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Showing posts from January, 2017

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द्विदल सिद्धान्त भाग 6 द्विदल-सिद्धान्‍त इन दोनों की प्रीति को अपने लता-गुल्‍म में प्रतिबिबित करने का वृन्‍दावन का स्‍वभाव है। रसिक संतों ने वर्णन किया है। कि वृन्‍दावन ...

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द्विदल सिद्धान्त भाग 5 समान आश्रयों को पाकर ही प्रीति का पूर्ण रूप प्रकाशित होता है। विषम-प्रेम को पर्ण प्रेम नहीं कहा जा सकता। हित भोरी ने अपने एक पद में प्रेम के प्रकाश की ...

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द्विदल सिद्धान्त भाग 4 अतिशय प्रीति हुती अन्‍तर-गति हित हरिवंश चली मुकलित मन। निविड़ निकुंज मिले रस सागर जीते सत रतिराज सुरत रन।। श्री हित प्रभु को निकट-मान अधिक रूचिकर औ...

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द्विदल सिद्धान्त भाग 3 भजनदास जी बतलाते हैं- ‘तीव्र प्रेम का यह रूप है कि तन से तन, मन से मन, प्राण से प्राण एवं नेत्र से नेत्र मिले रहने पर भी चैन नहीं मिलता’। तन सौं तन मन सौं जु ...

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द्विदल सिद्धान्त भाग 2 सुनियत यहां दूसर कोउ नाहीं। बिना एक चाह परिछाहीं।। चाहनि सों पूछी में बाता, प्रीतम कही कौंन रंग राता। तिनि मूसकाइ बात यह कही, नित्‍य-मिलन अनमिलनौं स...

द्विदल

द्विदल-सिद्धान्‍त काव्‍य शास्‍त्र में श्रृंगार-रस के दो भेद माने गये हैं-संभोग श्रृंगार, विप्रलाभ श्रृंगार। प्रेमोपासकों ने भी श्रृंगार-तरू को द्विदल माना है। उसका एक ...