पँचदश अध्याय 1

श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य

पँचदश अध्याय 1

पंचतत्व सहित श्रीगौरसुन्दर की जय हो ! जय हो! श्रीगौरसुन्दर के निवास श्रीनवद्वीप धाम की जय हो! जय हो !श्रीवैकुंठपुर में पहुंचकर श्रीनित्यानन्द प्रभु ने मुस्कुराते हुए कहा हे जीव निश्चित रूप से यह जानो की आठ दल वाले नवद्वीप की उत्तरी सीमा पर स्थित यह वैकुंठपुरी है। भगवान नारायण का स्थान श्रीवैकुंठ विरजा के उस पार परव्योम में स्थित है। वैकुंठ में श्री, भू तथा लीला नाम की तीन शक्तियां भगवान श्रीनारायण की सेवा करती हैं। वहां माया किसी भी प्रकार से प्रवेश नहीं कर सकती। चिन्मय भूमि श्रीवैकुंठ लोक की किरण ही ब्रह्मा है। जड़ नेत्रों से लोग इस वैकुंठपुर को जड़ स्थान के रूप में ही देख पाते हैं। इस वैकुंठ पुर में श्रीनारद जी ने अपने चिन्मय नेत्रों से पहले नित्य निरंजन भगवान श्रीनारायण के दर्शन किये थे। तदुपरांत नारद ने बहुत दिन तक यहां वास किया था । इस स्थान से सम्बंधित एक बहुत पुराना उपाख्यान है। इस बार श्रीलक्ष्मण आचार्य जगन्नाथ पुरी में आये। उन्होंने अनेक स्तव पाठ कर जगन्नाथ जी को प्रसन्न किया तथा जगन्नाथ जी ने प्रसन्न होकर उनको दर्शन दिया। श्रीजगन्नाथ जी ने कहा -- हे रामानुज तुम नवद्वीप धाम जाकर दर्शन करो। मैं थोड़े ही दिन में नदिया में जगन्नाथ मिश्र के घर जन्म लूंगा। श्रीनवद्वीप मेरा बहुत ही प्रिय स्थान है। परव्योम तो उसके एक ही भाग में स्थित है। तुम मेरे नित्यदास तथा भक्तो में प्रधान हो। तुम अवश्य ही श्रीनवद्वीप का दर्शन करो। तुम्हारे सभी शिष्य दास्य रस में निमग्न हैं । तुमिस सबको छोड़ अकेले ही वहां जाओ। हे रामानुज मानव का जन्म प्राप्त करके भी जो श्रीनवद्वीप का दर्शन नहीं करता उसका जन्म लेना व्यर्थ है। श्रीरंगम , श्रीवेंक्ट तथा यादव अचल यह सभी तीर्थ श्रीनवद्वीप का कला मात्र हैं अर्थात अंश मात्र हैं।अतएव हे केशवनन्दन नवद्वीप जाकर गौरांग महाप्रभु का दर्शन करो। इसके पश्चात तुम कूर्मस्थान चले जाना। वहां पर तुम्हारा अपने शिष्यों से पुनः मिलन होगा। इतना सुनकर श्रीलक्ष्मण आचार्य ने हाथ जोड़ जगन्नाथ प्रभु से निवेदन किया। हे प्रभु आपकी कृपा से ही पहली बार आपके मुख से श्रीगौरहरि के विषय मे सुना । परन्तु मैं उनके बारे में कुछ भी नहीं जानता।

   श्रीरामानुज के प्रति कृपा करके जगदबन्धु जगन्नाथ ने कहा सभी जानते हैं कि श्रीकृष्ण गोलोक के नाथ हैं तथा भगवान श्रीनारायण उनके विलास की मूर्ति हैं। श्रीकृष्ण ही परमतत्व हैं जो श्रीधाम वृन्दावन में वास करते हैं। हे रामानुज वह श्रीकृष्ण ही पूर्ण रूप में नित्य श्रीगौरहरि हैं तथा वही नवद्वीप ही श्रीवृन्दावन है। जगत के अन्य सभी धामों से श्रेष्ठ गौरसुन्दर रूप में मैं ही वास करता हूँ। यधपि मेरी कृपा से यह धाम इस भूमण्डल पर स्थित है , तथापि शास्त्र वर्णन करते हैं कि यहां माया का प्रवेश नहीं है।  

    यदि कोई विचार करे कि इस भूमण्डल पर स्थित होने के कारण श्रीनवद्वीप हीन है तो उसकी भक्ति दिन प्रतिदिन क्षीण होती जाएगी। मेरी इच्छा से ही मेरी अचिन्त्यशक्ति ने उस दिव्य धाम को इस जड़ जगत में लाकर रखा है।युक्ति से अतीत तत्व केवल शास्त्र अध्यन्न से प्राप्त नहीं होते। मेरी कृपा से ही केवल मेरे भक्त इसे जान पाते हैं।भगवान जगन्नाथ के वचन सुनकर दृढ़ तथा शांत स्वभाव वाले रामानुज श्रीगौरहरि के प्रेम में अस्थिर होकर कहने लगे। प्रभु आपकी लीलाएं बहुत आश्चर्यजनक है। आपके वैभव को वेदशास्त्र भी नहीं जानते हैं। मैं चिंता कर रहा था कि शास्त्रों में स्पष्ट रूप से श्रीगौरहरि की लीलाओं का वर्णन क्यों नहीं किया गया है। किंतु जब मैंने सूक्ष्म रूप से श्रुति तथा पुराण पर विचार किया , तब कहीं जाकर गौरतत्व मेरे हृदय में स्फुरित हुआ।अब आपकी आज्ञा रूपी उपदेश से मेरे सारे संशय दूर हो गए हैं। मेरे हृदय में गौरलीला रस का आविर्भूत हुआ है। यदि आपकी आज्ञा हो तो नवद्वीप जाकर मैं तीनों लोकों में गौर लीला का प्रचार करूँ।गूढ़ शास्त्रों को व्यक्त करके श्रीगौरसुन्दर के विषय मे लिखे प्रमाणों को प्रकाशित करके त्रिभुवन में सबको गौरहरि का भक्त बना दूँ। रामानुज के ऐसे आग्रह को देख जगन्नाथ प्रभु बोले अभी ऐसी बातें मत करो। श्रीगौरहरि तत्व को अति गूढ़ रूप में अपने तक ही रखो। महाप्रभु जी की लीला प्रकट होने पर सभी तथ्य अपने आप प्रकाशित हो जाएंगे। तुम मेरे ही दास्य रस का प्रचार करो तथा भीतर ही गौरसुन्दर का भजन करो। श्रीजगन्नाथ जी से आज्ञा प्राप्त करके रामानुज जी गुप्त रूप से श्रीनवद्वीप आ गए। रामानुज को नवद्वीप आया देख श्रीविश्वसेन ने मन ही मन विचार किया कि कहीं रामानुज भावाविष्ट होकर गौर लीला को समय से पहले ही व्यक्त करदे इसलिये वह रामानुज को श्रीवैकुंठपुर ले आये। इस स्थान को देख रामानुज मुग्ध हो गए। क्रमशः

जय निताई जय गौर

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