त्रयोदश अध्याय 1

नवद्वीपधाम माहात्म्य

त्रयोदश अध्याय 1

  श्रीनवद्वीप के चन्द्रस्वरूप श्रीशचीनन्दन की जय हो ! जय हो ! अवधूत नित्यानन्द प्रभु की जय हो ! जय हो !  श्रीअद्वैत आचार्य की जय हो ! जय हो ! श्रीगदाधर और श्रीवास पंडित की जय हो ! जय हो ! अन्य सभी तीर्थों के सारस्वरूप श्रीनवद्वीप धाम की जय हो ! जय हो ! जिस धाम में श्रीगौरसुन्दर अवतरित हुए हैं।हे कलियुग के जीवों ! सुनो! ज्ञान ,कर्म और धर्माधर्म को त्यागकर श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीचैतन्य महाप्रभु का भजन करो।

   श्रीविद्यानगर में आकर नित्यानंन्द प्रभु जीव को वहां के तत्व के विषय मे बताने लगे। नित्यधाम नवद्वीप प्रलय के समय भी आठ पंखुड़ियों वाले कमलपुष्प के रूप में रहता है।भगवान के सभी अवतार तथा अनेकों सौभाग्यशाली जीव उस कमल के एक भाग में रहते हैं। ऋतुद्वीप के अंतर्गत इस विद्यानगर में भगवान ने अपने मत्स्य अवतार के समय सभी वेदों को लाकर रखा था। क्योंकि सभी वेद तथा विद्याएं इसी स्थान पर रहती हैं इसीलिए यह विद्यानगर के नाम से प्रसिद्ध है। जब ब्रह्मा जी पुनः सृष्टि करने में प्रवर्त हुए तब उस प्रलय के समय को देख बहुत भयभीत हो गए।उन्हें भयभीत देख भगवान ने उनपर कृपा की । जैसे ही हरिस्तुति के लिए ब्रह्मा जी ने मुख् खोला , उनकी जिव्हा से बहुत रूपवती सरस्वती देवी आविर्भूत हुई। सरस्वती देवी द्वारा प्रदान की गई शक्ति से ब्रह्मा जी ने श्रीकृष्ण का स्तव किया।

  श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा जिस समय सृष्टि होती है , उस समय मायादेवी तीनो गुणों के साथ विरजा के दूसरी तरफ जडजगत में वास करती है। ऋषिलोग बहुत प्रयास करके माया द्वारा प्रकाशित उस विश्व मे विद्या को प्रकाशित करते हैं। इसी शारदापीठ का आश्रय लेकर मुनि जन अविद्या को परास्त करते हैं। चौसठ प्रकार की विद्याओं को सीख ऋषिगण अनेक स्थानों पर प्रचार करते हैं। जो जो ऋषि जिस विद्या को ग्रहण करना चाहता है इस स्थान पर आकर वही विद्या उसे प्राप्त होती है। श्रीनारद जी की कृपा से यहां पर आकर श्रीबाल्मीक जी को काव्यरस रामायण की प्राप्ति हुई थी। धनवंतरी ने भी यहीं पर आयुर्वेद को प्राप्त किया था तथा विश्वामित्र ने धनुर्विद्या भी यहीं सीखी। शौनक आदि ऋषियों ने वेदों के मंत्रों का पाठ भी यहीं सीखा तथा देवाधिदेव महादेव ने यहीं पर तंत्र का निरूपण किया। ऋषियों की प्रार्थना से ब्रह्मा ने अपने चारों मुखों से चारों वेद यहीं प्रकट किए। इसी स्थान पर बैठकर कपिल ने सांख्य की रचना की । कणाद मुनि ने यहीं वैशेषिक तथा पतंजलि ने यहीं योगशास्त्र प्रकाशित किया। इसी स्थान पर जैमिनी ऋषि ने मीमांसा शास्त्र तथा श्रीवेदव्यास ने पुराणों को प्रकाशित किया।नारद ने यहीं पांच ऋषियों को पन्नचरात्र को प्रकाशित करके जीवन को साधना की शिक्षा प्रदान की। इसी उपवन में आकर सभी उपनिषदों ने बहुत समय तक गौरांग महाप्रभु की उपासना की।

  अलक्षित रूप से श्रीगौरहरि ने उन सबसे कहा कि निराकार बुद्धि ने तुम्हारे हृदय को दूषित कर दिया है। तुम सब श्रुतियों के रूप में मुझे प्राप्त नहीं कर पाओगे। जब मेरे पार्षदों के रूप में जन्म ग्रहण करोगे तभी मेरे दर्शन कर पाओगे। यह सुनकर श्रुतियाँ निस्तब्ध होकर गुप्त रूप से कलियुग की प्रतीक्षा करने लगी।यह कलियुग धन्य अति धन्य है तथा सभी युगों का सार है क्योंकि इस युग मे महाप्रभु आविर्भूत हुए हैं। इस स्थान पर गौरसुन्दर अपनी विद्यालीला करेंगे , ऐसा कहकर ब्रहस्पति ने अपने सभी परिकरों के साथ यहां जन्म ग्रहण किया।क्रमशः

जय निताई जय गौर

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