भाग 7 अध्याय 3

ल*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

             7
      *अध्याय 3*

*अनर्थ समाप्त होने पर नामाभास प्रेम प्रदान करता है*

श्रीकृष्ण प्रेम को छोड़कर बाकी सब कुछ नामाभास से ही प्राप्त किया जा सकता है और यह नामाभास भी धीरे धीरे शुद्ध प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। अनर्थों के समाप्त होने पर जब साधक के मुख से शुद्ध हरिनाम होने लगता है तब उसे निश्चित रूप से श्रीकृष्ण प्रेम प्राप्त हो जाता है। नामाभास साक्षात रूप से प्रेम प्रदान नहीं कर सकता परन्तु इस प्रकार का हरिनाम ही क्रमानुसार प्रेम मार्ग तक पहुंचा देता है।

*नामाभास तथा नाम अपराध में भेद*

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे सर्वेश्वर प्रभु! जो व्यक्ति नामापराध को छोड़कर भी नामाभास करते हैं , उन्हें भी मैं प्रणाम करता हूँ क्योंकि यह नामाभास कर्म मार्ग तथा ज्ञान मार्ग से अनन्त गुणा श्रेष्ठ है। श्रीहरीदास जी कहते हैं कि भगवत प्रेम उतपन्न करवाने वाली श्रद्धा यदि किसी के हृदय में शुद्ध भाव से विद्यमान हो तभी उसके मुख से विशुद्ध हरिनाम उच्चारित होगा।

*छाया तथा प्रतिबिम्ब भेद से आभास दो प्रकार का होता है*

ये आभास दो प्रकार के होते हैं-छाया नामाभास तथा प्रतिबिम्ब नामाभास ।हे प्रभु यह भी आपकी ही माया है कि श्रद्धा का आभास भी दो प्रकार का होता है। छाया श्रद्धाभास से छाया नामाभास होता है और इसी से जीव का शुद्ध उदित होने लगता है।

प्रतिबिम्ब नामाभास -अन्य लोगों की भगवान में शुद्ध श्रद्धा को देखकर जो व्यक्ति अपने मन मे भी श्रद्धा का आभास लाता है , उसे प्रतिबिम्ब नामाभास कहा जाता है। उस जीव का अंदर इस श्रद्धा के साथ साथ दुनियावी भोग तथा मोक्ष की इच्छाएं भी रहती हैं और वह बिना प्रयास के ही अपनी अभीष्ट वस्तु कृष्ण प्रेम को पाने के लिए रात दिन नाम करता रहता है। यह श्रद्धा का लक्षण मात्र है , इसे वास्तविक श्रद्धा नहीं कहा जा सकता । शास्त्रों में इसे प्रतिबिम्ब श्रद्धाभास कहा गया है । प्रतिबिम्ब श्रद्धाभास की स्थिति में जितना भी नाम होता है वह प्रतिबिम्ब नामाभास ही होता है।

*प्रतिबिम्ब नामाभास मायावाद रूपी कपटता को उतपन्न करता है*
इस नामाभास मे मायावाद रूपी दुष्ट मतों का प्रवेश हो जाये तो यह नामाभास धूर्तता में बदल जाता है।

*कपट प्रतिबिम्ब नामाभास ही नामापराध है*
नित्य साध्य हरिनाम को सिर्फ साधन समझना हरिनाम की महिमा को कम आँकना है। यह भी नामापराध है। जो व्यक्ति हरिनाम को मात्र साधन समझता है वह बेचारा अपराधों में उलझकर खत्म हो जाता है। क्योंकि हरिनाम तो साक्षात हरि हैं इसलिए ये साधना के साथ साथ साध्य भी हैं।

*छाया नामाभास तथा प्रतिबिम्ब नामाभास में अंतर*
छाया नामाभास में केवल अज्ञान ही होता है , यह अनर्थ हृदय की दुर्बलता से ही होता है। एकमात्र हरिनाम ही ऐसी साधना है जिससे सारे दोष समाप्त हो जाते हैं। जबकि प्रतिबिम्ब नामाभास में यह दोष बढ़ जाते हैं।

*मायावाद और भक्ति परस्पर विपरीत हैं। मायावाद ही अपराध है*

मायावादियों के अनुसार श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण , लीला आदि सभी झूठे तथा नाशवान हैं। इनके मतानुसार भगवत प्रेम तत्व नित्य नहीं होता। ईसलिये मायावाद मत भक्ति मार्ग के विपरीत है। भक्ति के शत्रु के रूप में मायावाद की गणना होती है। इसलिए मायावाद भगवत चरणों मे अपराधी होते हैं। मायावादी के मुख से भगवान का नाम नहीं निकलता या यूं कहें कि उनके मुख से भगवत नाम निकलने पर भी नाम तत्व की प्राप्ति नहीं होती। मायावादी यदि भगवत नाम उच्चारण भी करता है तो वह नाम को अनित्य ही समझता है जिससे उसका पतन होता है। हरिनाम करते हुए मन मे श्रीहरिनाम से दुनियावी भोगों और मोक्ष की प्रार्थना करना हरिनाम के प्रति धूर्तता है -जिसका परिणाम दुख है।

*अपराध मायावादी को कब छोड़ते हैं*
हाँ, यदि मायावादी भोग और मोक्ष की इच्छा को छोड़कर स्वयम को श्रीकृष्ण का दास समझकर पश्चाताप के साथ हरिनाम करता है तो मायावाद रूपी दुष्ट मत से उसका छुटकारा हो जाता है। इतना ही नहीं, साधु सँग करते हुए जब वह भगवत कथा श्रवण तथा कीर्तन करता है तो उसके हृदय में सम्बन्ध ज्ञान का अनुभव उदित होता है। श्रीहरीदास ठाकुर जी कहते हैं कि जब वह सम्बन्ध ज्ञान के साथ निरन्तर हरिनाम करता है तो उसके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगती है। वह हरिनाम की कृपा को प्राप्त करता हैतथा उसका चित आत्मबल से परिपूर्ण हो जाता है।

*भक्ति का अनित्य बोलने के कारण ही मायावाद रूपी अपराध होता है*

श्रीकृष्ण की शक्ति के अंश स्वरूप जीव का , श्रीकृष्ण की सेवा करना ही स्वभाव होता है जबकि मायावादी इसे अनित्य और कल्पित समझते हैं। ऐसे मायावाद की नाम अपराध के अंतर्गत गणना होती है। गम्भीरता से देखा जाए तो यह मायावाद तमाम मुसीबतों की खान है।

*मायावादी नामाभास के द्वारा मुक्ति का आभास रूपी सायुज्य मुक्ति को प्राप्त करता है*

नामाभास कल्पतरु के समान है इसलिए मायावादी को भी उसका अभीष्ट -सायुज्य मुक्ति प्रदान करता है। हरिनाम सर्वशक्तिमान है, इसलिए प्रतिबिम्ब नामाभास होने पर भी यह नाम मायावादी को मुक्ति का आभास प्रदान करता है। पांच प्रकार की मुक्तियों में सायुज्य तो मुक्ति का आभास मात्र है, जिसमे केवल संसारी चक्र समाप्त होता है परंतु भक्त की दृष्टि में उसका यह फल सर्वनाश के समान है क्योंकि सायुज्य मुक्ति का प्राप्त हुआ जीव कभी भी श्रीकृष्ण प्रेम को प्राप्त नहीं कर सकता।

*मायावादी कभी भी नित्य सुख को प्राप्त नहीं कर सकता*

माया से मोहित व्यक्ति उसी को ही अर्थात सायुज्य मुक्ति को ही सुख समझता है क्योंकि सायुज्य मुक्ति में सुख का आभास मात्र होता है -वास्तविक सुख नहीं मिलता। वास्तविक मुक्तावस्था तो सच्चिदानन्द भगवान की सेवा की प्राप्ति में है। श्रीकृष्ण स्मृति के अभाव में सायुज्य मुक्ति को प्राप्त होने वाला जीव कभी भी श्रीकृष्ण सेवा प्राप्त नहीं कर सकता। जहां पर भक्ति की नित्यता अथवा कृष्ण प्रेम की नित्यता में विश्वास नहीं है, वहां पर नित्य सुख की प्राप्ति कैसे सम्भव है।

*छाया नामाभास धीरे धीरे जीव को शुद्ध नाम की ओर ले जाता है-यदि वह दुष्ट मत में प्रवेश न करे तो*

चूँकि छाया नामाभासी व्यक्ति का मायावाद रूपी दुष्ट मत से कोई सम्बन्ध नहीं होता, इसलिए मतवादों के चक्कर मे पड़कर उसका चिदबल नष्ट नहीं होता। छाया नामाभासी व्यक्ति में केवल यह कमी होती है कि वह हरिनाम के वास्तविक प्रभाव को नहीं जानता जबकि हरिनाम का स्वभाव है कि वह अपने आश्रित को अपनी महिमा से अवगत करवा देता है। घने बादलों से ढक जाने के कारण सूर्य का तेज दिखाई नहीं पड़ता परन्तु यदि बादल छिन्न भिन्न हो जाएं तो सूर्य का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है। वैसे देखा जाए तो छाया नामाभासी व्यक्ति धन्य है क्योंकि सद्गुरु की कृपा से वह थोड़े ही दिन में अनायास ही भगवत प्रेम प्राप्त कर लेता है।

*भगवत भक्तों को अवश्य ही मायावादियों के संग का त्याग करना चाहिए*

हरिदास ठाकुर जी कहते हैं -हे महाप्रभु जी ! आपकी आज्ञा है कि भगवतभक्तों को मायावादियों का सँग सावधानीपूर्वक छोड़ देना चाहिए तथा शुद्ध नाम परायण होकर भगवान को प्रसन्न करने की चेष्ठा करनी चाहिए। आपकी इस आज्ञा का जो जीव पालन करता है , वह जीव धन्य है। जो अधम जीव इस आज्ञा का पालन नहीं करता है, वह चाहे किसी भी प्रकार के साधन करे , उस जीव का करोड़ों जन्मों में भी उद्धार नहीं होगा। हे प्रभु ! आप हमें कुसंग से बचाकर अपने चरण कमलों में रखिए। आपके पादपदमों की कृपा के अतिरिक्त हमारे कल्याण का कोई और उपाय नहीं है।

श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी के पादपदमों में ही जिन्हें वास्तविक आनन्द की अनुभूति होती है, वे इस हरिनाम चिंतामणि का हमेशा गुणगान करते रहते हैं।

तृतीय अध्याय विश्राम

जय निताई जय गौर

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