अष्टादश अध्याय 1

श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य

अष्टादश अध्याय 1

श्रीगौरसुन्दर की जय हो ! जय हो ! श्रीजाह्वा देवी के जीवन स्वरूप पद्मवतीनंदन श्रीनित्यानन्द प्रभु की जय हो! जय हो ! सीतापति श्रीअद्वैताचार्य की जय हो ! जय हो ! श्रीगदाधर पंडित की जय हो ! जय हो ! श्रीवास आदि गौर परिकरों की जय हो ! जय हो !

  श्रीजीव के इस प्रश्न को सुनकर श्रीनित्यानन्द प्रभु ने वैष्णवसभा में निगूढ़ तत्व का रहस्य बताया। जीव असीम आनन्दमय श्रीवृन्दावन तथा श्रीनवद्वीपधाम जीवों के विश्राम स्थल हैं। शुद्ध जीव जड़ प्रकृति के उस पार श्रीकृष्ण परिवार के रूप में वास करते हैं। यह धाम नित्य शुद्ध तथा चिन्मय है। यहां पर देश काल का कोई प्रभाव नहीं है। इस धाम में भूमि, काल तथा अन्य सभी वस्तुएं चिन्मय हैं। यहां पर सदैव चित्तधर्म देखा जाता है। यहां के घर, नदी, झरने, वन, उपवन, लीलाभूमि आदि सब चिन्मय तथा परम् मनोहर हैँ। जीवों का उद्धार करने की श्रीकृष्ण की इच्छा को जानकर ही वह अचिन्त्य शक्ति उस धाम को जगत में प्रकाशित करती है। इस धाम में किसी जडवस्तु तथा जड़जीव का कोई प्रवेश नहीं है। जड़माया अपने जाल के द्वारा इस धाम को ढककर रखती है। जिसका श्रीकृष्णचैतन्य से कोई सम्बन्ध नहीं है वह इस जड़जाल के ऊपर ही वास करता है।वह व्यक्ति माया के प्रभाव से अंधा ही रहता है तथा इस दिव्य धाम के दर्शन नहीं कर सकता।

यधपि वह मन ही मन चिंतन करता है कि मैं श्रीनवद्वीपधाम में वास कर रहा हूँ, किंतु वास्तव में प्रौढामाया उसे चिन्मय धाम से दूर ही रखती है। यदि सौभाग्य से किसी व्यक्ति को साधुसंग की प्राप्ति होती है , तब उसे श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु के साथ अपने सम्बन्ध की अनुभूति होती है। हे वल्लभनन्दन सम्बन्धज्ञान एक गूढ़ तत्व है। बद्धजीव इस तत्व को नहीं समझ सकते। यधपि अनेकों लोग मुख ही मुख से कहते हैं कि श्रीकृष्णचैतन्य ही मेरे प्रभु हैं , तथापि उनका हृदय सम्बन्धज्ञान की गंध से शून्य सदैव माया में विभोर रहता है।

   यधपि ऐसे लोग माया के जाल पर बैठे रहने के कारण कभी प्रभु की शुद्ध भक्ति को प्राप्त नहीं कर पाते , तथापि धर्मध्वजी  स्वयम को पाखंडी, कपटी, दैन्य से रहित होने के कारण स्वयम को श्रेष्ठ समझता है। धर्मधवजी से अभिप्राय जो व्यक्ति वास्तव में धार्मिक नहीं है , किंतु दूसरों की वंचना करने हेतु अपने को धार्मिक कहकर प्रचार करता है। एकमात्र साधु कृपा से ही ऐसा व्यक्ति अंहकार को त्यागकर अपने को तृण से अधिक दीन हीन मानने लगता है। वह अपने सम्मान की आशा त्याग दूसरे को सम्मान देने लगता है। जब वह इन गुणों में गुणी होकर सदैव कृष्ण का गुणगान करता है तब कहीं जाकर उसके हृदय में चैतन्य महाप्रभु से अपना नित्य सम्बन्ध स्फुरित होता है। शांत, दास्य, सख्य,वात्सल्य तथा माधुर्य इन पांच रसों द्वारा जीव का कृष्ण से सम्बन्ध होता है। शांत तथा दास्यभाव से गौरांग प्रभु का भजन करने से श्रीकृष्ण के प्रति वात्सल्य आदि रसों की प्राप्ति होती है। जिस जीव का भगवान के साथ जो सम्बन्ध होता है वही भाव उसके हृदय से स्फुरित होता है। श्रीगौरसुन्दर तथा श्रीकृष्ण में भेद करने वाले को कभी श्रीकृष्ण से अपना नित्य सम्बन्ध स्फुरित नहीं होता। किंतु साधुसंग के फलस्वरूप जिसमे दीनता आदि गुण स्फुरित होते हैं , वही जीव दासयरस सड़ गौरहरि का भजन करता है। श्रीगौरभजन में दासयरस की पराकाष्ठा है। इसके कारण ही भक्त गौरहरि को महाप्रभु के नाम से पुकारते हैं। मधुरप्रेम में जिसका अधिकार होता है वह श्रीगौरहरि का श्रीराधाकृष्ण के रूप में भजन करता है। श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण का मिलित स्वरूप ही श्रीगौरांग महाप्रभु हैं। युगल विलास में श्रीराधा तथा श्रीकृष्ण का ऐक्य रूप से भजन अच्छा नहीं लगता ईसलिये गौरहरि दो रूप धारण करते हैं।श्रीमहाप्रभु जी का दास्य रस से भजन करते हुए जब वह परिपक्व हो जाता है तब जीव का हृदय में मधुर रस मूर्तिमान स्वरूप में प्रकाशित होता है।

  उस समय भजनीय तत्व श्रीगौरसुन्दर श्रीराधाकृष्ण के रूप में ब्रज में अवतरित होते हैं। भक्त को नित्यलीला के रस में डुबो देते हैं। तब जीव श्रीराधाकृष्ण की लीलाभूमि ब्रज को प्राप्त करता है। क्रमशः

जय निताई जय गौर

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