भाग 4 अध्याय 2

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

                4
     *श्रीगोद्रुम चंद्राय नमः*

           *दूसरा अध्याय* 

        *नामग्रहण विचार*

श्रीगदाधर पंडित तथा श्रीगौरांग महाप्रभु जी की जय हो। श्रीमति जान्ह्वी देवी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द प्रभु जी, सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी, तथा पंडित श्रीवास आदि जितने भी भक्त हैं सबकी जय हो।
         हरिनाम करते करते हरिदास ठाकुर जी हरिनाम के प्रेम में विभोर होकर रो रहे थे। श्रीहरिदास ठाकुर जी कोइस प्रकार प्रेम में डूबा देखकर श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने आलिंगन कर लिया और कहने लगे - हरिदास तुम्हारे जैसा भक्त मुझे कहाँ मिलेगा , सचमुच तुम सर्व शास्त्रों के सार को जानने वाले हो तथा तुम हमेशा ही माया से परे हो।

*अनन्य भजन की श्रेष्ठता*

नीचकुल में आकर तुमने सभी को दिखाया कि धन दौलत, मान सम्मान , ऊंचे कुल तथा शालीनता आदि से श्रीकृष्ण की प्राप्ति नहीं होती। भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु जी कहते हैं कि हरिदास वैसे भी अनन्य श्रीकृष्ण भजन में जिसकी प्रगाढ़ श्रद्धा होती है, वह तो देवताओं से भी अधिक श्रेष्ठ है।

*श्रीहरिदास की नाम आचार्यता*

हरिदास!तुम जानते ही हो कि हरिनाम करना ही सभी शास्त्रों का सार है। आचरण की दृष्टि से आप तो श्रीहरिनाम के आचार्य हो और श्रीहरिनाम के प्रचार में तुम प्रवीण हो। हरिदास तुम अपने मुख से हरिनाम की जो अपार महिमा है , उसका वर्णन करो क्योंकि तुम्हारे मुख से यह सुनकर मुझे बहुत आनन्द मिलता है।

        *वैष्णव लक्षण*
जिसके मुख से एकमात्र कृष्ण का नाम उच्चारण होता है उसे वैष्णव समझना चाहिए। ग्रहस्थ भक्तों को चाहिए कि वह अति यत्न के साथ इस सिद्धांत को मानें।

  *वैष्णवतर के लक्षण*

जिसके मुख से निरन्तर कृष्ण नाम सुनाई पड़ता है अर्थात जो निरन्तर कृष्ण नाम जप करता है वह श्रेष्ठ वैष्णव है। ऐसा वैष्णव सभी गुणों की खान होता है।

      *वैष्णवतम लक्षण*

जिस वैष्णव के दर्शनमात्र से ही मुख से श्रीकृष्ण नाम उदित हो जाता है तथा जीव को श्रीकृष्ण की भक्ति प्राप्त हो जाती है, वही उत्तम वैष्णव है। भगवान चैतन्य महाप्रभु जी कहते हैं कि जीव किस रूप से श्रीकृष्ण का नाम करे, इस विधान को तुम मुझे विस्तार से बतलाओ। महाप्रभु जी की बात सुन हरिदास जी के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी तथा वह विस्तार करने लगे।

      *नाम का स्वरूप*
श्रीकृष्ण नाम चिंतामणि है, अनादि तथा चिन्मय है। जो श्रीकृष्ण हैं , वही श्री हरिनाम है।श्रीकृष्ण और श्रीकृष्णनाम एक ही तत्व है। चेतन विग्रह श्रीहरिनाम का नित्यमुक्त तत्व है। हरिनाम और नामी भगवान भिन्न नहीं है, दोनो ही नित्य शुद्ध तत्व है। इस जड़ जगत में प्रभु हरिनाम के अक्षर के आकार में प्रकट हैं।रसिक भक्तों के हृदय में हरिनाम के अक्षर ही रस से भरे शुद्ध सात्विक अवतार हैं। श्रीकृष्ण नामक तत्व चार प्रकार नाम , रूप , लीला तथा धाम से प्रकाशित है।क्योंकि श्रीकृष्ण अनादि तत्व हैं इसलिए उनका नाम , रूप, लीला तथा धाम भी दिव्य तथा अनादि हैं।

*हरिनाम नित्य सिद्ध हैं*

भगवान श्रीकृष्ण नित्यस्वरूप हैं, आनन्द स्वरूप हैं तथा उनके जैसा कोई दूसरा नहीं है। जैसा पहले भी बताया जा चुका है कि किसी भी वस्तु का परिचय उसके नाम , रूप, गुण तथा कर्म से जाना जाता है। संधिनी शक्ति के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण का इन चारों रूपों में नित्य तथा दिव्य परिचय मिलता है। भगवान के नाम, रूप तथा गुण भी चिन्मय, नित्य सिद्ध तथा दिव्य हैं।जिस प्रकार श्रीकृष्ण समस्त विश्व को अपनी ओर आकर्षित करते हैं , उसी प्रकार श्रीकृष्ण नाम,रूप तथा गुण आदि में भी यह आकर्षण धर्म नित्य विराजित है।

*श्रीकृष्ण का रूप नित्य है*

श्रीकृष्णं का रूप सदा श्रीकृष्ण से अभेद है।उनका नाम तथा उनका रूप एक ही वस्तु हैं तथा उनमें भेद नहीं है। श्रीनाम का स्मरण करते करते ही उसके साथ रूप प्रकट होता है। श्रीकृष्ण का नाम तथा रूप सर्वदा अभेद होने से साधक के हृदय में नाम के साथ रूप भिन्न भिन्न प्रकार से क्रीड़ा करता है।

*श्रीकृष्ण के गुण भी नित्य हैं*
श्रीकृष्ण के गुण नित्य हैं । श्रीकृष्ण के अनन्त अपार गुण होने पर भी उनके 64 गुण नित्य हैं।जिनके अपने अंश से तमाम अवतार प्रकट हुए हैं। जिनके गुण अंश से ब्रह्मा जी व शिव आदि ईश्वर प्रकट हुए हैं, जिनके गुणों के कारण ही श्रीमन नारायण 60 गुणों के मालिक हैं -ऐसे भगवान श्रीकृष्ण के अपने अनन्त नित्य गुण तथा अनन्त नित्य नाम हैं तथा वह सब दुनियावी नहीं अपितु माया के गुणों से रहित बैकुंठीय हैं।

*भगवान श्रीकृष्ण की लीला भी नित्य है*

नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी भगवान चैतन्य देव् जी को कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण के गुण रूपी सागर की तरंगों से ही उनकी लीलाओं का विस्तार होता है। विशेष ध्यान देने की बात यह है कि गोलोक में, बैकुंठ में तथा ब्रज में होने वाली उनकी सभी लीलाएं चिन्मय हैं।

*भगवान के नाम, रूप, गुण, लीला आदि भगवान से पृथक नहीं हैं*

भगवान श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण तथा लीला हमेशा ही श्रीकृष्ण से अभिन्न हैं तथा इस जगत में भी वे उनसे अभिन्न रहकर ही उदित होती है। हाँ माया के संस्पर्श से बद्ध जीव के नाम, रूप , गुण तथा क्रिया यह सब जीव से अलग होते हैं। शुद्ध जीव का नाम ये एक ही तत्व है। जीव का दुनियावी नाम तथा दुनियावी रूप जीवात्मा से अलग होता है। माया से बनी देह का अप्राकृत देही से भिन्न होना ही विवेक है। क्योंकि श्रीकृष्ण में माया की गंध नहीं है , इसलिए श्रीकृष्ण के नाम , रूप, लीला तथा गुण आदि तत्व एक ही होते हैं।

*हरिनाम ही सभी का मूल है*
भगवान के नाम, रूप, गुण तथा लीला इन चार परिचयों के बीच मे उनका नाम सभी का आदि है अर्थात मूल है। इसलिए हरिनाम करना ही वैष्णवों का एकमात्र धर्म है। हरिनाम करते रहने से ही उनके अंदर से उनके रूप, गुण तथा लीला प्रकाशित होती है। श्रीकृष्ण की समस्त लीलाएं नाम मे ही विद्यमान हैं। श्रीहरीदास ठाकुर जी चैतन्य महाप्रभु जी से कहते हैं कि हे गौरहरि ! आपका ही यह विधान है कि हरिनाम ही सर्वश्रेष्ठ तत्व है।

*वैष्णव और वैष्णव प्राय में भेद है*
भगवान के उसी सर्वश्रेष्ठ नाम को जो बद्धजीव जब श्रद्धा एवं शुद्ध रूप से करता है तो उसे वैष्णव कहा जाता है। परंतु जिसका नामाभास हुआ करता है , उसी को वैष्णव प्राय कहा जाता है। इस प्रकार का वैष्णव प्रायः व्यक्ति हरिनाम करते धीरे धीरे शुद्ध वैष्णव बनकर शुद्ध लाभ प्राप्त करता है।क्रमशः

जय निताई जय गौर

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