पँचदश अध्याय 2

श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य

पँचदश अध्याय 2

  श्रीरामानुज वैकुंठपुरी की शोभा देख अत्यंत आनन्दित हुए। परवयोम्पति भगवान श्रीनारायण ने कृपा करके श्रीरामानुज को अपनी श्री , भू और लीला शक्ति से सेवित रूप के दर्शन करवाये। श्रीरामानुज अपने इष्टदेव का दर्शन कर  मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए। इससे अपने आपको धन्य मानने लगे। एक ही क्षण बाद उन्होंने श्रीनारायण के स्थान पर अति मनोहर जगन्नाथ मिश्र के पुत्र के दर्शन किये। उनकी रूपमाधुरी का दर्शन करके रामानुज मूर्छित हो गए। तब गौरसुन्दर ने कृपा करके उनके मस्तक पर अपना श्रीचरनकमल रख दिया। दिव्यज्ञान प्राप्त करके श्रीरामानुज स्तुति करते हुए कहने लगे -हे प्रभु क्या मैं नदिया में अपनी परकटलीला के दर्शन कर पाऊंगा।ऐसा कहकर वह प्रेम से भर क्रंदन करने लगे तथा कहने लगे मैं नवद्वीप छोड़ कहीं नहीं जाऊंगा। श्रीगौरहरि ने कहा - केशवनन्दन तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी। जिस समय नदिया में मेरी लीला प्रकट हुई तब तुम वहां जन्म लोगे। इतना कहकर गौरहरि अंतर्ध्यान हो गए तथा श्रीरामानुज ने अपनी यात्रा आरम्भ की। थोड़े ही दिन में वह कूर्मस्थान पहुंचे। यहां पर उनकी अपने शिष्यों से भेंट हुई। मन ही मन अपने चित्त को श्रीगौराँग महाप्रभु में आविष्ट करके पूरे दक्षिण भारत मे दास्य रस का प्रचार किया।

   श्रीगौरहरि की कृपा से इस नित्यधाम मे श्रीअनन्त नाम से जन्म लिया श्रीवल्लभाचार्य के घर उन्होंने गौर तथा लक्ष्मीप्रिया का विवाह होते देखा। श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा  -- हे भक्तो ! अनन्त का घर जिस स्थान पर था उसका दर्शन करो। यहां भगवान श्रीनारायण के बहुत से भक्त वास करते हैं। सभी जानते हैं कि उस समय के राजाओं ने इस पीठ स्थान पर श्रीनारायण की सेवा प्रकाशित की थी। विरजा के उस पार स्थित निः श्रेयस नामक वन का दर्शन करके सभी भक्त अत्यधिक आनन्दित होते हैं। इस प्रकार उस प्राचीन उपाख्यान को सुनते सुनाते सभी लोग महतपुर के निकट पहुंच गए। श्रीनिताई प्रभु ने कहा यह स्थान ब्रज का काम्यवन है। प्राचीन काल मे यहां वट के पांच वृक्ष थे। श्रीमन महाप्रभु की इच्छा से अभी वह अंतर्ध्यान हो गए। यधपि आजकल सभी लोग इस स्थान को मातापुर नाम से पुकारते हैं , तथापि शास्त्रों में वर्णित इसका नाम महतपुर है। अज्ञातवास के समय द्रोपदी सहित पांचों पांडवों ने गौड़देश में आगमन किया था। जब वे एकचक्रा गावँ में वास कर रहे थे तब युधिष्ठिर महाराज स्वप्न में नदिया के माहात्म्य को जानकर अस्थिर हो गए। अगले दिन श्रीनवद्वीप धाम के दर्शन की लालसा को उल्लासपूर्वक इस स्थान पर उपस्थित हुए। यहां की सुंदरता को देख वह मुग्ध हो गए तथा यहां के वासियों के सौभाग्य की प्रशंसा करने लगे।

   युधिष्ठिर टीला नाम के इस स्थान का दर्शन करो और निकट में इस द्रोपदी कुंड का भी दर्शन करो। इस स्थान के माहात्म्य को समझकर युधिष्ठिर ने बहुत दिन तक यहां वास किया था। एक दिन उन्होंने स्वप्न में सभी दिशाओं को आलोकित करते हुए गौरवर्ण कांति वाले गौरंगसुन्दर का दर्शन किया। मुस्कुराते हुए गौरसुन्दर ने युधिष्ठिर से कहा तुम मेरे इस स्वरूप का दर्शन करो। मैं ही नंदनंदन के रूप में मित्रभाव से सदैव तुम्हारे घर परिवार के सदस्यों की भांति रहता हूँ। यह नवद्वीप धाम अन्य सभी तीर्थों का सार स्वरूप है। यह धाम कलियुग में भक्ति प्रकाशित करके अंधकार का नाश करता है। तुम सभी चिरकाल से मेरे प्रिय हो। गौर लीला प्रकट होने पर तुम भी पुनः जन्म प्राप्त करोगे। उड़ीसा स्थित पुरुषोत्तम क्षेत्र में समुद्र के तट पर मैं अपना समय निरन्तर तुम्हारे साथ व्यतीत करूंगा। अब तुम यहाँ से ओढ़देश जाओ तथा उस स्थान को पवित्र करके जीवो के कष्ट दूर करो।

   नींद खुलने पर युधिष्ठिर ने अपने भाइयों को इस स्वप्न के विषय मे बताया तथा उनसे विचार विमर्श करके द्रोपदी के साथ उड़ीसा की ओर प्रस्थान किया। यधपि श्रीनवद्वीप धाम को छोड़ते हुए उन सबका मन व्याकुल हो रहा था , तथापि उन्होंने श्रीमन महाप्रभु जी के आदेश का पालन किया। इस स्थान पर मध्वाचार्य ने अपने शिष्यों के साथ रहकर बहुत दिन तक धामवास किया था। श्रीमन मध्वाचार्य पर अत्यधिक कृपा करके श्रीगौरसुन्दर ने उन्हें स्वप्न के माध्यम से अपने सुंदर रूप का दर्शन करवाया। मुस्कुराते हुए उन्होंने मध्वाचार्य से कहा तुम मेरे प्रिय नित्य दास हो। जब मैं नवद्वीप में आविर्भूत होऊँगा तब मैं तुम्हारे सम्प्रदाय को स्वीकार करूंगा।तुम अभी अथाह प्रयास करके सभी स्थानों से मायावाद रूप असत शास्त्र को जड़ से उखाड़ फेंको। तुम श्रीविग्रह के माहात्म्य की प्रकाशित करोगे । मैं तुम्हारे शुद्ध मत को और अधिक  प्रकाशित करूंगा। इतना कहने पर गौरसुन्दर अंतर्ध्यान हो गए। निद्रा खुलने पर स्वप्न का स्मरण कर मधवा मुनि मूर्छित हो गए। स्वस्थ होने पर वह गौरसुन्दर की उस रूप माधुरी का ध्यान करते हुए पुनः दर्शन की लालसा से क्रंदन करने लगे। उसी समय निर्मल आकाश से एक आकाशवाणी हुई। तुम गुप्त रूप से मेरा भजन करो। भजन के फलस्वरूप ही तुम मेरे पास आओगे। देव वाणी सुनकर मध्वाचार्य ने धैर्य धारण किया तथा मायावादियों पर विजय प्राप्त करने हेतु निकल पड़े। क्रमशः

जय निताई जय गौर

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