अनन्दाष्टक

आनन्दाष्टक
(श्री ध्रुवदास जी विरचित)

सखी सबै उडगन मनौं , एक बार आनन्द ।
पिय चकोर ध्रुव छकि रहे , निरखि कुँवरि मुखचन्द ।। 1 ।।

श्री वृन्दावन नित्य विहार के नित्य नव निभृत निकुँज विलासी चतुर्व्यूह का संक्षिप्त परिचयात्मक रूपक प्रस्तुत करते हुए श्री हित ध्रुवदास जी कहते है कि आनन्द धाम श्रीवृन्दावन ही मानो एक नीरभ्र , प्रेमाकाश है । जहाँ सखियोँ का समुदाय ही देदीप्यमान तारामण्डल है । जिसके मध्य में नवल किशोर निकुंजेश्वरी श्रीराधा का छविधाम मुखमण्डल अलौकिक चन्द्रमा की भाँति जगमगा रहा है । प्रियतम श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के रूपपिपासु नेत्र चकोर हैं , जो निर्निमेष भाव से प्रियतमा की मुखचन्द्र माधुरी का पान करके छके रहते हैं । 1 ।

ऐसी अद्भुत सभा बनी , इक छत सुख की रासि ।
फूले फूल आनन्द के , सहज परस्पर हाँसि ।। 2 ।।

वृंदावन प्रांगण में सखी जन एवम् प्रियप्रियतम की यह मण्डली अद्भुत तो है ही , विलक्षण एवं एक छत्र सुख की राशि भी है , जहाँ परिकर का परस्पर हास्य ही आनन्द रुपी पुष्पों का विकास है । 2 । 

देखि लाल के लालचहि , लालच हू ललचाइ ।
नवल कटाक्ष तरंग रस , पिवतहू न अघाइ ।। 3 ।।

श्री किशोरी के विशाल नेत्रों की नव नव कटाक्ष तरंगों का अनवरत रसपान करते हुये भी प्रियतम् का रूप लालची मन तृप्त नहीँ होता है । श्री लाल जी के रूपदर्शन लालच को देखकर ऐसा लगता है कि मूर्तिमान लालच भी लाल जी के लालच को देखकर ललचा रहा है । 3 ।

एकहि वय गुन प्रेम रस , रूपअरु सील सुभाव ।
अद्भुत जोरी बनी ध्रुव , देखि बढ़त चितचाव ।। 4 ।।

युगल किशोर की वय (आयु) , गुणावली , पारस्परिक विलास , प्रेम , नवनवायमान रूप , शील , नम्रता , मृदुता युक्त स्वभाव , सभी कुछ समान हैं । ऐसी अद्भुत मिथुन मूर्ति को देख कर देखते रहने का ही चाव चढ़ता रहता है । 4 ।

या रस के जे रसिकजन , तिनकी कौन समान ।
बिना मधुर रसमाधुरी , परसत नहिं कछु आन ।। 5 ।।

वृन्दावन नित्य विहार परिकर के नाम , रूप , लीला , रसास्वादी रसिक जनोँ की समता कौन कर सकता है ,जो इस मधुर रस की माधुरी के सिवाय अन्य किसी रस का स्पर्श भी नहीँ करते । 5 ।

रसिक तबहिं पहिचानियै जाकैं यह रस रीति ।
छिन - छिन हिय में झलकि रहै , लाल लाडिली प्रीति ।। 6 ।।

यदि भक्तों का अस्वादनीय इष्ट तत्व यह रस प्रीति है एवम् क्षण क्षण प्रति उनके हृदय में ललित लाडिली लाल की प्रीति झलकती हिलोरें लेती रहती है , वास्तव में तभी उन्हें रसिक जानना और मानना चाहिये । 6 ।

यह रस जिन समुझ्यौ नहीँ , ताके ढिंग जिनि जाहु ।
तजि सतसंग सुधा रसहि , सिंधु-सुतहि जिनि खाहु ।। 7 ।।

जिन्होंने उपरोक्त वृन्दावन निकुँज विलास रस को जाना पहचाना तक नहीँ हैं , रसिक उपासक को उनके समीप जाना तक उचित नहीँ है , अर्थात् उनसे सम्पर्क स्थापित करना विषभक्षण तुल्य है, अतएव रसिक उपासक को चाहिए कि रसिक संग रूपी अमृत का त्याग करके अन्य किसी के संग रुपी सिंधु पुत्र विष का भक्षण न करें । 7 ।

वृन्दावन रस अति सरस , कैसैं करौं बखान ।
जिहि आगैं बैकुंठ कौ , फीको लगतु पयान ।। 8 ।।

वृंदावन रस अत्यंत ही सरस है , जिसका वर्णन करने में वाणी असमर्थ है । जिस वृन्दावन के समक्ष वैकुण्ठ का प्रस्थान भी तुच्छ प्रतीत होता है ।

यह अष्टक "ध्रुव" पढ़ै जौ , सन्ध्या और सबार ।
ताके हियैं प्रकास रहै , मिटै त्रिगुन - अँधियार ।। 9 ।।

श्री ध्रुवदास जी कहते है कि जो कोई सन्ध्या एवम् प्रातः काल इस आनन्दाष्टक का पाठ करेगा , उसके हृदय में त्रिगुण जन्य अंधकार का विनाश होकर सदा प्रेम का प्रकाश प्रकट होगा । 9 ।
सेवा -- सत्यजीत "तृषित"
जयजय लाडिलीलाल जु , जयजय श्यामाश्याम ।।

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