शन करने लगा। समुद्रगढ़ से श्रीनित्यानन्द प्रभु चंपकहट्ट में उपस्थित हुए। वहां द्विजवाणी नाथ के घर विश्राम करने लगे। दोपहर के समय मे उन्होंने कहा हे वल्लभनन्दन(जीव)  यहां पहले चंपक पुष्पों का एक वन था। यह स्थान ब्रज स्थित खडीरवन का अंश है तथा देखने मे बहुत सुंदर है। चम्पकलता सखी यहीं से नित्य चंपक पुष्प चयन करके माला गूंथती थी तथा राधाकृष्ण की सेवा करती थी। कलियुग की वृद्धि होने पर माली लोग इस वन से अत्यधिक प्रसन्नता पूर्वक चंपक पुष्प एकत्र किया करते थे। यहीं पर यह लोग हट्ट बनाकर पुष्पों को बेचने लगे तथा ग्रामवासी उनसे पुष्प खरीदने लगे।तभी से इस स्थान का नाम चंपक हट्ट हो गया।जिस समय लक्ष्मनसैंण नदिया के राजा थे उस समय कविकुल शिरोमणि श्रीजयदेव नवद्वीप में उनकी प्रजा के रूप में रहते थे। बल्लालदीर्घिका के पास कुटी बनाकर वह अपनी पत्नी के साथ वहां रहते थे। वहीं पर उन्होंने दशावतार नामक ग्रंथ की रचना की । किसी समय उनके द्वारा रचित स्तव राजा के हाथ मे पहुंचा। राजा उसका पाठ कर अतिआनन्दित हुआ तथा मंत्रियों से पूछा कि यह रचना किसकी है। सभा मे उपस्थित श्रीगोवर्धन आचार्य ने राजा से कहा कि महाकवि जयदेव इसके रचयिता है। राजा के पूछने पर पता चला कि वह नवद्वीप में रहते हैं।ऐसा जानकर राजा ने गुप्त रूप से उनका पता लगाया तथा वैष्णव का भेष धारण कर उनकी कुटिया में जाकर एक तरफ बैठ गया। जयदेव जान गए कि राजा ही इस अकिंचन वेश में यहां पधारे हैं। थोड़ी देर में राजा ने अपना परिचय दिया तथा उन्हें राजभवन में साथ चलने को कहा। क्रमशः

जय निताई जय गौर

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