भाग 8 अध्याय 4

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

                8
        *अध्याय 4*

*साधु अपराध --साधु निंदा*
संता निंदा नामनः परममपराध वितनुते
यतः ख्याति यात कठमुसहतै तद्विग्रहाम

श्रीगदाधर जी के स्वरूप श्रीगौरांग महाप्रभु जी की जय हो तथा श्री जान्ह्वी देवी जी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द प्रभु की जय हो। सीतापति अद्वैताचार्य जी और श्रीवास आदि सभी भक्तों की जय हो।

महाप्रभु जी कहने लगे -हरिदास जी! अब तुम नामापराध की विस्तृत व्याख्या करो। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहने लगे -हे महाप्रभु जी आपकी कृपा से मैं वही बोलूंगा जो आप मुझसे बुलवाओगे।

*दस तरह के नामापराध*

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हमारे शास्त्रों में दस प्रकार के नाम अपराधों का वर्णन है। सचमुच मुझे तो इन नाम अपराधों से बहुत डर लगता है। हे प्रभु एक एक करके मैं इन सबके बारे में कहूंगा।
बस आप मुझे ऐसा बल प्रदान करते रहें जिससे मैं इन अपराधों से बचा रहूँ--
1भगवान के भक्तों की निंदा
2अन्य देवताओं को भगवान से स्वतंत्र समझना
3हरिनाम के तत्व को समझने वाले सद्गुरु की निंदा करना
4 शास्त्रों की निंदा करना
5 नाम मे अर्थवाद करना अथवा हरिनाम की महिमा को काल्पनिक समझना और यह मानना की शास्त्रों में हरिनाम की महिमा को उसके फल से बढ़ा चढ़ाकर कहा गया है।
6 हरिनाम के बल पर पाप करना
7अश्रद्धालु व्यक्ति को कृष्ण नाम का उपदेश देना
8अन्य शुभ कर्मों को हरिनाम के बराबर कहना घोर पाप है
9दूसरी तरफ ध्यान रखकर हरिनाम करने को हमारे पुराणकर्ता प्रमाद कहते हैं
10हरिनाम की महिमा को जानते हुए भी हरिनाम न करना तथा मैं और मेरे की आसक्ति से संसार मे लिप्त रहना।

*साधु निंदा ही प्रथम अपराध है*
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि मैं समझता हूं कि साधु निंदा ही पहला अपराध है।इस अपराध से जीव का हर प्रकार से अकल्याण होता है।

*साधु के स्वरूप और तटस्थ लक्षणों का विचार*

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु! श्रीमद भागवत के 11 अध्याय में आपने श्रीकृष्ण के रूप में उद्धव जी को साधु के लक्षणों के बारे में बताया है। आपने कहा था कि साधु अर्थात भगवान का भक्त-दयालु,सहनशील,समदर्शी, सत्यवादी,विशुद्धात्मा,हमेशा दूसरे के हित मे लगा रहने वाला , कामना वासना से जिसकी बुद्धि विचलित न होने वाली हो, जितेंद्रिय, अकिंचन, मृदु, पवित्र,भगवान का भक्त,उतना ही भोजन करेगा जितनी जरूरत है,शांत मन वाला जिसकी कोई स्प्रहा न हो,धैर्यवान, स्थिर,श्रीकृष्ण के शरणागत,विषय वासनाओं से दूर रहने वाला, गम्भीर,काम क्रोध आदि से मुक्त, मान सम्मान की परवाह न करने वाला ,सबको सम्मान देने वाला,दूसरों को हरिकथा सुनाने व भजन कराने में निपुण,दूसरों को धोखा न देने वाला तथा दूसरों से धोखा न खाने वाला तथा ज्ञानी।

   हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु! यह सब लक्षण जिसमे हैं वही साधु है , परन्तु हे प्रभु !स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण के भेद से , यह सभी लक्षण दो प्रकार के होते हैं जिन पर मैं अब विचार करूंगा।

*स्वरूप लक्षण ही प्रधान लक्षण है , इसके आश्रय में तटस्थ लक्षण स्वयम ही उदित हो जाते हैं*

भगवत भक्त के लक्षण दो प्रकार के होते हैं-स्वरूप लक्षण एवं तटस्थ लक्षण। श्रीकृष्ण के शरणागत होना ही साधु का स्वरूप लक्षण होता है जबकि जो अन्य गुण हैं -वे तटस्थ लक्षण हैं।सौभाग्य से जब किसी जीव को साधु सँग के प्रभाव से श्रीहरिनाम में रुचि होती है , तब वह श्रीकृष्ण नाम संकीर्तन करता हुआ श्रीकृष्ण के पादपदमों का आश्रय ग्रहण करता है। ये ही साधु का स्वरूप लक्षण है। श्रीनाम कीर्तन करते करते , हरिनाम करने वाले के अन्दर जो अन्य गुण आ जाते हैं ,उन्हीं को तटस्थ लक्षण कहते हैं जो कि वैष्णव देह में अवश्य प्रकट होते हैं।

*वर्णाश्रम लिंग और नाना प्रकार के वेश द्वारा साधुतव की पहचान नहीं होती, केवल मात्र श्रीकृष्ण के शरणागत होना ही साधु का लक्षण है*

वर्णाश्रम चिन्हों से एवम नाना प्रकार की वेशभूषा की रचना से , साधु के लक्षणों की गणना नहीं होती है। श्रीकृष्ण शरणागति ही साधु का लक्षण है और श्रीकृष्ण के शरणागत भक्त के मुख से ही श्रीकृष्ण का नाम संकीर्तन हो सकता है। गृहस्थी, ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी एवम सन्यासी के भेद से एवम शुद्र,वैश्य,क्षत्रिय तथा ब्राह्मण के प्रभेद से साधुत्व का निर्णय कभी नहीं किया जा सकता। जो श्रीकृष्ण के शरणागत हैं , वही साधु हैं, यही शास्त्रों का सार सिद्धांत है।

*ग्रहस्थ में रहने वाले साधु के लक्षण*
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहने लगे -हे प्रभु!आपने श्रीरघुनाथ गोस्वामी को लक्ष्य करके ग्रहस्थ आश्रम में साधु भक्त कैसे रहेंगे , इसकी सार शिक्षा दी है। आपने उस समय श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी को कहा था कि वह स्थिर होकर अपने घर जाएं एवं पागल न बनें। छलांग मारकर कोई भी भवसागर से पार नहीं होता।भगवत भक्ति की साधना में लगे रहें , साधना करते करते श्रीकृष्ण की कृपा से जीव धीरे धीरे भव सागर से पार उतर जाते हैं।दुनिया वालों को दिखाने के लिए बन्दर जैसा दिखावटी वैराग्य दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं, संसार के विषयों के प्रति अनासक्त रहो तथा दुनिया मे रहने के लिए,ग्रहस्थ में रहने के लिए जितने विषयों की आवश्यकता हो उतने विषयों को कर्तव्य समझकर अनासक्त भाव से स्वीकार करते रहो। हाँ, हृदय में भगवान के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा रखो तथा साथ ही जगत के लोगों से अपना व्यवहार ठीक रखो, ऐसा करने से बड़ी जल्दी ही श्रीकृष्ण प्रसन्न होकर तुम्हारा उद्धार कर देंगे।

*गृहस्थी साधु के लक्षण*

हे प्रभु !आपने श्रीरघुनाथ दास जी को वैराग्य का रास्ता ग्रहण करने पर ,जो शिक्षा प्रदान की थी वह बड़ी अद्भुत थी। आपने कहा था कि ग्राम्य बातें अर्थात अश्लील बातें न तो सुनना और न ही बोलना। अच्छा खाना व अच्छा पहनना, यह भी वैरागी को शोभा नहीं देता ये भी मत करना।दूसरों को सम्मान देते हुए स्वयं अमानी होकर हमेशा श्रीकृष्ण नाम करते रहना तथा मानसिक चिंतन द्वारा ब्रज में श्रीराधा कृष्ण जी की सेवा करते रहना।

*गृहस्थी और गृहत्यागी के स्वरूप लक्षण एक ही हैं*

गृहस्थी और गृहत्यागी के लिए स्वरूप लक्षण एक ही हैं, किंतु आश्रम के भेद से, तटस्थ लक्षण का कुछ अलग विधान है। श्रीकृष्ण की अनन्य शरणागति ही भक्त का स्वरूप लक्षण है अर्थात मुख्य लक्षण है। जिसमे उक्त स्वरूप लक्षण हैं, उसमें तटस्थ लक्षण भी अवश्य होंगें।किंतु श्रीकृष्ण के किसी एकांत शरणागत व्यक्ति में, यदि किसी अंश में तटस्थ लक्षण पूर्ण उदित न होकर ,उसके आचरण में कुछ कमी रह जाये,तब भी वह साधु ही है। श्रीकृष्ण ने यह वाक्य श्रीमदभागवत तथा श्रीभगवत गीता में कहे हैं। ऐसे भक्त की यत्न के साथ हमेशा तथा हर प्रकार से पूजा करनी चाहिए। श्रीहरिदास ठाकुर जी कहने लगे -हे प्रभु !इसमें भी एक रहस्यमय सिद्धांत है। आपने ही कृपा करके वह समझाया है ,अन्यथा यह रहस्य भला मेरी समझ मे कैसे आता।

*पिछले किये पापों को याद करके जो श्रीकृष्ण के शरणागत साधु की निंदा करता है वह नामापराधी है*

श्रीकृष्णनाम में जब रुचि उदय होती है तब एक हरिनाम से ही पिछले सब किये पाप खत्म हो जाते हैं। हाँ, किसी किसी के जीवन मे देखा जाता है कि उसमें पिछले किये पापों की कुछ गन्ध है अर्थात गन्दे पापमयी संस्कार थोड़े बाक़ी हैं , परन्तु इसमे घबराने की कोई बात नहीं, श्रीहरिनाम के प्रभाव से पाप की वह गन्ध भी धीरे धीरे खत्म हो जाती है। परंतु जिन दिनों में वह पाप गन्ध खत्म हो रही होती है तो साधारण लोगों की नज़रों में वह पाप से ही लगता है , ऐसे में अथवा शरणागति ग्रहण करने से पहले किये हुए पापों को लक्ष्य करके जो वैष्णव अवज्ञा करते हैं या वैष्णवों का निरादर करते हैं वे पाखंडी हैं । वैष्णवो की निंदा रूपी दोष के कारण वे नाम अपराधी बन जाते हैं । श्रीकृष्ण भी उनसे असंतुष्ट हो जाते हैं।

*श्रीकृष्ण के प्रति शरणागति ही साधु का लक्षण है, जो अपने को साधु बोलते हैं , वे दाम्भिक हैं*

जो श्रीकृष्ण के शरणागत होते हैं , वे हमेशा, श्रीकृष्णनाम कीर्तन करते रहते हैं तथा श्रीकृष्ण की कृपा से ऐसे शरणागत व्यक्ति ही साधु कहलाते हैं। श्रीकृष्ण भक्त के अतिरिक्त और कोई साधु नहीं होता तथा जो अपने को साधु कहते हैं , वे धर्मध्वजी तथा घमंडी हैं , वे तो अपने वेश को दिखाकर अपनी पेट पूजा करते रहते हैं।

*कम शब्दों में साधु निर्णय*

जो वास्तविक साधु होता है , भगवत भक्त होता है , वह कहता है कि मैं तो हीन हूँ ,एकमात्र श्रीकृष्ण की शरण मे हूँ एवम जिसके मुख से हर क्षण हरिनाम उच्चारित होता रहता है , वही साधु है। वास्तविक भगवत भक्त अपने को तृण से भी अधिक हीन समझता है तथा वह वृक्ष के समान सहनशील होता है, स्वयम सम्मान की चाहना न रखकर दूसरे को सम्मान देता है । उसके मुख से उच्चारित श्रीकृष्णनाम ही दूसरों के हृदय में श्रीकृष्ण प्रेम प्रकाशित करता है।क्रमशः

जय निताई जय गौर

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