पंचम अध्याय 2

श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य

पंचम अध्याय 2

  श्रीनित्यानन्द प्रभु श्रीजीव को सँग लेकर जगन्नाथ मिश्र के घर से बाहर निकल श्रीवास आंगन की ओर अग्रसर हुए। यह स्थान योगपीठ से दो सौ मीटर उत्तर की ओर है। आनंदातिरेक के कारण जीव श्रीवास आंगन की रज में लौटने लगे। महाप्रभु जी की बहुत सारी लीलाओं के स्फुरण से देह में प्रेम विकार उतपन्न होने लगे। सहसा उन्होंने देखा कि आंगन में महाप्रभु जी अपने अंतरंग भक्तों के संग नृत्य कर रहे हैं । श्रीजीव महासंकीर्तन के दर्शन से भाव विभोर होने लगे। श्रीअद्वैताचार्य , श्रीनित्यानन्द प्रभु नृत्य कर रहे थे तथा श्रीगदाधर पंडित तथा श्रीहरिदास ठाकुर नृत्य के साथ गा भी रहे थे। श्रीशुक्लाम्बर तथा अन्य भक्त नृत्य कर रहे थे। यह देख जीव प्रेमाविष्ट होकर मूर्छित हो गए। चेतनता प्राप्त होने पर उन्हें कुछ भी अच्छा न लग रहा था। वह रोते हुए कहने लगे हाय मेरा जन्म कुछ समय पहले क्यों नहीं हुआ। हाय हाय मेरे भाग्य में प्रभु की इस अंतरंग मंडली के साथ नृत्य करना नहीं था।श्रीनिताई प्रभु की कृपा से मैं कुछ देर उस लीला के दर्शन का सौभाग्य पा सका हूँ।मेरी इच्छा यही की मैं चिरकाल तक मायापुर में वास करूँ ताकि माया के जंजाल से मुक्त रहूँ।मायापुर छोड़ने की बात से ही मेरा हृदय धड़कनें लगा है तथापि दास की इच्छा से प्रभु की आज्ञा बलवान होती है।

   यहीं से श्रीनित्यानन्द प्रभु श्रीजीव को श्रीअद्वैताचार्य के आंगन में ले गए जो श्रीवास आंगन से बीस मीटर उत्तर की तरफ है।प्रभु कहने लगे इस भवन में सदैव वैष्णव गोष्ठी होती है। यहीं पर बैठकर सीतानाथ ने श्रीकृष्ण की आराधना की थी तथा मेरे एकमात्र धन श्रीगौरांग को अवतरित कराया था।वहाँ की रज में लौट पोट होने के उपरांत चारो दस मीटर पूर्व की ओर श्रीगदाधर भवन में प्रविष्ट हुए।वहां नित्यानंन्द प्रभु ने सभी पार्षदों के वास स्थान का परिचय करवाया। इसके पश्चात सब गंगा तट पर चलने लगे।

    श्रीजीव ने मायापुर की अंतिम सीमा पर स्थित वृद्ध शिवालय के दर्शन किये जो गंगा तट पर विराजमान थे। उन्होंने कहा हे जीव यह मायापुर के क्षेत्रपाल हैं। यहां योगमाया नित्य विराजित है। जब महाप्रभु जी अप्रकट हो जाएंगे तब इस क्षेत्र में गंगा का जल अति बढ़ जाएगा तथा एक सौ वर्ष के बाद पुनः प्रकाशित करेगी।उस समय यहां कोई घर नहीं रहेगा यह स्थान बहुत समय तक वीरान पड़ा रहेगा। पुनः जब महाप्रभु जी की इच्छा होगी तब मायापुर के लोगों का वास होगा।गंगा तट के घाट पुनः प्रकाशित होंगे तथा यहां महाप्रभु जी के मंदिर का निर्माण होगा।अद्भुत मन्दिर यहां प्रकाशित होगा जहां गौरंगसुन्दर की नित्य प्रतिदिन सेवा की जाएगी। परोढ़माया तथा वृद्धशिव पुनः यहीं आकर धाम की सेवा करेंगे। इतना सुन श्रीजीव ने अपने करकमलों से श्रीनित्यानन्द प्रभु के चरण कमलों को पकड़ा तथा कहा -- हे प्रभो ! आप अनन्त शेष के अवतार हैं तथा धाम और नाम से लीला का विस्तार करते हैं। आप ही अनेक अवतार के आश्रय स्वरूप हैं। यधपि आप श्रीमहाप्रभुजी की इच्छा अनुसार ही कार्य करते है , तथापि आप जीवमात्र के गुरु तथा सब प्रकार की शक्तियों को धारण करने वाले हो। जो व्यक्ति गौरंगसुन्दर तथा आप मे भेद देखता है विज्ञ पुरुष उसे पाखंडी कहते हैं। आप सर्वज्ञ हो तथा लीला हेतु अवतरित हुए हो। मेरे हृदय में एक संशय है। जिस समय गंगा मायापुर को ढक लेगी तब योगमाया तथा वृद्धशिव कहाँ जाएंगे। मुझे इस विषय मे बताइए।

    नित्यानंन्द प्रभु बोले जीव मेरी बात सुनो। गंगा के पश्चिम तट पर जो ऊंची भूमि दिखाई दे रही है वहां पारडांगा नाम का टीला है जहां ब्राह्मणों का गावँ है। उसके उत्तरी भाग को छिन्नड़ेंगा कहते हैं।उसी पुलिन पर एक नगर बसेगा जहां शिव और शक्ति का वास होगा।वहां गंगा तट पर रास स्थली विद्यमान है।यधपि जड़ नेत्रों से वह रेतीला स्थान है परंतु वास्तव में रत्नों से बना दिव्यधाम है जहां नित्य लीलाएं प्रकाशित होती रहती हैं।

     मायापुर ब्रज का गोकुल महावन है तथा पारडांगा को छटीकरा कहा जाता है।वहां पर वृन्दावन का रासमण्डल है । आने वाले समय मे वहां उच्च स्वर में कीर्तन होगा।वहां भगीरथी नदी बहती है इन सबको गौरधाम के अंतर्गत जानो। जो कोई भी व्यक्ति इस पांच कोस परिधि वाले धाम की परिक्रमा करता है उसे मायापुर तथा श्रीपुलिन के दर्शन होते हैं। इस धाम की यदि कोई गौरपूर्णिमा के दिन परिक्रमा करता है तो उसे नित्य धन की प्राप्ति होती है।हे जीव मेरी बात सुनो । वहां पारडांगा में श्रीबिष्णुप्रिया द्वारा सेवित महाप्रभु जी की  मूर्ति विराजमान है। जगन्नाथ मिश्र के वंशज उसे छटीकरा ले जाएंगे । जब महाप्रभु जी के आविर्भाव को चार सौ वर्ष हो जाएंगे तब उस मूर्ति की सेवा पूर्ण रूप से प्रकाशित होगी।अभी इन सब बातों को गुप्त रखो तथा उल्लसित होकर परिक्रमा करो।हे विज्ञवर वृद्धशिव घाट से छः मीटर उत्तर की ओर महाप्रभु जी का घाट देखो यहां उन्होंने बाल्यकाल में गंगा में बहुत लीलाएं की हैं। यमुना के भाग्य को देख गंगा ने बहुत तपस्या की तभी उसे श्रीमन महाप्रभु की संगिनी होने का सौभाग्य मिला है। श्रीकृष्ण ने कृपा करके दर्शन दिए तथा वर दिया कि गौरसुन्दर बनकर तुम्हारे साथ क्रीड़ा करूंगा।भाग्यवान जीव उन सब लीलाओं के दर्शन से बहुत सुख प्राप्त करते हैं। क्रमशः

जय निताई जय गौर

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