रस मुक्तावली
रस मुक्तावली
प्रथमहि श्रीगुरु के चरन, उर धरि करों विचार।
वैस वेष सखि भाव सों, अद्भुत रूप निहारि।। १।।
एती मति मोपै कहाँ, सिंधु न सीप समाइ।
रसिक अन्नयनि कृपा बल, जो कछु बरनयो जाइ।।२।।
रसिक अन्नयनि कृपा मनाऊँ। वृन्दावन रस कछु इक गाऊँ।। ३।।
जोजन पंच विहार स्थाना।
श्रीपति ,श्री सों कह्यो प्रमाना।। ४।।
रतन खचित कंचन की अवनी।
झलकि रही सोभा अति क्वनी।।५।।
कुंदन बेलि द्रुमनि लपटानी।
मुक्तनि लता भरी छबि पानी।। ६।।
जगमगात है सब वन ऐसे।
दामिनि कोटि लसत घन जैसें।।७।।
राजत हंस सुता छबि न्यारी।
रसपति रस की मनों पनारी।। ८।।
बहु विधि रँग कमल कल कूले।
आनन्द फूल जहाँ तहाँ फूले ।।९।।
भ्र्मत मधुप सौरभ रस माते।
पंछी सबे गान गुन राते ।। १०।।
कोकिल कीर कपोत रसाला।
छवि सों निर्त्तत मोर मराला।।११।।
जेहि बन को शिव श्री पति गावें।
मन प्रवेश तहाँ कैसे पावें ।। १२।।
अगम अगाध सबनितें न्यारो।
प्रेम खेल तेहि ठाँ विस्तारो।। १३।।
प्रेम रासि दोउ रसिक वर, रूप रंग रस ऐंन ।
मैन खेल खेलत तहाँ, नहिं जानत दिन रैन।। १४।।
मंडल मनिमय अधिक विराजै।
निरखत कोटि भान ससि लाजे।।१५।।
तापर कमल सुदेस सुवासा।
षोडस दल राजत चहुँ पासा।। १६।।
मध्य किसोर किसोरी सोहें।
दल दल प्रति सहचरी छबि जोहें।।१७।।
अति सरूप मोहन सुकुंवारा।
रँगे परस्पर प्रेम अपारा ।। १८।।
रसिकानंन्द रसिकिनी सँगा।
विलसत है नव केलि अनंगा ।। १९।।
एक वैस रूचि एकै प्राना।
जीवन अधर सुधा रस पाना।। २०।।
अद्भुत रसनिधि जुगल विहारा।
सब सखियन के यहै अहारा।।२१।।
अष्ट सखी मनों मूरति हित की।
अति प्रवीन सेवा करें चितकी।।२२।।
आठ आठ सहचरी तिन संगा।
रँगी निरन्तर तिहि सुख रँगा।।२३।।
नाम वरन सेवा बसन, जैसे सुने पुरान।
ते सब ब्यौरे सों कहों, अपनी मति अनुमान।।२४।।
ललिता परम चतुर सब बातनि।
जानति है निज नेह की घातनि।।२५।।
पाननिं बीरी रुचिर बनावै।
रूचि ले रचि रचि रूचि सों ख्वावे।।२६।।
मुख सों वचन सोई तो काढ़े।
जातें दुहुँ में अति रूचि बाढ़े।। २७।।
गोरोचन सम तन प्रभा, अद्भुत कही न जाइ।
मोर पिच्छ की भाँति के, पहिरे बसन बनाइ।।२८।।
रतन प्रभा अरु रति कला, सुभा निपुन सब अंग।
कलहंसीरु क्लापनी, भद्र सौरभा सँग।। २९।।
मन्मथ मोदा मोद सों, सुमुखी है सुख रास।
निसि दिन ये आठों सखी , रहें ललिता के पास।।३०।।
सखी विसाखा अति ही प्यारी।
कबहुँ न होति सँग ते न्यारी।।३१।।
बहु बिधि रँग बसन जो भावै।
हित सों चुनि के लै पहिरावै।।३२।।
ज्यों छाया ऐसों सँग रहही।
हित की बात कुँवरि सों कहही।।३३।।
दामिनि सत दुति देह की, अधिक प्रिया सों हेत।
तारा मंडल ते बसन, पहिरें अति सुख देत।। ३४।।
माध्वी , मालती, कुंजरी, हरिनी, चपला नैन।
गंघ रेखा , सुभ आनना, सौरभी कहें मृदु बैन।।३५।।
चम्पकलता चतुर सब जाने।
बहुत भाँति के बिंजन बाने।।३६।।
जेहि जेहि छिन जैसी रूचि पावै।
तैसे बिंजन तुरन्त बनावै।। ३७।।
चम्पकलता चंपक बरन, उपमा कों रह्यो जोहि।
नीलाम्बर दियो लाड़िली,तन पर रह्यो अति सोहि।।३८।।
कुरंगाछी , मनि कुंडला, चंद्रिका अति सुख दैन।
सखी सुचरिता, मंडनी, चंद्रलता रति ऐंन।।३९।।
राजत सखी सुमंदिरा, कटि काछिनी समेत।
बिबिध भाँति बिंजन करे, नवल जुगल के हेत।।४०।।
चित्रा सखी दुहुनीं मन भावै।
जल सुगंध ले आनि पिवावे।।४१।।
जहाँ लगि रस पीवे के आहीं।
मेलि सुगंध बनावै ताहीं।।४२।।
जिहिं छिन जैसी रूचि पहिचाने।
तबही आनि करावती पाने।।४३।।
कुंकुम कों सो बरन तन, कनक बसन परिधान।
रूप चतुरई कहा कहों, नाहिंन कोउ समान।।४४।।
सखी रसालिका, तिलकनी, अरु सुगन्धिका नाम।
सौर सैन अरु नागरी, रामलिका अभिराम।।४५।।
नाग बेनिका नागरी, भरी सबे सुख रँग।
हित सों ये सेवा करें, श्रीचित्रा के सँग।।४६।।
तुंगविद्या सब विद्या माँही।
अति प्रवीन नीके अवगाही।।४७।।
जहाँ लगि बाजे सबे बजावै।
राग रागिनी प्रकट दिखावे।।४८।।
गुन की अवधि कहत नहिं आवै।
छिन छिन लाडली लाल लड़ावे।।४९।।
गौर बरन छबि हरन मन, पंडुर बसन अनूप।
कैसे बरनयौ जात है, यह रसना करि रूप।।५०।।
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