भाग 6 अध्याय 3

*श्रीहरिनाम चिंतामणि*

                 6

       *तीसरा अध्याय*

      *नामाभास विचार*

श्रीगदाधर पंडित, श्रीगौरांग महाप्रभु व जान्ह्वी देवी के जीवन स्वरूप श्रीनित्यानन्द प्रभु की जय हो । सीतापति श्री अद्वैताचार्य जी और श्रीवास आदि भक्तों की सर्वदा ही जय हो। हरिदास जी से हरिनाम की महिमा सुनकर महाप्रभु जी बड़े प्रसन्न हो गए और गदगद होकर उन्होंने श्रीहरिदास ठाकुर जी को अपनी बांहों में उठा लिया और कहने लगे कि हरिदास तुम मेरी बात सुनो। अब आप मुझे नामाभास क्या है यह स्पष्ट रूप से बताओ क्योंकि नामाभास की पूरी जानकारी होने से ही जीवों का शुद्ध नाम होगा और तब अनायास ही जीव हरिनाम के गुणों के प्रभाव से भव से पार हो जाएंगे।

           *नामाभास*

नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हरिनाम रूपी सूर्य उदित होकर मायारूपी अंधकार का नाश करता है परंतु हरिनाम रूपी सूर्य को अज्ञान रूपी ओस व अनर्थ रूपी बादल बार बार ढक लेते हैं। जीव के यह अज्ञान और अनर्थ रूपी कोहरा और बादल बड़े घने होते हैं। श्रीकृष्ण नाम रूपी सूर्य जीव के चित्त रूपी आकाश में जैसे ही उदित होता है , उसी समय अज्ञान रूपी कोहरा तथा अनर्थ रूपी बादल उसे ढक लेते हैं।

*अज्ञान रूपी कोहरा होता है-स्वरूप भ्रम*

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि जीव हरिनाम के चिन्मय स्वरूप को नहीं जानता है। इसी अज्ञानता रूपी कोहरे से उसके आगे अंधेरा हो जाता है। श्रीकृष्ण ही सर्वेश्वर हैं , जो यह नहीं जानता है , वह ही विभिन्न देवी देवताओं की पूजा करता हुआ कर्म मार्ग में भटकता रहता है।इसके अलावा जीवात्मा का स्वरूप भी चिन्मय है जिसको यह ज्ञान भी नहीं है , वह तो समझो माया के द्वारा बुरी तरह जकड़ा हुआ हर समय अज्ञान में ही रहता है। तभी श्रीहरीदास जी आनन्द से कहने लगे -मैं तो आज धन्य हो गया हूँ क्योंकि आज मेरे मुख से स्वयम श्रीचैतन्य महाप्रभु जी हरिनाम महिमा सुनेंगे। हे गौरहरि जी !श्रीकृष्ण प्रभु और जीव उन्हीं श्रीकृष्ण का दास है तथा माया तो जडात्मिका है , जो जीव यह नहीं जानता उसके सिर पर अज्ञान रूपी छाया मंडराती रहती है । श्रीकृष्ण प्रभु हैं, जीव उनका नित्य दास है तथा माया जड़ है इसे अच्छी तरह से जान लेने पर जीव का सारा अज्ञान नष्ट हो जाता है।

*बादल रूपी हैं-असदतृष्णा, हृदय की दुर्बलता और अपराध*
श्रीकृष्ण नाम रूपी दिव्य सूर्य के सामने असद तृष्णा, हृदय की दुर्बलता एवं अपराध आदि के बादल रूपी अनर्थ आकर उसको ढकने लगते हैं । हरिनाम रूपी सूर्य की रोशनी को जब ये अनर्थ रूपी बादल ढक लेते हैं तो जीव का नामाभास होता है। ऐसी अनर्थ युक्त अवस्था मे , स्वतः सिद्ध कृष्ण नाम हमेशा ही ढका रहता है।

*नामाभास की अवधि*

जितने समय तक सम्बन्ध तत्व का ज्ञान नहीं होता है,उतने समय तक जीव का नामाभास ही होता है। यधपि ऐसी अवस्था मे भी साधक सद्गुरु के आश्रय में ही रहता है। परंतु जब तक वह दृढ़ता पूर्वक भजन नहीं करता , तब तक उसके ये अनर्थ रूपी बादल नहीं छटते अर्थात साधक के भजन की निपुणता से ही से अनर्थ रूपी बादल छिन्न भिन्न होंगे।

*सम्बन्ध,अभिदेय और प्रयोजन*

अज्ञान व अनर्थ रूपी कोहरा व बादलों के हट जाने पर हरिनाम रूपी सूर्य प्रकाशित हो उठता है। ये हरिनाम रूपी सूर्य प्रकाशित होकर भक्तों को श्रीकृष्ण प्रेम रूपी आनन्द प्रदान करता है।सद्गुरु जीव को सम्बन्ध ज्ञान प्रदान करके अभिदेय के रूप उससे हरिनाम का अनुशीलन करवाते हैं अर्थात सद्गुरु उसे हरिनाम के श्रवण कीर्तन तथा स्मरण के लिए कहते हैं।गुरु जी की कृपा से अल्प समय मे ही हरिनाम रूपी सूर्य के तेज से अनर्थ रूपी कोहरा दूर हो जाते हैं। उसके बाद श्रीहरिनाम जीव को प्रयोजन तत्व प्रेमतत्व प्रदान करते हैं। उस प्रेमधन को प्राप्त करके जीव श्रीकृष्ण नाम संकीर्तन करता है।

      *सम्बन्ध ज्ञान*

सद्गुरु के चरणों मे जीव जब श्रद्धा के साथ उपस्थित होता है तो उसे सर्वप्रथम सद्गुरु से सम्बन्ध ज्ञान की प्राप्ति होती है। उसे अच्छी तरह से मालूम पड़ जाता है कि श्रीकृष्ण ही नित्य प्रभु हैं और जीव उनका नित्यदास है तथा यह नित्यसिद्ध श्रीकृष्ण प्रेम जीव के स्वरूप में प्रकाशित है। जीव श्रीकृष्ण का नित्यदास है , यह भूलकर ही वह माया के जगत में सुख की खोज कर रहा है।श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि मायिक जगत तो जीव का कारागार है।जीव की भगवद विमुखता दोष के कारण उसको यह दण्ड देकर शोधन किया जाता है।इस दशा में जीव साधु वैष्णवों की कृपा प्राप्त करता है तो वह पुनः सम्बन्ध ज्ञान के द्वारा श्रीकृष्ण नाम प्राप्त करता है। जिसके सामने सायुज्य, सामीप्य आदि मुक्तियाँ तुच्छ सी प्रतीत होती हैं। जब तक किसी का सम्बन्ध ज्ञान पूरी तरह पक्का नहीं हो जाता , तब तक वह अनर्थों से रहित होकर शुद्ध हरिनाम नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में उसके द्वारा किया गया हरिनाम केवलमात्र नामाभास होता है।

*नामाभास का फल*

नामाभास की स्थिति में भी बहुत मंगल होता है। एक तो जीव की सुकृति प्रबल होती चली जाती है । दूसरा नामाभास से उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं तथा साथ ही साथ मनुष्य के भीतर की भोग वासनाएं हर तरह का छल कपट झगड़े आदि की वासनाएं भी समाप्त हो जाती हैं। नामाभास के प्रभाव से पतित से पतित जीव भी अपने कुल के साथ पवित्र हो जाता है तथा आसानी से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। उसके सभी रोगों का निवारण हो जाता है। जीव के अंदर भरे सभी प्रकार के सन्देह नामाभास से दूर हो जाते हैं। नामाभासी व्यक्ति सभी प्रकार के काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार आदि शत्रुओं से मुक्त होकर पूर्ण शांति को प्राप्त कर लेता है। नामाभास के प्रभाव से यक्ष, रक्ष, भूत, प्रेत,ग्रह तथा अनर्थ दूर हो जाते हैं । नामाभास के प्रभाव से सभी प्रकार के प्रारब्ध कर्म समाप्त हो जाते हैं। नामाभास के द्वारा नर्कगामी व्यक्ति को भी मुक्ति मिलती है। सभी वेदों को पढ़ने, सभी तीर्थों को करने तथा अनेक प्रकार के शुभ कर्मों को करने से भी अधिक है  नामाभास की महिमा अर्थात नामाभास इन सबसे श्रेष्ठ है।

*नामाभास से वैकुंठादि प्राप्त होता है*

नामाभास धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष इन सबको देने वाला है। इसके अतिरिक्त नामाभास जीव का उद्धार करने की पूरी शक्ति रखता है। ये दुनिया के सभी सुखों को देने वाला तथा श्रेष्ठ पद प्रदान करने वाला है। जिसका किसी तरह से कल्याण नहीं हो सकता , उसका भी नामाभास से कल्याण सम्भव है। नामाभास कि स्थिति को प्राप्त करना ही अपने आपमें श्रेष्ठ पद है। विशेषतः शास्त्र कहते हैं कि इस कलियुग में नामाभास के द्वारा ही वैकुंठ की प्राप्ति होती है। श्रीहरीदास ठाकुर जी कहते हैं कि जहां तक मुझे ज्ञात है -संकेत, परिहास, स्तोभ तथा हेला यह चार प्रकार के नामाभास हैं।

*संकेत रूपी नामाभास दो प्रकार के होते हैं*

पहला तो भगवान विष्णु को लक्ष्य करके दुनियावी बुद्धि से जब भगवान का नाम उच्चारण किया जाता है तथा दूसरा तब, जब भगवान के अतिरिक्त कहीं और ध्यान हो और मुख से भगवान का नाम उच्चारण किया जाए। संकेत रूपी नामाभास इन्हीं दो प्रकार का होता है। सांकेतिक नामाभास का शास्त्रों में अजामिल के उदहारण द्वारा वर्णन है। हा राम ! हा राम! उच्चारण से सभी यवन अनायास ही मुक्त हो जाएंगे । अन्यत्र किसी वस्तु को संकेत करते हुए भी भगवान का नाम लिया जाता है , इस तरह के नामाभास में भी हरिनाम का जो प्रभाव है वह समाप्त नहीं होता है।

     *परिहास नामाभास*

जो जीव परिहास करते हुए भी श्रीकृष्ण नाम लेते हैं , जरासन्ध की तरह वे भी इस संसार से पार हो जाते हैं।

*स्तोभ नामाभास*

शिशुपाल की तरह और किसी उद्देश्य से लिया गया नाम ,स्तोभ नामाभास कहलाता है। इससे भी जीव का भव बन्धन दूर हो जाता है।

*हेला नामाभास*

हरिनाम में मन न लगाकर सहज भाव से यदि कोई कृष्ण या राम नाम का उच्चारण करता है तो इससे उसका हेला नामाभास होता है। ऐसे नामाभास के द्वारा सभी म्लेच्छ भी भव सागर से तर जाते हैं। अधिकतर विषयी तथा आलसी लोगों के द्वारा ऐसा नामाभास होता है।

*अश्रद्धापूर्वक नाम ग्रहण तथा हेला नामाभास में भेद*

श्रीहरिदास जी महाप्रभु जी से कहते हैं कि अर्थयुक्त जीव भी यदि श्रद्धा के साथ कृष्णनाम करता है तो उसे भी आप श्रद्धापूर्वक लिया गया हरिनाम ही कहते हो। हेला नामाभास तक जितने भी प्रकार के नामाभास हैं , उनमे से किसी भी तरह का नामाभास यदि हो जाता है तो इस प्रकार श्रद्धा रहित नाम उच्चारण से भी जीवों के तमाम पाप खत्म हो जाते हैं तथा उनको मुक्ति की प्राप्ति होती है। क्रमशः

जय निताई जय गौर

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