एकादश अध्याय 3

श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य

एकादश अध्याय 3

राजा ने जयदेव को अपने साथ राजमहल चलने को कहा। किंतु जयदेव बहुत विरक्त थे इसलिए उन्होंने किसी विषयी के घर जाने पर सहमति न दी।अनन्य कृष्णभक्त जयदेव जी ने कहा कि यदि ऐसे कहोगे तो मैं आपके देश को छोड़कर चला जाऊंगा।राजा ने उन्हें नवद्वीप धाम न छोड़ने के लिये विनती की। उन्होंने विनती की कोई ऐसा काम कीजिये जिससे आपकी बात भी सत्य हो और मेरी इच्छा भी पूरी हो जाये। गंगा के उस पार चंपक हट्ट नामक एक मनोहर स्थान है वहां आप वास कीजिये।मैं अपनी इच्छा से कभी भी वहां नहीं आऊंगा।जब आपकी इच्छा होगी तभी मैं आपके चरणकमलों का दर्शन करूंगा।राजा की बात सुनकर जयदेव ने अपनी सहमति दे दी।यधपि आप राजा हैं तथापि आप कृष्ण भक्त हैं तथा संसार के बंधन में बंधे नहीं हुए।मैंने आपकी परीक्षा लेने के लिए ही आपको विषयी कहा था।परंतु आपने मेरी बात को सहन कर लिया है। अब मैं जान गया हूँ की आप शुद्ध भक्त हो। विषयों में होने पर भी अनासक्त हो। मैं कुछ दिन चंपक हट्ट में निवास करूंगा , आप अपना वैभव छोड़ गुप्त रूप से वहां आ सकते हैं।

   अत्यधिक प्रसन्न होकर राजा ने अपने मंत्रियों के माध्यम से एक घर का निर्माण करवाया। वहां पर जयदेव ने रागमार्ग अनुसार भजन किया। श्रीपद्मावती देवी बहुत से चंपक पुष्पों का चयन करके लाती तथा जयदेव उन पुष्पों द्वारा श्रीनंन्दनन्दन की आराधना करते।एक दिन उन्होंने श्रीकृष्ण को चंपक पुष्प जैसे वर्ण धारण करते देखा।उनकी तप्त कांचन जैसी सुंदर कांति बहुत मनोहर थी। उनका अति सुंदर मुखकमल करोड़ करोड़ चन्द्रमाओं की सुंदरता को भी पराजित कर रहा था। उनके केश घुंघराले थे तथा गले मे पुष्पों की माला थी।उनके रूप की छटा जयदेव की पर्णकुटीर को आलोकित कर रही थी।

   तब उन्हें इस स्वरूप श्रीगौरांग महाप्रभु का दर्शन हुए।गौरांग बोलते ही मूर्छित होकर गिर पड़े।श्रीपद्मावती को भी गौरांग महाप्रभु के उसी रूप का दर्शन हुए वह भी मूर्छित होकर गिर पड़ी।श्रीमन महाप्रभु ने अपने हाथों से उन दोनों को उठाया तथा कहा तुम दोनों बहुत उदार हो तथा मेरे भक्त हो इसलिए मेरे मन मे तुम दोनों को दर्शन देने की इच्छा हुई।थोड़े ही दिन बाद में नदिया में शचिमता के गर्भ से जन्म लूंगा।सभी अवतारों के भक्तों को साथ लेकर श्रीकृष्ण कीर्तन के माध्यम से प्रेम रूपी धन का वितरण करूंगा।चौबीस की आयु मे सन्यास लूंगा तथा नीलांचल में वास करूंगा।
प्रकट लीला के अंतिम समय मैं जगन्नाथ पुरी में भक्तों के साथ अत्यधिक प्रेमाविष्ट होकर श्रीगीतगोविंद का आस्वादन करूंगा। तुम्हारे द्वारा विरचित गीतगोविन्द मुझे बहुत ही प्रिय है।यह नवद्वीप धाम बहुत चिन्मय स्थान है।तुम देह को त्याग कर अगले जन्म में अवश्य ही यहां जन्म ग्रहण करोगे।अभी तुम नीलांचल जाकर श्रीजगन्नाथ जी की सेवा करो, तुम्हें अवश्य ही प्रेमफल की प्राप्ति होगी।इतना कहकर गौरहरि अंतर्ध्यान हो गए तथा दोनो मूर्छित होकर गिर पड़े। चेतनता प्राप्त होकर वह विरह में पुनः क्रंदन करने लगे।हाय हाय इस रूप को हमने एक बार देख लिया , उसके दर्शन न होने पर हम अपने प्राणों की रक्षा किस प्रकार करेंगे।गौरहरि ने हमें नवद्वीप छोड़ने को कहा लगता है हमसे कोई अपराध हो गया है।यह नवद्वीप तो एक चिन्मय धाम है इसे छोड़ने का विचार आते ही हृदय व्याकुल हो जाता है। इस स्थान को छोड़ने पर हमारी क्या अवस्था होगी।हम इस धाम में पशुपक्षी ही बन रहा जाते। हम अपने प्राण छोड़ सकते हैं परंतु यह धाम छोड़ना हमारे लिए असहय है। हे गौरहरि कृपा करके हमें अपने चरणकमलों में स्थान दीजिये।

   ऐसा कहते कहते जब दोनों उच्च स्वर से क्रंदन करने लगे तब उन्होंने एक आकाशवाणी सुनी।तुम दोनों दुखी मत रहो। अपना मन चंचल मत करो। कुछ दिन पहले ही तुम दोनो ने नीलांचल वास का सोचा था। जगन्नाथ प्रभु तुम्हारी सेवा पाने को आतुर हैं। आकाशवाणी सुनते ही दोनो पुरी की ओर चल पड़े तथा नवद्वीप को मुड़ मुड़ प्रणाम करने लगे।नेत्रों से अविरल अश्रु धाराएँ बह रही थी।अष्ट पंखुड़ी वाले कमल नवद्वीप को देखते वे बहुत दूर पहुंच गए। रोते रोते उन्होंने गौड़ भूमि को प्रणाम किया। श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा कि इसी ऊंची भूमि को सब जयदेव का स्थान बताते हैं। यह देख श्रीजीव उस रज में लौटपोट होने लगे। वह कहने लगे धन्य हैं जयदेव कविराज धन्य हैं पद्मावती धन्य है श्रीकृष्णरति। हे प्रभु श्रीजयदेव को जिस रूप सिंधु के दर्शन हुए थे मुझे भी उसके एक कण का पान करवाइए।ऐसा कहकर श्रीजीव श्रीनित्यानन्द प्रभु के चरणों मे लौटने लगे। उस रात वह सभी श्रीवाणिनाथ के घर रुके जिन्होंने पूरे परिवार सहित उनकी सेवा की।

  श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजाह्वा देवी के सुशीतल पदकमलो का आश्रय लेकर श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने श्रीनवद्वीप धाम की महिमा का गान किया है।

एकादश अध्याय समाप्त

जय निताई जय गौर

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