भाग 5 अध्याय 2
*श्रीहरिनाम चिंतामणि*
5
*श्रीचैतन्यदेव की जय हो*
*अध्याय 2*
*इस मायिक जगत में कृष्णनाम और जीव दो चिन्मय वस्तु हैं*
श्रीकृष्णनाम के बराबर इस संसार मे कोई वस्तु नहीं हैं। श्रीकृष्ण के भंडार में हरिनाम ही परम धन है। इस जगत में श्रीकृष्णनाम तथा जीव ही चिन्मय हैं बाकी तो सारा संसार ही मायिक जगत है।
*मुख्य और गौण रूप से नाम दो प्रकार के हैं*
मुख्य और गौण भेद से श्रीकृष्ण के नाम भी दो प्रकार के हैं। मुख्य नाम के आश्रय से ही जीव सभी वस्तुओं को प्राप्त करता है। भगवान की चिन्मय लीलाओं का आश्रय करके जितने भी श्रीकृष्ण के नाम हैं , सभी भगवान के मुख्य नाम हैं तथा ये नाम ही तमाम गुणों की खान है।
*मुख्य नाम*
गोविंद, गोपाल, राम, श्रीनन्दनन्दन, राधानाथ, हरि, यशोमति प्राणधन, मदनमोहन, श्यामसुंदर, माधव, गोपीनाथ, ब्रजगोप, राखाल, यादव यह सभी नाम नित्यलीला के प्रकाशक हैं। जिनके कीर्तन से जीव श्रीकृष्ण धाम को प्राप्त करता है।
*गौण नाम और उनके लक्षण*
वेदों के अनुसार जड़ प्रकृति के परिचय और गुणों से सम्बंधित जितने भी भगवान के नाम हैं , उनको गौण नाम कहते हैं। जैसे सृष्टिकर्ता, परमात्मा, ब्रह्मा,स्थितकर, जगत संहार कर्ता, पालन कर्ता , यगेश्वर हरि आदि।
*मुख्य नामों और गौण नामों के फल का भेद*
शास्त्रों के मतानुसार कर्मकांड तथा ज्ञानकाण्ड के भीतर जो नाम आते हैं, वे सभी पुण्य तथा मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। हरिनाम का मुखय फल एकमात्र श्रीकृष्ण प्रेमधन को प्राप्त करना है। ये मुख्य नाम के द्वारा ही इस धन की प्राप्ति होती है यह शास्त्र कहते हैं।
*नाम और नामाभास में फल भेद*
शास्त्रों के मतानुसार यदि एक कृष्ण नाम किसी के मुख से निकले तथा कानों के रस्ते से किसी के भीतर प्रवेश करे तो वह चाहे शुद्ध वर्ण हो या अशुद्ध वर्ण , हरिनाम के प्रभाव से वह जीव भवसागर से पार हो जाता है।किंतु इसमे एक बात सुनिश्चित है कि नामाभास होने पर वास्तविक फल की प्राप्ति में विलम्ब होता है। हरिनाम करने वाले के जब नामाभास द्वारा सारे पाप तथा अनर्थ निवर्त हो जाते हैं तब शुद्ध नाम भक्त की जिव्हा पर नृत्य करता है। उसी समय शुद्ध नाम के प्रभाव से जीव को श्रीकृष्ण प्रेमधन की प्राप्ति होती है।
*हरिनाम में व्यवधान से दोष होता है*
हरिनाम को कोई व्यक्ति भगवान श्रीहरि से भिन्न समझे तो उससे अपराध होता है। इसी अपराध के कारण साधक को भगवत प्रेम की प्राप्ति में बाधा होती है। नाम तथा नामी में भेद बुद्धि से ही रुकावट होती है, ऐसी रुकावट बने रहने पर साधक के हृदय में प्रेम कभी उदित नहीं हो सकता।
*व्यवधान दो प्रकार का है*
श्रीकृष्ण तथा श्रीकृष्णनाम में भेद करना ही मायावाद का दोष है। शास्त्रों का विचार है कि यह कलि का ही बिछाया हुआ जंजाल है।जबकि वास्तविकता यह है कि श्रीकृष्णनाम चिन्मय है तथा किसी भी प्रकार श्रीकृष्ण से भिन्न नहीं है।
*व्यवधान रहित नाम ही शुद्ध नाम है*
अतैव शुद्ध श्रीकृष्णनाम ही जिनके मुख से निकलता है , वही शुद्ध वैष्णव है। ऐसे हरिनाम करने वाले की आदर के साथ सेवा करनी चाहिए।
*अनर्थ जितने नष्ट होते हैं उतना ही नामाभास दूर होता है एवं चिन्मय नाम प्रकाशित होता है*
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि नामाभास को छोड़कर शुद्ध नाम प्राप्त करने के लिए जीव को यत्न के साथ सद्गुरु की सेवा करनी चाहिए। भजन करते करते जिस समय सारे अनर्थ नाश हो जाते हैं , उसी समय चित स्वरूप श्रीहरिनाम जीव की जिव्हा पर नृत्य करता है। हरिनाम तो अमृत की धारा है , जिसे पान करके छोड़ने का विचार ही नहीं होता।हरिनाम के आनन्द में मत्त होकर नाम ही नृत्य करने लगता है।
श्रीहरिनाम के प्रभाव से जीव तो नाचता ही है , जीव का हृदय में श्रीकृष्ण प्रेम भी उसके साथ साथ नृत्य करता है, साथ जी जगत के लोगों को भी नचाता है और ऐसे में माया तो वहां से कोसों दूर चली जाती है।
*जिसकी नाम मे श्रद्धा होती है उसी का हरिनाम में अधिकार होता है। हरिनाम में ही सारी शक्तियां हैं*
भगवान ने सभी मनुष्यों को हरिनाम करने का अधिकार दिया है। साथ ही भगवान ने हरिनाम में अपनी सारी शक्तियां प्रदान कर दी हैं।जिनकी हरिनाम में श्रद्धा होती है, वह ही हरिनाम का अधिकारी है।जिसके मुख से श्रीकृष्णनाम उच्चारित होता है वह ही आचरनशील वैष्णव है।
*हरिनाम में स्थान, समय व अशौच आदि की कोई सीमा नहीं है*
हरिनाम में इतनी शक्ति है कि हरिनाम करने वाले को स्थान, समय व अशौच आदि के जितने भी नियम हैं , वे पालन नहीं करने पड़ते क्योंकि हरिनाम ही इतना प्रभावशाली है कि वह अपवित्र को भी पवित्र कर देता है।
*कलि से ग्रस्त जीवों का नाम मे निष्कपट विश्वास होने पर ही उन्हें हरिनाम करने का अधिकार प्राप्त होता है*
दान, यज्ञ, स्नान, जप आदि करने में तरह तरह के विचार हैं । किंतु श्रीकृष्ण संकीर्तन में श्रद्धा करने वाला ही एकमात्र उसका अधिकारी है। युगधर्म में हरिनाम का , अनन्य श्रद्धा से जो आश्रय करता है , उस को सभी कुछ प्राप्त होता है। हम कलियुग के जीवों के लिए हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि कलियुग के जीव निष्कपट रूप से श्रीकृष्ण के संसार मे रहकर हमेशा श्रीकृष्ण का नाम करेंगे।
*हरिनाम के अनुकूल विषय ग्रहण करना और प्रतिकूल विषय वर्जन*
भजन के अनुकूल जितने कार्य हैं , उनको स्वीकार करते हुए तथा भजन के प्रतिकूल जितने भी कार्य हैं उनका त्याग करते हुए श्रीकृष्ण के संसार मे रहकर जो जीवन यात्रा का निर्वाह करता है , उसके हृदय में निरन्तर श्रीकृष्णनाम उदित होता है।शुद्ध हरिनाम करने वाला श्रीकृष्ण के संसार मे रहकर निरन्तर भगवद स्मरण के साथ हरिनाम करता रहता है।
*अनन्य बुद्धि के साथ हरिनाम करना*
श्रीनामाचार्य हरिदास ठाकुर जी हरिनाम करने वालों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हरिनाम करने वाले को चाहिए कि वह हरिनाम के अलावा कोई और धर्म कर्म न करे।श्रीकृष्ण से स्वतंत्र भी कोई ईश्वर है, इस भावना से किसी की पूजा न करे ।बस कृष्ण नाम तथा भक्त सेवा सदा करता रहे।ऐसा करने पर श्रीकृष्ण प्रेम की प्राप्ति होगी।
श्रीहरीदास ठाकुर जी रोते हुए महाप्रभु जी के चरणों मे गिरकर हरिनाम में अनुराग होने का वरदान मांगने लगे।
श्रीभक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी के चरणों मे जिनका अनुराग है, श्रीहरिनाम चिंतामणि उनका ही जीवन स्वरूप है।
द्वितीय अध्याय समाप्त
जय निताई जय गौर
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