भाग 1श्रीहरिनाम चिंतामणि प्रबोधनी कथा

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*
      
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*प्रबोधिनी कथा*

साधारण लोगों के पढ़ने के लिए ये ग्रंथ नहीं है, जिनका श्रीचैतन्यदेव में दृढ़ विश्वास हो गया है तथा जिसकी नामाश्रया भक्ति में श्रद्धा है, वे ही इस ग्रंथ को पढ़ने या सुनने के अधिकारी हैं। साधन भक्ति में जितने भी प्रकार की साधनाएं हैं, उनमें एकमात्र नामाश्रया भक्ति से ही सर्वसिद्धि होती है-- इस प्रकार जिनका विश्वास है , वे ही सर्वोत्तम साधक हैं । श्रीमन महाप्रभु जी किये शिक्षा उनके शिक्षाष्टक में ही मिलती है। श्रीमन महाप्रभु जी ने श्रीहरिदास जी को इस शिक्षा के लिए आचार्य के रूप में वरण किया था ।
 
       प्रमाणिक ग्रंथों के अनुसार हरिदास ठाकुर जी का जन्म मुसलमान कुल के बंगाल के वन नामक ग्राम के निकट बूडन नामक स्थान में हुआ। अति ही अल्प समय मे अपने पूर्व संस्कारों के कारण आपकी नाम भजन में रुचि हो गयी तथा आप अपने घर को छोड़ बेनापोल के वन में कुटिया का निर्माण कर नाम संकीर्तन तथा नाम स्मरण में अपना समय बिताया करते थे। वहां पर कुछ बहिर्मुख व्यक्ति आपके विरुद्ध हो गए इसलिए इस स्थान का त्याग कर आप गंगा किनारे आकर रहने लगे। यहां पर एक दुष्ट स्वभाव व्यक्ति ने आपके पतन के लिए एक वेश्या को आपके सन्मुख भेजा।दुष्ट व्यक्ति ने जिस वेश्या को इनके पतन के लिए भेजा था वही इनके मुख से हरिनाम सुनकर परम् भक्ता हो गयी।वेश्या के भक्ता हो जाने पर बेनापोल की वह कुटिया उस वेश्या को देकर उस स्थान का त्याग कर चले गए।

    हरिनाम गाते गाते आप गंगा पार सप्त ग्राम में रहने वाले यदुनंदन आचार्य जी के घर पहुंचे तथा वहीं रहने लगे। आचार्य जी मे साथ आप उस गावँ के जिमिंदार श्री हिरण्य गोवर्धन की सभा मे जाते थे। गोपाल चक्रवर्ती नामक एक ब्रह्म बन्धु के साथ आपका हरिनाम के विषय मे तर्क हुआ। हरिण्य गोवर्धन ने उसे काम से हटा दिया तथा कुछ समय पश्चात उसे कुष्ट रोग हो गया। उसी समय श्रीगोवर्धन के पुत्र श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी जी, जो उस समय छोटी आयु के थे , ने हरिदास जी की कृपा से वैष्णव प्रवृति लाभ की थी। गोपाल चक्रवर्ती के क्लेश को सुनकर इन्होंने उस स्थान का भी त्याग कर दिया तथा फुलिया ग्राम में श्रीअद्वैताचार्य जी के आश्रम के पास गंगा जी के किनारे निर्जन स्थान में कुटिया बनाकर भजन करने लगे। भक्त प्रतिष्ठा का कितना भी त्याग करे परन्तु जन सँग का परित्याग करके कितना भी भजन करे , तो भी भक्ति के प्रभाव से उसकी प्रतिष्ठा को छिपाया नहीं जा सकता।

    हरिदास जी द्वारा की जाने वाली भक्ति का प्रचार होते ही  मुसलमानों की उनके प्रति ईर्ष्या उतपन्न हो गयी। मुसलमानों के काजी द्वारा उनको विशेष रूप से यातना दी गयी। हरिदास जी सब जीवों पर दया करने में परिपूर्ण हैं तथा उनके दोष न देखते हुए उनको आशीर्वाद देकर अपनी गुफा में लौट आये । इधर कुछ दिन बाद महाप्रभु जी का नवद्वीप में अवतार हुआ , श्रीअद्वैताचार्य के साथ यह भी महाप्रभु जी के चरण आश्रित हुए । उसी दिन से महाप्रभु जी द्वारा नाम आचार्य के रूप में नियुक्त हुए।

    ततपश्चात जब महाप्रभु जी पुरी में रहने लगे तब हरिदास ठाकुर जी भी वहीं आ गए।हरिदास जी की लीला अप्रकट के समय महाप्रभु जी ने स्वयम अपने हाथों से उन्हें समाधि दी तथा समारोह के साथ संकीर्तन करके उनका अप्रकट दिवस मनाया।

  श्रीमहाप्रभु जी की लीला इस प्रकार है कि उनके जिस भक्त ने भक्ति के जिस क्षेत्र में ऊंचा अधिकार प्राप्त किया , महाप्रभु जी ने उस विषय की अपनी शिक्षा उस भक्त के द्वारा ही जगत में प्रचार करवाई। यही कारण है कि उन्होंने हरिदास ठाकुर जी से हरिनाम के सम्बंध में कुछ प्रश्न करके हरिनाम तत्व भी उनके मुख से प्रकाशित करवाया। श्रीचैतन्य चरितामृत, श्रीचैतन्य भागवत आदि कई ग्रंथो में इसका उल्लेख है। श्रीभक्ति विनोद ठाकुर द्वारा कई ग्रंथो से नाम महिमा को संग्रह कर इस ग्रंथ को हरिनाम चिंतामणि का नाम दिया गया है।किसी भक्त के माध्यम से भी नाम आचार्य श्रीहरीदास जी के विषय मे कुछ ग्रंथ प्राप्त करके उनकी कांट छांट करके श्रील भक्ति विनोद जी द्वारा वैष्णव मत के अनुकूल इन तथ्यों को प्रकाशित किया गया।

   इस ग्रंथ में उन्होंने महामन्त्र के 16 नाम तथा 32 अक्षर का रस पर्क अर्थ प्राप्त हुआ। इस ग्रंथ को देख ऐसा लगता है कि हरिदास ठाकुर जी ने अपने किसी शुद्ध भक्त को हरिनाम की दीक्षा दी थी। नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी से यह शिक्षा लेकर उन सब शिक्षाओं को लिपिबद्ध किया तथा छोटे छोटे ग्रंथों के रूप में प्रकाशित किया। उन ग्रंथों में जितनी भी शिक्षाएं श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी को प्राप्त हुई सब इस ग्रंथ में संकलित हैं।

   निष्किंचन भक्तो के सुख की वृद्धि हो इसी उद्देश्य से उन्होंने इस ग्रंथ को प्रकाशित करवाया। इस ग्रंथ को सभी हरिनाम परायण वैष्णव जन पढ़ेंगे ऐसा श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी का मानना है। भजन साधन की पद्धतियां अनेक प्रकार की हैं परंतु नामाश्रित भजन की पद्दति यह एक ही है। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के समय से लेकर आज तक महापुरष हरिदास ठाकुर द्वारा दी गयी इसी पद्धति का अनुसरण कर रहे हैं।ब्रज मंडल के वैष्णव लोग भी प्राचीन काल से इसी प्रणाली से भजन करते रहे हैं। श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र के भजनानंदी महापुरष भी इसी प्रणाली का अनुसरण करते रहे हैं।

   अपराध रहित तथा निसंग होकर निरन्तर हरिनाम कीर्तन तथा स्मरण की पद्धति है उसे ही श्रीहरि भक्ति विलास ग्रंथ में श्रीसनातन गोस्वामी तथा श्रीरूप भट्ट गोस्वामी ने स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है। यह हरिनाम चिंतामणि नाम का पद्य ग्रंथ है जिसका अनुसरण बालक , स्त्री तथा जो लोग संस्कृत भी नहीं जानते कर सकते हैं। वह सब इस ग्रंथ के पठन द्वारा श्रीमन महाप्रभु जी की शिक्षा पा सकते हैं। प्रमाण माला नाम के ग्रंथ में श्रीहरिनाम चिंतामणि के प्रत्येक वाक्य का शास्त्रीय प्रमाण है। श्रीकृष्ण की इच्छा अनुसार ही इस ग्रंथ का प्रकाशन श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा हुआ है।

जय निताई जय गौर

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