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द्विदल सिद्धान्त भाग 2

सुनियत यहां दूसर कोउ नाहीं।
बिना एक चाह परिछाहीं।।
चाहनि सों पूछी में बाता, प्रीतम कही कौंन रंग राता।
तिनि मूसकाइ बात यह कही, नित्‍य-मिलन अनमिलनौं सही।[1]

अन्‍यत्र वे कहते हैं, ‘प्रेम में जैसे प्रेमी और प्रेम-पात्र एक प्राण, दो देहवाले होते हैं, श्रृंगार-रस में वैसी ही स्‍थति संयोग और वियोग की है’। बात को स्‍पष्‍ट करने के लिये उन्‍होंने नायक को विरह-रूप और नायिका को संयोग-रूप बतलाया है। ‘श्‍याम विरह है और गोरी संयोगिन है। विचित्रता यह है कि श्‍याम और गौर-वियोग और संयोग-अदल-बदल होते रहते हैं। कभी संयोग विरह-जैसा प्रतीत होता है, और कभी विरह संयोग -जैसा प्रतीत होता है। दृष्टि न आने पर ‘श्‍याम’ कहलाते हैं और जब दृष्टि में आने लगते हैं तब ‘गोरी’ कहलाते हैं। गौर-श्‍याम इस प्रकार मिलकर रहते हैं कि न तो उनको संयुक्‍त कहा जा सकता है और न वियुक्‍त ही। श्री वृन्‍दावन श्रृंगार-रस है और गौर-श्‍याम संयोग-वियोग हैं।

त्‍यौं सिंगार बिछुरन मिलन एक प्राण दो देह।

विरह नाम नायक कौ धरयौ, नाम संयोग नायिका करयौ।
स्‍याम विरह गोरी संजोगनि, अदल बदल तिहिं सकै न कोउ गानि।।
डीठि न आवै श्‍याम कहावै, डीठि परे गोरी छवि पाबै।
गौर श्‍याम ऐसे मिलि रहे, बिछुरे भेंटे जाहिं न कहे।।
वृन्‍दावन सिंगार, गौर श्‍याम बिछुरन मिलन।
तिहि ठां करत विहार, हित माते कहत न बनैं।।

संयोग और वियोग की यह स्थिति अत्‍यन्‍त सूक्ष्‍म एवं तीव्र प्रेम में ही संभव है। प्रेम का जहां स्‍थूल स्‍वरूप होता है, वहां संयोग और वियोग भी स्‍थूल प्रकारों में व्‍यक्‍त होते हैं। श्री हिताचार्य ने वियोग के स्‍‍थूल एवं सूक्ष्‍म स्‍वरूपों के उदाहरण अपनी रचनाओं में दिये हैं। स्‍थूल-गति का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि ‘मधुर रस एवं मधुर स्‍वरों वाली वीणा को गोद में रखकर वियोगवती श्री राधा नागर-शिरोमणि श्री श्‍यामसुन्‍दर की भावमयी लीलाओं का गान करती हैं और अश्रु-वर्षा से अपार बने हुए दु:ख के साथ दिनों को बिताती है। अहो ! ऐसी श्री राधा मेरे हृदय में विराजमान हों।(रा. सु.)

यहां श्री राधा-माधव के बीच में देश और काल का अंतर पड़ा हुआ है। जिस वियोग दशा का अनुभव इस समय श्री राधा को हो रहा है, उसका कारण कवेल प्रेम ही नहीं है, उसके साथ्‍ज्ञ देश और काल का अंतर भी है। प्रेम के साथ देश और काले के योग के कारण ही यहां पर विरह. का रूप स्‍थूल बन गया है। देश और काल का अन्‍तर जितना कम होता जाता है, उतना ही विरह सूक्ष्‍म होता जाता है एक स्थिति ऐसी आती है जहां विजातीय पदार्थ का अन्‍तर शून्‍य हो जाता है और एक-मात्र प्रेम ही अत्‍यन्‍त तीव्र बन कर सूक्ष्‍म विरह में परिणत हो जाता है। विरह की सूक्ष्‍म स्थिति का वर्णन करते हुए श्री हितप्रभु कहते हैं-‘जिन श्री राधा-माधव का वाह्य एवं अन्‍तर एक क्षण के वियोग के आभास-मात्र के कोटि कल्‍पग्नियों के दाह का अनुभव करता है, गाढ़स्‍नेहानुबन्‍ध में गुथे हुए-से उन दोनों अदभुत प्रेम-मूर्तियों को मैा परम-मधुर आश्रय जानता हूँ। (रा. सु.)

इससे भी अधिक सूक्ष्‍म विरह का उदाहरण श्रीहित- प्रभु ने हित चतुरासी में दिया है जहां चन्‍द्र-चकोर की भांति परस्‍पर रूप देखते-देखते पलक ओट होने से महा-कठिन दशा हो जाती है और जहां अपनी देह भी न्‍यारी सहन नहीं होती। श्रीश्‍याम सुन्‍दर के नेत्रों की करूण स्थिति का वर्णन करती हुई एक सहचरी कहती है-‘मैं इन नेत्रों की बात क्‍या कहूँ ! हय भ्रमर के समान प्रिया के मुख-कमल के रस में अटक रहे हैं और एक क्षण के लिये भी अन्‍यत्र नहीं जाते। जब-जब यह पलकों के संपुट में रूक जाते हैं, तब-तब अत्‍यन्‍त आतुर होकर अकुलाने लगते हैं। निमेषपात के एक लव के अन्‍तर को भी यह सैकड़ों कल्‍पों के अन्‍तर से अधिक मानते हैं। कानों के आभूषण, आखों के अंजन एवं कुचों के बीच का मृगमद बनकर भी इनको चैन नहीं मिलता। इसलिये श्री श्‍याम सुन्‍दर अपनी एवं प्रिया की देहों को एक करने की अभिलाषा करते रहते हैं’।(हि. चतु.)

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