सप्तदश अध्याय

श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य

सप्तदश अध्याय

श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजीव गोस्वामी के प्रश्न उत्तर

श्रीगौरचन्द्र की जय हो ! जय हो !श्रीअद्वैताचार्य प्रभु की जय हो ! जय हो ! श्रीगदाधर पंडित की जय हो ! जय हो!  प्रेम रूपी रस के आनन्द की जय हो ! जय हो ! श्रीवास आदि भक्तवृन्द की जय हो ! जय हो !  प्रेम के भंडार महासंकीर्तन की जय हो ! जय हो !
 
   अगले दिन प्रातः श्रीनित्यानन्द प्रभु श्रीवास आंगन में विराजमान थे। गौर प्रेम से विभोर होने के कारण दोनों नेत्रों से अश्रु बह रहे थे। उनको असंख्य वैष्णव जन ने घेर रखा था तथा सभी गौर प्रेम में उन्मत्त हो रहे थे। उस समय श्रीजीव गोस्वामी भी वहां उपस्थित हुए। श्रीनित्यानन्द प्रभु के चरणों मे दण्डवत कर वहां रज में लौटपोट होने लगे। बहुत प्रयत्न करने पर श्रीनित्यानन्द प्रभु ने पूछा तुम वृन्दावन कब जाओगे। श्रीजीव ने कहा प्रभु आपकी आज्ञा सर्वोपरि है। आपका आदेश पाकर ही मैं प्रस्थान करूंगा। जाने से पहले मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहता हूं। कृपया उत्तर देकर अपने इस दास का कल्याण कीजिये।

   श्रीनवद्वीप धाम ही श्रीवृन्दावन धाम है फिर इसे छोड़कर वहां जाने का प्रयत्न क्यों किया जाय। श्रीनित्यानन्द प्रभु बोले यह बहुत गूढ़ बात है इसे ध्यान से सुनो। किंतु यह ध्यान रखना जब तक महाप्रभु जी की लीला प्रकट है कोऊ बाहिर्मुख व्यक्ति इसे जान न पाए। श्रीनवद्वीपधाम तथा श्रीवृन्दावनधाम एक ही तत्व हैं , इनमें निम्न या श्रेष्ठ का कोई विचार नहीं है। यधपि श्रीवृन्दावन रस का आधार है , तथापि अधिकारहीन व्यक्ति इसकी प्राप्ति नहीं कर सकता। इसलिये यह श्रीनवद्वीपधाम अनाधिकारी को भी रस ग्रहण करने के योग्य बना देता है। श्रीराधाकृष्ण की लीला सभी रसों का सार है इसलिए सहसा यह अधिकार किसी को प्राप्त नहीं होता है। बहुत जन्म तपस्या करने पर तत्वज्ञान प्राप्त होता है। ज्ञान परिपक्व होने पर ही रस के विषय मे जानने की इच्छा होती है। ऐसा होने पर भी उसे प्राप्त करने में प्रतिक्षण कई बाधाएं आती हैं। इसलिए रसरूपी इस महाधन को प्राप्त करना बहुत कठिन है। केवलमात्र ब्रज जाने से ही सभी को प्रेम प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि अपराध के कारण रस विरस हो जाता है।

    इस घोर कलियुग में जीव हर समय अपराधों से घिरा रहता है तथा उस पर थोड़े दिन के इस जीवन मे जंजाल बहुत अधिक हैं। इच्छा करने पर भी ब्रजरस की प्राप्ति सम्भव नहीं है। एकमात्र कृष्ण कृपा ही इस रस की प्राप्ति का कारण है। इसलिए कलियुगी जीवोँ पर कृपा करने हेतु ही श्रीराधाकृष्ण श्रीवृन्दावन सहित श्रीगौरसुन्दर के रूप में श्रीनवद्वीपधाम में सचिनन्दन के रूप में अवतरित हुए हैं। श्रीगौरहरि जीवों को रस में अधिकार प्राप्त करने का ऐसा मार्ग प्रशस्त करते हैं , जिसमे अपराध किसी प्रकार बाधा उतपन्न नहीं कर सकते। नाम का आश्रय धारण करके श्रीनवद्वीपधाम में वास करने से रस का अधिकार प्राप्त होता है। थोड़े ही दिनों में सब अपराध दूर होकर श्रीकृष्ण प्रेम हृदय में प्रकाशित होता है। साधक के हृदय में श्रीराधाकृष्ण के रस को पाने की परम लालसा उदित हो जाती है। इस प्रकार जीव श्रीगौरहरि की कृपा प्राप्त करके युगलकिशोर के रसपीठ श्रीवृंदावन को प्राप्त करता है।

  यह बहुत ही गूढ़ तत्व है , इस तत्व का जिस किसी को भी उपदेश मत देना। श्रीनवद्वीपधाम तथा श्रीवृन्दावन में कोई भेद नहीं है। यधपि इस नवद्वीप में श्रीवृन्दावन प्रकाशित रहता है तथापि अब तुम श्रीराधाकृष्ण की लीलास्थली श्रीवृन्दावन का आश्रय करने के अधिकारी हो अतैव ब्रजधाम ही तुम्हारा आश्रय है।

  हे वल्लभतन्य ! मनुष्य का कर्तव्य है कि ब्रजरस में अधिकार प्राप्त करने के लिए पहले श्रीनवद्वीप धाम का आश्रय ले। ब्रजरस प्राप्त होने पर भी श्रीवृन्दावन का वास करना चाहिए क्योंकि वहां जीवों को रस में उल्लास प्राप्त होता है। जब किसी सज्जन व्यक्ति को श्रीनवद्वीपधाम की कृपा प्राप्त होती है तब अनायास ही उसे श्रीवृन्दावन की प्रापति होती है। श्रीनित्यानन्द प्रभु के मुख से यह गूढ़ तत्व सुनकर श्रीजीव ने श्रीनित्यानन्द प्रभु के चरणों मे प्रणाम करके कहा सार वस्तु के सार जानने वाले मेरे प्रभु आपसे एक प्रश्न और है।

    यधपि श्रीनवद्वीपधाम में बहुत व्यक्ति निवास करते हैं , तब भी सभी कृष्णभक्ति क्यों नहीं करते। मेरे मन मे यह संशय उतपन्न हुआ है कि धामवास करने पर भी उनमे अपराध किस प्रकार रह सकते हैं। फिर वैष्णवजन निश्चिन्त किस प्रकार होवें। हे नित्य निरंजन इसका समाधान कीजिये।

श्रीनित्यानन्द प्रभु तथा श्रीजाह्वा देवी के सुशीतल चरणकमलों का आश्रय प्राप्त करने की इच्छा से श्रील भक्ति विनोद द्वारा श्रीनवद्वीपधाम के माहात्म्य का गान किया जा रहा है।

सप्तदश अध्याय समाप्त

जय निताई जय गौर

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