भाग 3 प्रथम अध्याय

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

                 3

          *अध्याय 1*

*बद्ध तथा बाहिर्मुख जीव*

इनके अलवा जिन जीवों ने अपने सुख की भावना से भगवान के पीछे रहने वाली माया को वरण किया अर्थात अपने सुख के लिए जिन्होंने माया के भोगों की कामना की वे सभी जीव नित्य काल के लिए श्रीकृष्ण से विमुख हो गए तथा उन्होंने माया के इस देवी धाम में माया के द्वारा बना शरीर प्राप्त किया । अब यहां वे भगवान से विमुख जीव पाप पुण्य रूपी कर्म के चक्र में पड़कर स्थूल व सूक्ष्म धारण करके इस संसार मे भटक रहे हैं । वे कभी स्वर्ग आदि लोकों में तो कभी नरक की प्राप्ति करते हुए चौरासी लाख योनियों को भोगते हुए भटकते रहते हैं।

  *तब भी श्रीकृष्ण की दया*

श्रीहरिदास ठाकुर जी भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी को कहते हैं कि हे प्रभु ! मेरा ऐसा विश्वास है कि आप विभु हो और ये जीव आपका ही वैभव है। ये आपके नित्यदास हैं। अपने दास के मंगल की चिंता करना आपका स्वभाव है।आपके दास अपने सुख की खोज करते हुए आपसे जो कुछ भी मांगते हैं, आप कल्पतरु की भांति अपनी कृपा रूपी बरसात को बरसाते हुए , उसे प्रदान करते रहते हो।

  *प्राकृत शुभकर्म कर्मकाण्ड*

माया के वैभव में फंसकर जीव जिस प्रकार का भी अनित्य सुख चाहता है, आपकी कृपा से वह उसे अनायास ही पा लेता है। उसी सुख को प्राप्त करने के लिए ही धर्म कर्म , यज्ञ, योग, होम व व्रत इत्यादि शुभ कर्म बनाये गए हैं। ये सभी शुभ कर्म सदा ही जडमय रहते हैं । चिन्मय प्रकृति इन सबसे कभी नहीं मिलती।इन शुभ कर्मों को करने से दुनियावी नाशवान फल ही प्राप्त होते हैं। इनसे तो स्वर्ग आदि उच्च लोक तथा सांसारिक भोगों से मिलने वाला सुख ही मिलता है। आत्मा की शांति इनसे नहीं मिलती। इन सबका प्रयास करना ही अतिशय भ्रान्तिमय है। इन सब अनित्य कर्मों से अनित्य सुख ही मिलते हैं।

*इस अवस्था से उद्धार का उपाय*

सौभाग्यवश यदि कोई जीव साधु सँग प्राप्त करके यह जान लेता है कि वह भगवान श्रीकृष्ण का दास है तो इस महान ज्ञान को प्राप्त करके माया से पार हो जाता है। तुच्छ कर्मकांड में यह सब ज्ञान नहीं बताया गया है।

*ज्ञानकाण्ड ब्रह्मालय सुख*

इनके अलावा जो जीव माया के संसार को यन्त्रणामय जानते हैं और इससे बचने के लिए मुक्ति को प्राप्त करने का यत्न करते हैं, ऐसे जीवों को ज्ञानी जीव कहा जाता है। ऐसे लोगों के लिए आपने दयामय होकर ही ज्ञानकाण्ड नामक ब्रह्मविद्या प्रदान की है। उसी मायावाद रूपी विद्या को आश्रय करके इस संसार से मुक्त होकर जीव ब्रह्मा में लीन हो जाता है।

   *ब्रह्मा क्या वस्तु है*

श्रीहरीदास ठाकुर जी कहते हैं --हे गौरहरि वह ब्रह्मा आपके अंगों की कांति है, जो कि ज्योतिर्मय है। विरजा नदी के उस पार जो ज्योतिर्मय ब्रह्मा धाम है , उसमे ब्रह्मज्ञानी लीन हो जाते हैं। जिनके अलावा असुरों का भगवान विष्णु अपने हाथों से संहार करते हैं वे सब असुर भी माया से पार होकर उसी ब्रह्म में लीन हो जाते हैं।

*श्रीकृष्ण बहिर्मुख जीव*

वैसे देखा जाए तो कर्मी और ज्ञानी दोनो ही श्रीकृष्ण से बहिर्मुख हैं। ये जीव कभी भी श्रीकृष्ण की दासता को अर्थात श्रीकृष्ण की सेवा के सुख का आस्वादन नहीं कर सकते।

*भक्ति उन्मुखी सुकृति*

कर्मोंमुखी, ज्ञानोन्मुखी व भक्ति उन्मुखी -ये तीन प्रकार की सुकृतियाँ होती हैं। जिनमे भक्ति उन्मुखी सुकृति ही प्रधान है, जिसके फलस्वरूप जीव साधु भक्तों की संगति प्राप्त करता है। श्रद्धावान होकर जब कोई श्रीकृष्ण के भक्तों का सँग करे तब उस जीव की साधु सँग के प्रभाव से हरिनाम में रुचि उतपन्न हो जाती है तथा साथ ही उसके हृदय में जीवों के प्रति दयाभाव उमड़ पड़ता है। इस प्रकार साधु सँग के फल से उस श्रद्धावान जीव को भक्ति पथ की प्राप्ति व इस सुंदर कल्याणकारी पथ पर चलने का सौभाग्य प्राप्त होता है।

*कर्मी और ज्ञानी के प्रति कृपा से गौण भक्ति पथ का विधान*

भगवान श्रीकृष्ण चैतन्य देव जी को हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे गौरहरि ! आप दया के सागर हो और जीवों के ईश्वर हो। कर्मी , ज्ञानी तथा भगवान से विमुख जीवों के उद्धार के लिए भी आप ततपर रहते हो। कर्म मार्ग तथा ज्ञान मार्ग पर चलने वाले जीव का भी उद्धार करने का यत्न करते रहते हो। उस पथ के पथिकों के मंगल की चिंता करते हुए आपने एक गौण भक्ति का मार्ग भी बना रखा है।

*कर्मियों के पक्ष में कर्म का गौण भक्ति मार्ग*

अपने अपने ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्ण व ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि धर्मों का पालन करते हुए कर्मी व्यक्ति भी भगवाम को प्रसन्न करता है क्योंकि वर्णाश्रम धर्मों को पालन करने का विधान भी भगवान श्रीहरि ने बताया है। अपने इन्हीं कार्यों को निष्काम भाव से करने से उसे सुकृति व उसके फलस्वरूप उसे सच्चे साधु का सँग प्राप्त होता है। वर्णाश्रम धर्म का पालन करने वाले कर्म मार्ग के पथिक का आप हृदय शोधन कर देते हैं जिससे उसके अंदर पुण्य आदि करने की व फल से मिलने वाले स्वर्गादि को प्राप्त करने की प्रवृति खत्म हो जाती है और उस स्थान पर श्रद्धा का बीज आरोपित हो जाता है।

*ज्ञानी का गौण भक्ति पथ*

इसी प्रकार ज्ञानी व्यक्ति ज्ञान मार्ग पर चलते हुए अपनी सुकृति के प्रभाव से तथा भक्तों की कृपा से अनन्य भक्ति पथ पर आ जाता है। साधु सँग के प्रभाव से उस ज्ञानी व्यक्ति की अनन्य भक्ति में अनायास ही श्रद्धा हो जाती है।श्रीचैतन्य महाप्रभु जी हरिदास ठाकुर जी से कहते हैं कि हरिदास , तुम ही तो बोलते हो कि मेरा दास मुझे भूलकर माया की दुर्गति में पड़कर अन्य तुच्छ फलों की आशा करता है, परन्तु मैं जानता हूँ कि उसका सुमंगल कैसे होगा। ईसलिये मैं उसकी भोग व मुक्ति की इच्छा छुड़वा कर उसको भक्ति का फल प्रदान करता हूँ।

*गौण पथ की प्रक्रिया*

हे गौरहरि ! आप बड़े दयालु हो । आप जीव की कामना के अनुसार उसे चलाते हुए भी किसी न किसी तरह से भक्ति के मार्ग में उसकी श्रद्धा उतपन्न कर देते हो। हे प्रभो! आप कृपामय हो, आपकी कृपा के बिना जीव कैसे शुद्ध हो सकता है।

*कलियुग में गौणपथ की दुर्दशा*

सतयुग में ध्यान योग के द्वारा आपने न जाने कितने ऋषियों को शुद्ध करके अपनी भक्ति प्रदान की। त्रेतायुग में यज्ञादि कर्मों द्वारा अनेक जीवों का शोधन किया तथा द्वापर में अर्चन मार्ग द्वारा बहुत से जीवों को आपने अपनी भक्ति प्रदान की।हे नाथ ! कलियुग के आगमन पर तो जीवों की बड़ी दुर्दशा हो गयी है। अभी देखा जाता है कि कर्म, ज्ञान तथा योग मार्ग के जीवों की दशा देखकर असहाय से हो गए हैं तथा इस प्रकार के जीवों का उद्धार होने का भरोसा खत्म हो गया है।इतना ही नहीं प्रभु इनकी आयु भी बहुत कम हो गयी है । वर्णाश्रम धर्म,सांख्य, ज्ञान , योग आदि साधनाएं कलियुग के जीवों का उद्धार करने में समर्थ नहीं।ज्ञान मार्ग तथा कर्म मार्ग का जो गौण भक्ति मार्ग है , वह इतना संकीर्ण है कि उस पर चलना असम्भव हो गया है।कहने का तातपर्य यह है कीजो निष्काम भाव से वर्णाश्रम धर्म के पालन वाली बात है उसमें बाधा यह है कि लोगों के मन मे इतनी विषय भोगों की वासना बढ़ गयी है कि वे निष्काम नहीं हो पा रहे हैं। ज्ञान मार्ग की बात जहां तक है , वहां यह समस्या है कि दुनिया मे वास्तविक साधु बहुत दुर्लभ हैं , चारों ओर धर्म ध्वजी कपटी साधुओं का बोल बाला है। इन सब समस्याओं को देखकर हे प्रभु !आपने इन सबसे अलग और सर्वोत्तम हरिनाम की साधना बताई है , क्योंकि हरिनाम में स्वयम भगवान श्रीहरि विराजते है । बड़े सौभाग्य से ही हरिनाम का यह विशेष महत्व समझा जाता है।

*हरिनाम संकीर्तन ही मुख्य पथ है*

नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी श्रीमन महाप्रभु जी से कहते हैं कि हे प्रभु ! आप जीवों के मंगल की चिंता करके इस कलियुग में हरिनाम रूप में स्वयम अवतरित हुए हो। आपने ही इस युग के युगधर्म श्रीहरिनाम संकीर्तन का प्रचार किया है। ये जीवों की आध्यात्मिक साधना का मुख पथ है , जिस पर चलकर जीव श्रीकृष्ण प्रेम रूपी महाधन को पा सकते हैं । नाम स्मरण तथा नाम संकीर्तन ही इस युग का एकमात्र धर्म है इसलिए कलियुग के जीव इसी का पालन करेंगे।

*साध्य साधन या उपाय उपेय में अभेदता होने पर हरिनाम की ही मुख्यता*

जो साधन है, वही अब साध्य भी है, इस उपाय और उपेय के बीच अब कोई अंतर न रहा अर्थात साध्य तथा साधन में कोई भेद न रहा इसलिये जीव अनायास ही आपकी कृपा से भवसागर से पार हो जाते हैं।

  मैं अति अधम हूँ, मैं विषयों में डूबकर अति मूढ़ से बन गया हूँ।यही कारण है कि मैंने आपका भजन नहीं किया । इस प्रकार बोलकर श्रीहरीदास ठाकुर जी नेत्रों से अश्रु बहाते हुए श्रीमन महाप्रभु जी के चरणों मे गिर पड़े।

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि भगवान के भक्तों की सेवा करना ही जिनका आनन्द है , अर्थात भक्तों की सेवा करने में ही जिनको आनन्द मिलता है ये हरिनाम चिंतामणि उन्हीं का जीवन स्वरूप है।

प्रथम अध्याय समाप्त

जय निताई जय गौर

Comments

Popular posts from this blog

शुद्ध भक्त चरण रेणु

श्री शिक्षा अष्टकम

श्री राधा 1008 नाम माला